राजेंद्र उपाध्याय की कविताएं
आईने
आईने देखना मैंने बहुत बाद में जाना
बचपन में तो मौसियां बना देती थीं मेरे बालों की दो चोटियां
दादा के साथ नहाने से पहले गर्म कुएं में देख लेता था अपनी शक्ल
स्कूल जाने से पहले शायद देखी होगी आईने में कभी-कभी अपनी शक्ल
अब वो भी याद नहीं
तब सुबह शाम बाल बनाने की जरूरत नहीं थी
आदमकद आईने नहीं रहे कभी घर में
हम ही एक दूसरे को देखते रहे जैसे देख रहे हो आईनों में
अब देखता हूं सुबह शाम खुद को
कभी कभी तो दिन में कई बार
रेल में, बस में, कार में, दफ्तार में, स्टेशन पर, हवाई अड्डे पर
दफ्तर जाने से पहले और लौटकर भी
रात को सोने से पहले और जागने के बाद भी
कितनी बार देखता हूं बदली बदली नज़र आती है शक्ल
लगता है जैसे रोज–ब-रोज होता जाता हूं बदसूरत
कहीं-कहीं तो दरवाजे नहीं आईने ही होते हैं
जितने बढ़ते जाते हैं दुनिया में आईने
दुनिया उतनी ही बदसूरत होती जाती है।
खुले में नहाना
खुले में नहाते नहाते हुआ हूं इतना बड़ा
खुले में नहलाया जाऊंगा आखिरी बार भी
खुले में नहलाती थी दादी मां
सब तरफ से पकड़कर मां भी
पर नहाने के नाम से क्यों तब रूलाई फुटती थी
बाल्टी भरभर नहलाया बड़ा होने पर गया दादा के साथ खार में नहाने
नाना की कुईयां पर मामा ने नहलाया
नहाते नहाते खुले में होते हैं बच्चे बड़े
कुएं में, बावड़ी में, नदी में, खार में, झरने में नहाते है बड़े भी
कुंभ में सिंहस्थ में तो खुले में ही नहाना होता है
बद्रीनाथ में, केदारनाथ में गरम पानी के कुंड में
गंगा नदी में सब पवित्र नदियों में खुले में नहाती हैं स्त्रियां
कुछ लोग बड़े होकर भी आजीवन नहाते रहे खुले में
नल हुआ तो हुआ नहीं तो बाल्टी से लोटा भरके
दादा-नाना मेरे कभी नहीं नहाए किवाड़ बंदकर
आखिरी बार भी नहलाए गए खुले में वे दोनों
स्नानागर तो केवल मौसियों, मामियों और बुआओं के लिए कभी बना होगा
आदमी तो कहीं भी कैसे भी नहा सकता है
नानी-दादी फिर भी नहा लेती खुले में मुंह अंधेरे
प्लेटफार्म पर नहाते हैं लोग गाड़ी आने से पहले
कुछ लोग चलती रेल में भी नहा लेते हैं
जहाज में भी नहाते हैं लोग और अंतरिक्ष में भी
शुरू शुरू में बंद किवाड़ों में कमरे में नहाने में मुझे भी असुविधा होती थी
अब नहा लेता हूं
पर खुले में नहाना अब भी भूला नहीं हूं
पर भूल चुके हैं लोग खुले में नहाना।
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*आकाशवाणी से संयुक्त निदेशक पद से सेवानिवृत्त राजेन्द्र उपाध्याय के अब तक दर्जन भर कविता संग्रह और करीब तीन दर्जन अन्य पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनके तीन यात्रा-वृतांतों में से एक को भारत सरकार के पर्यटन मंत्रालय ने राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार से पुरस्कृत किया है। 1983 में अपने पहले कविता-संग्रह ‘सिर्फ पेड़ ही नहीं कटते हैं’ से चर्चा में आए राजेन्द्र उपाध्याय हिन्दी के सर्वाधिक प्रतिष्ठित कवि अज्ञेय के प्रिय शिष्यों में से एक थे। हिन्दी अकादमी दिल्ली की ओर से इन्हें दो बार साहित्यिक कृति पुरस्कार मिला है। साहित्य अकादमी की ओर से राजेन्द्र उपाध्याय ने शारजाह अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक मेला में काव्य पाठ किया। न्यूयॉर्क, जोहान्सबर्ग और मौरिशियस में विश्व हिन्दी सम्मेलन में शिरकत की।