घमंडी, छिछोरा, मज़ाक और विनाश का खतरा

राजेन्द्र भट्ट | समाज-एवं-राजनीति | Jan 06, 2020 | 107

राजेन्द्र भट्ट

नक्कारखाने में तूती – 4

बहुत समय से मैं  ‘सेन वॉइस’ यानि विवेकपूर्ण आवाज़ के बारे में कुछ लिखना चाहता रहा हूँ। इसके पीछे एक प्रसंग है जिसकी साढ़े तीन दशक से पुरानी स्मॄति मन पर गहरे  पड़ी है।

11 अगस्त 1984 – अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन रेडियो पर अपने शनिवार के साप्ताहिक भाषण  की तैयारी कर रहे थे। ‘माइक टेस्टिंग’ के दौरान रीगन साहब बोले, ‘माइ फेलो अमेरिकंस, आइ एम प्लीज्ड टु टेल यू टुडे दैट आइ हैव साइंड लेजिस्लेसन दैट विल आउट्लॉ रशिया फॉरएवर। वी बिगिन बोम्बिंग इन फाइव मिनट्स’  (संक्षेप में, मैंने रूस को बर्बाद करने का आदेश दे दिया है। हम पांच मिनट में बमबारी शुरू कर देंगे।)

ज़ाहिर है, यह अहंकारी-उन्मादी रोनाल्ड रीगन के ‘मन की बात’ रही होगी लेकिन ज़ाहिर है कि प्रसारित नहीं हुई। रीगन साहब ने  रिकॉर्डिंग कर रहे स्तब्ध टेक्नीशियनों को जल्दी ही  बता दिया कि यह उनका मज़ाक था। छिछोरे मज़ाक, तुकबंदियाँ और नामों-शब्दों की तुक्कड-सतही व्याख्याएँ राजनीतिबाजों को छिछोरी तालियाँ तो दिला ही देती हैं,  बेशक माहौल में ज़हर घोल दें – अपने देश के अनुभव से ये हम जानते ही हैं। रीगन साहब ने भी ऐसा ही उन्मादी मज़ाक किया।

लेकिन यह मज़ाक ‘लीक’ हो गया। चूंकि यह दुनिया के सबसे ताकतवर देश के अहंकारी मुखिया के मुखकमल से निकला था, इसलिए असर तो पड़ना ही थाI दो महीने बाद (अक्तूबर 1984 में) तोक्यो के अखबार ‘योमिउरी शिम्बन’ में छपी खबर के अनुसार, सुदूर-पूर्व मोर्चे पर सोवियत सेना सतर्क कर दी गई थी। इधर, अमेरिकी रक्षा कार्यालय ‘पेंटागॉन’ भी सतर्क हो गया था I लेकिन गनीमत रही कि हालात बिगडने से पहले पता चल गया कि यह एक सम्वेदनहीन छिछोरा ‘मज़ाक’ भर था।

       (तत्कालीन) सोवियत संघ ने इसे ‘अभूतपूर्व ‘ और ‘शत्रुतापूर्ण’ हमला बताते हुए कहा कि परमाणु-शक्ति सम्पन्न देश के मुखिया से ऐसी गैर-जिम्मेदारी की उम्मीद नहीं की जा सकती। (प्रसंगवश, भारत और पाकिस्तान भी परमाणु-शक्ति सम्पन्न देश हैं।)

       वह शीत-युद्ध का चरम दौर था। अमेरिकी और सोवियत संघ  (और उनके गुटों के देशों) की  अंतर-महाद्वीपीय ( यानि दूसरे महाद्वीप तक मार कर सकने वाली ) मिसाइलें यूरोप में आमने-सामने तैनात थीं। दोनों पक्षो के पास, एक-दूसरे को, और एक बार चल जाने के बाद पूरी दुनिया को तबाह कर सकने वाले एटमी हथियार थे। यह गैर-जिम्मेदार राक्षसी मज़ाक थोड़ा और लम्बी  ‘गलतफहमी’ तक चलता तो अपनी शस्य-श्यामला धरती को मरघट बना देने वाले ‘एक्शन’ में बदल जाता।

       अब ज़रा दूसरी तरह से देखेंI 1984 का ज़माना इंटरनेट और उसकी उत्पाती आशंका वाली संतानों – ई-मेल, व्हाट्सअप, ट्विटर, फोटोशोपिंग  - यानि ‘एंटी-सोशल’ होते जा रहे ‘सोशल मीडिया’ का नहीं था। अगर ऐसा होता तो यह मज़ाक कुछ ही मिनट में ‘शेअर’ हो जाता। इसमें देश के लिए मर मिटने का, झंडों-निशानों का बारूदी, ज़हरीला बघार भी लग जाता। सरकारों-पार्टियों के ‘सोशल मीडिया  सेल’ के नीच-जन कल्पनाशीलता के साथ सक्रिय हो जाते। उन राष्ट्र-भक्तों के घर-घर तक यह ‘जानकारी’ पहुँच जाती जिनका अमेरिका-रूस सम्बंधों और अंतरराष्ट्रीय राजनीति-अर्थनीति की समझ और अभिव्यक्ति जयकारों तथा प्रेस्टिट्यूड, प्रेस्टर्ड जैसे धिक्कार-शब्दों तक सीमित होती।

       परमाणु हथियारों और युद्धों से जुडी राजनीति, अर्थनीति, मनोविज्ञान की हर चर्चा को किसी छिछोरे शब्द या तुकबंदी में लपेट  कर हर बात पर ताल ठोंकने वालों तक यह खबर मिनटों में पहुंच जाती। (हमारे तो समाचार-चैनलों के ‘विश्लेषण कार्यक्रमो’ का नाम तक ‘ताल ठोंक कर’ होता है और राष्ट्रनायकों की क्षमता छाती की नाप से मापी जाने लगी है। हमें पत्रकारिता के सही आचरण की पढाई मॆं बताया गया था कि ‘समाचार’ और ‘विचार’ को अलग-अलग रखना चाहिए; यानि समाचार देते वक्त अपनी राय यानि ‘विचार’ देने से बचना चाहिए – ‘विचार’ के अलग कार्यक्रम होने चाहिए। पर ताल ठोंक कर’ तो न समाचार है, न विचार; ये तो बिना नियमों वाली कुश्ती, बल्कि मीडिया की ‘रंगदारी’ है।)

       अगर तब सोशल मीडिया सेल होते तो इस खबर की जवाबी कार्र्वाई वो तय करते जिनकी समझ में पिन चुभने के दर्द और परमाणु विकिरण और फिर सम्पूर्ण विनाश की वेदना की कोई तुलना या ‘विजन’ नहीं होता I पत्थर और एटम बम का फर्क न जानने वाले  वे ‘वीर’ इस मूढ़ उन्माद, इस मृत्यु-मुखी खुशफहमी में जी रहे होते कि लड़ाई छिड़े, ‘मज़ा’ आ जाए – फिर तो सारे दुश्मन मर जाएंगे, हम सब राष्ट्भक्त तो बच ही जाएंगे। आसपास फट रहे बारूद और विकिरण का उन पर भी असर होगा, ये बात वे अपने खुमार में न सोचेंगे, न सोचने देंगे। (ये ‘खाऊँगा, न खाने दूँगा’ की तुकबंदी में नहीं लिखा है।)  और फिर तड़पते हुए ‘वीरगति’ हो भी गई तो वह भी एकदम दर्द-रहित, भंग की पीनक जैसा ‘गौरवशाली अनुभव’ होगा! यों भी जब उद्घोष होने लगते हैं और धमकी-मखौल  की मुद्रा मुख्य स्टेज पर आ जाती हैं तो विवेकपूर्ण सोच गद्दार हो जाता है।

       इस से जुड़ी, लेकिन ज्यादा खतरनाक बात ‘इरादे’ की है यानि अगर बर्बाद करने की यह बात ‘मन की बात’ नहीं होती तो (‘मज़ाक’ बन कर) ज़ुबान पर क्यों आती! खतरा तो तभी टलेगा न, जब यह बात मन से भी, किसी हिमालयी कन्दरा में सच्ची ‘योग-साधना’ के प्रताप से, बाहर निकल जाए। अब ऐसी साधना तो प्रचार, कार्पोरेट और राजनीति से दूर कोई सच्चा ‘योगी’ या ‘फकीर’ ही कर सकता है।  

       मुझे याद है, उस समय अखबारों- किताबों में गम्भीर चर्चा हुई थी –‘सेन वॉइस’ की। तीन दशक बाद, उन्माद की वैसी ही आवाजों के बीच मुझे वही शब्द याद आया। मैं मामूली पढ़ा-लिखा हूँ I ‘रिसर्चर’ नहीं हूँ। कैशोर्य- युवावस्था के थोड़े सत्यकामी सपने बचे हैंI बाकी तो घर की रोटी- पानी में जुटा रहता हूँ। उन्माद से तकलीफ-घुटन होती है पर उलझता नहीं हूँ; डरता हूँ।

       अपनी स्मृति को सही स्रोतों से प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत करने  के लिए उस समय के अखबार- पत्रिकाएँ नेट पर तलाश करने की कोशिश की। बहुत स्रोत नहीं मिल पाए। जैसा कि मैंने पहले ही लेख में निवेदन किया था, विद्वान मित्र-पाठक इस भयानक वाकये के बाद की प्रतिक्रियाओं के और अधिक  पुख्ता संदर्भ ढूंढ निकालें तो आभारी रहूंगा। उन्माद के खिलाफ एक से ग्यारह, और फिर एक सौ ग्यारह होना ज़रूरी है, वरना न गरीब-मजलूम बचेगा, न दुनिया बचेगी।

        रीगन हमारी पूर्व- प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के समकालीन थे I 1981 से 1989 तक अमेरिका के राष्ट्रपति रहेI भारत को पसंद नहीं करते थे। शुरुआत मॆं ‘काउ बौय’ इमेज वाले ठाँय-ठूँय अभिनेता थे। काफी सफल कैरियर रहाI चूंकि कार्यो के प्रभाव और आकलन दीर्घकालीन भी होते हैं, अतः तात्कालिक सफलता अंतिम सत्य नहीं होती। यों भी काल के सतत प्रवाह में सत्य की निरंतर उन्माद-मुक्त, निरपेक्ष पड़ताल ज़रूरी है। अपने ही समय को ‘कयामत का दिन’ या ‘डे ऑफ जज्मैंट’ नहीं मान  लेना चाहिए।

       रीगन साहब का एक और कारनामा अपने आज के हालात से मिलता-जुलता हैI विश्व भर मॆं सम्मानित बर्कले-स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के पीपुल्स पार्क मॆं विद्यार्थी 15 मई 1969 को अरब-इस्राइल संघर्ष से जुड़े मुद्दों पर चर्चा करने वाले थे। अमेरिकी सरकार पूरी बेशर्मी से इस्राइल समर्थक थी हीI रीगन जी तब कैलिफोर्निया के गवर्नर थेI उन्होँने चर्चा नहीं होने दी और बेरह्मी से विरोध कुचल दियाI 17 दिन तक बर्कले में पुलिस दमन जारी रहाI आखिर ‘ब्लडी थर्सडे’ नाम से कुख्यात दिन की हिंसा के बाद आंदोलन दब गयाI रीगन साहब का बयान था, “ इफ इट टेक्स ए ब्लड्बाथ, लैट अस गैट ओवर इट । नो मोर अपीसमेंट ।” (खून-खराबा होने दो। अब कोई ‘तुष्टीकरण’ नहीं होगा।) देखिए, कैसा भाव-साम्य और शब्द-साम्य है! अभी-अभी दिल्ली में नकाबपोश वीरों की  वीरता से कैसा घटना-साम्य है।  

       रीगन साहब मृत्युदंड के भी समर्थक थेI उन्हें मलाल रहा कि कैलिफोर्निया के सुप्रीम कोर्ट ने उनकी ये राष्ट्वादी बात नहीं मानी।

       बहरहाल, ‘सेन वॉइस’ पर लौटें। ‘सेन’ यानि ‘इनसेन’ का उल्टा। जो कुछ भी बिना अध्ययन, जानकारी और प्रामाणिक संदर्भ के फैलाई गई बातें हों;  झगड़ा भड़काने वाले – ‘मैं, मेरा धर्म-जाति-देश-पार्टी सर्वश्रेष्ठ - बाकी घटिया, कीड़े-मकोडे, देशद्रोही, मारे जाने लायक हैं’ – ऐसे विचार हों। ऐसे विचारों-बातोँ का प्रतिरोध कर पाने, समाज-दुनिया को सौम्य-करुणामय, सम्वेदनशील बना कर बचा पाने में हमारी  भी कुछ भूमिका हो सके तो जिंदा रहना सार्थक हो जाए।  दीप से दीप जले – अंधेरा छंटे – कारवाँ आगे बढ़े।

       अगर ऐसे मानवीय साहस वाले नायक सैनिक हों, तो कितनी अच्छी बात हो! आजकल सैनिकों का नाम जुबान बंद करने और बिना सोचे- समझे मार डालने के लिए लिया जा रहा है I अपने ही नागरिकों की ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ कर देने के सुझाव भी आ जाते हैं। काफी भयावह है यह सब।

       इसलिए अगली बार बात करेंगे खूब सोच-समझ कर, बिना उन्माद के नशे के निर्णय लेने वाले, उस पर चलने का साहस दिखाने वाले दो विवेकशील सच्चे सैनिकों कीI इन सैनिकों ने न बिना सोचे-समझे मारने का फैसला किया, न झोंक में ‘वीरगति’ पाने काI इनके फैसलों से जीवन बचे – महज दोस्त-दुश्मन के नहीं – पूरी दुनिया के।

       तो अगली बार –इन अल्पज्ञात वीरों की बातI

लंबे समय तक सम्पादन और जन-संचार से जुड़े रहे राजेन्द्र भट्ट अब स्वतंत्र लेखन करते हैं। वह नियमित रूप से रागदिल्ली.कॉम में लिखते रहे हैं।



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