इंतज़ार बकवास ख़त्म होने का...!
लेखक का वक्तव्य - सेमिनार से लौट कर मैंने बैग पटक कर कहा ‘सब बकवास ! इतनी बकवास कोई कैसे कर सकता है, वह भी दो घंटे लगातार?’ बकवास अर्थात अर्थहीन, असंगत वक्तृता, जिसका कोई सिर पैर नहीं था ! सिर भन्ना रहा था ! सोच ने करवट बदली ᅳ जब पूरा लेक्चर ही अर्थहीन था तो मुझे अर्थबोध कैसे हुआ कि ‘सब बकवास था !’
खैर अब समस्या तो सामने आ गई और मेरा सिर भन्नाना भी थोड़ा कम हो चुका था.
इंतज़ार बकवास ख़त्म होने का!
डॉ मधु कपूर
हिन्दी के रीतिकालीन आचार्य चिन्तामणि ने लिखा है कि ''जो सुन पड़े सो शब्द है, समुझि परै सो अर्थ'' अर्थात जो सुनाई पड़े वह शब्द है, तथा उसे सुनकर जो समझ में आवे वह उसका अर्थ है. अर्थ और उसे संप्रेषित करने वाला शब्द दोनों ही भाषा के अविच्छिन्न अंग हैं. शब्द श्रवण का विषय है और अर्थ बोध का विषय है. जिस भाषा को हम जानते है उस भाषा के शब्द को सुनने से अर्थ प्रतीति में कोई मुश्किल नहीं होती है, लेकिन किसी अपरिचित भाषा के शब्द को सुनने से अर्थ प्रतीति नहीं होती है. अतः कहा जा सकता है कि शब्द और अर्थ का कोई स्वाभाविक सहज एवं नित्य संबंध नहीं होता है. (यद्यपि यह लम्बी बहस का विषय है.)भाषा यादृच्छिक ध्वनि प्रतीकों की व्यवस्था है. अर्थात् शब्द वह सांकेतिक इच्छा शक्ति है जो अर्थ बोध कराती है. एकबार समाज की मान्यता उसे मिल जाये तो शब्द एक निश्चित अर्थ को सीधे संप्रेषित कर सकता है.
आचार्य पाणिनि हो, चाहे निरुक्तकार यास्क, भाषा का सार वे ‘अर्थ’ को ही मानते है. अर्थ-ज्ञान के बिना भाषा का व्यवहार निष्प्राण है. लोक व्यवहार और साहित्य में भी यदि प्राथमिक अर्थ किसी प्रसंग में अनुपयुक्त होता है, तो व्यक्ति प्राथमिक अर्थ का विस्तार कर अन्यार्थ को प्राप्त कर लेता है, जिसे शब्द की लक्षणा और व्यंजना वृत्ति कहा जाता है. जैसे ‘बैल’ शब्द के द्वारा एक विशेष पशु का बोध होता है. किसी व्यक्ति को ‘बैल’ कहने का अर्थ मूर्ख समझा जाता है. कभी कभी सभी अर्थों का त्याग कर वक्ता द्वारा इच्छित अर्थ ग्रहण कर, गुप्त भाषा में ‘बैल’ शब्द का अर्थ रात एक बजे किसी विशेष जगह पहुँचने का सन्देश भी हो सकता है.
प्रश्न उठता है कि अर्थ क्या है? साधारणतः ‘अर्थ’ शब्द – अभिप्राय, धन, हेतु, कारण, प्रयोजन, और वस्तु आदि के लिए प्रयुक्त होता है. इसलिए ‘अर्थशास्त्र’ के संदर्भ में जब हम ’अर्थ’ शब्द का प्रयोग ‘धन’ के लिये करते हैं, जबकि ‘भाषादर्शन’ के संदर्भ में इसी ‘अर्थ’ शब्द का प्रयोग कभी बाह्यार्थ (स्थान और काल में रहने वाला पदार्थ) , कभी बौद्धार्थ (बुद्धिस्थ) और कभी अभिप्राय के लिए भी करते है. शब्द और अर्थ का यह संबंध प्रत्येक व्यक्ति अपनी भाषा-व्यवहार की परंपरा से सीखता है. उदाहरण के लिए वक्ता जब ‘शरबत’ या ‘गाय’ शब्द उच्चारण करता है तो श्रोता को क्रमशःएक विशेष प्रकार के तरल पदार्थ और पशु विशेष का बोध होता है, जो बाह्य जगत में उपलब्ध होता है.
समस्या है कि शब्द का तात्पर्य यदि बाह्यजगत में स्थित अस्तित्ववान पदार्थ से लिया जाय तो कहना न होगा कि भाषा ऐसे अनेक अर्थों का उल्लेख करती है, जिसका बाहरी अस्तित्व से दूर दूर का भी सम्बन्ध नहीं होता है. उदाहरण के लिए ‘भारतवर्ष’ ‘गणतंत्र’ ‘भीड़’ इत्यादि अनगिनत शब्द है, जिनका बोध किसी चन्द्रमा की तरह अंगुली निर्देशन से दिखाया नहीं जा सकता है. इसी तरह ‘मंगलवार का वर्गमूल क्या है’ इस वाक्य का क्या अर्थ है ?इस वाक्य को असंगति पूर्ण कहने का क्या तात्पर्य है?
समस्या प्रेत की तरह गर्दन जकड़ लेती है, जब अतीत और भविष्य सम्बन्धी वाक्यों के द्वारा अर्थबोध का प्रश्न उठता है. क्योंकि उनका तो बाहरी जगत में कोई अस्तित्व ही नहीं होता है. और फिर हमारा समस्त स्मृति सम्भार तो अतीत की घटनाओं से जुड़ा रहता है. अतएव वैयाकरण बाह्यर्थ के अलावा बौद्धार्थ अथवा बुद्धिस्थ अर्थ को भी स्वीकार करते है. जैसे ऐतिहासिक कंस और कृष्ण इत्यादि पात्रों का अभिनय करते समय अभिनेता अपनी बुद्धि में विद्यमान अर्थ के द्वारा उसे वर्तमान में अनुभव करके मंच पर उपस्थित करता है. यदि अर्थ की बुद्धिगत विद्यमानता नहीं स्वीकार की जाये तो अतीत को वर्तमान में नहीं लाया जा सकता है. नाटक शुरू होने के साथ साथ हमें ऐसे वाक्य प्रयोग करते हुए देखा जाता है, ‘आओ, देखो ! कंस मारा जा रहा हैं/ मारा जायेगा/ अब जाकर क्या करोगे कंस मारा जा चुका है इत्यादि. इस तरह जो वस्तुएं बाह्य जगत में नहीं है, वे भी बुद्धि का विषय बनकर अर्थयुक्त हो जाती है. अतएव भाषा के माध्यम से अर्थ में त्रिकालता देखी जाती है.
प्रसिद्ध व्याकरणविद नागेश दावा करते है कि दुनिया में जिन वस्तुओं को अलीक कहा जाता है यानि जिनकी बाहरी सत्ता असंभव होती है, जैसे "शशशृंग" (खरगोश का सींग) “वंध्यासुत" (बांझ महिला का बेटा), “ख-पुष्प” (आकाश कुसुम), “कूर्मक्षीर स्नात” (कछुए के दूध में स्नान करना) इत्यादि, उनका भी बुद्धिगत रूप से अर्थ प्रक्षेपण करके शाब्दबोध हो जाता है. इस तरह काल्पनिक पदार्थो की अभिव्यक्ति को अर्थहीन नहीं कहा जा सकता है. वक्ता के वाक्य उच्चारण के पश्चात् प्रथमतः श्रोता को श्रावण प्रत्यक्ष होता है, पुनः अर्थज्ञान होता है, तत्पश्चात उसे असंगत, अलीक और बकवास और सत्य-मिथ्या कहने का अधिकार प्राप्त होता है. नागेश एक दृष्टान्त के माध्यम से इसे और भी स्पष्ट करते है. मान लिया जाय कि कोई व्यक्ति मुझे चोर, बदमाश इत्यादि कह कर गाली-गलौज करता है. मुझे मालूम है कि उसके द्वारा उच्चरित वाक्य मिथ्या है, फिर भी मुझे कष्ट होता है. यदि ऐसे वाक्य अर्थहीन होते तो बिना अर्थज्ञान के दुखी होने का कोई सवाल ही नहीं उठता है.
पहले भी कहा जा चुका है कि भाषा-दार्शनिक का सरोकार एक ओर जहाँ अर्थज्ञान से होता है वही दूसरी ओर सत्य से भी होता है. एक वाक्य सार्थक तभी कहा जा सकता है जब वह अनुभव के द्वारा परखा गया हो. जैसे ‘अमेरिका के वर्तमान प्रधानमंत्री गंजे है’ इस वाक्य से अर्थ तो उत्पन्न होता है पर इसे सत्य या मिथ्या दोनों ही नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि अमेरिका के प्रधानमंत्री ही नहीं हैं. लेकिन यदि वक्ता कहे ‘भारतवर्ष के वर्तमान प्रधानमंत्री गंजे है’ तो यह वाक्य मिथ्या है क्योंकि यह अनुभव विरुद्ध है. इसी तरह ‘त्रिभुज तीन बाहु विशिष्ट एक आकृति होती हैं’ तो यह वाक्य सत्य है, पर इसके द्वारा हमारे ज्ञान में कोई वृद्धि नहीं होती है, क्योंकि उद्देश्य पद में जो कुछ कहा गया है उसी की विधेय पद में पुनरावृत्ति की गई है. ‘त्रिभुज’ शब्द का अर्थ ही होता है तीन बाहु विशिष्ट आकृति.
विख्यात भाषाशास्त्री चोमस्की इसे स्पष्ट करते है. "Colourless green ideas sleep furiously" (रंगहीन हरी धारणा गुस्से में सोती है) इस वाक्य के अंतर्गत सभी शब्दों का प्रयोग पृथक पृथक रूप से अर्थ पूर्ण है, पर उनका सम्मिलित स्वरूप अर्थ तो उत्पन्न करता है, पर व्याकरण की दृष्टि से वाक्य सही होने पर भी अर्थबोध की दृष्टि से सत्य या मिथ्या नहीं कहा जा सकता है. साहित्यिक अक्सर ऐसे काल्पनिक वाक्य रचना करते है, जिन्हें काव्यिक दृष्टि से सृजनशील कहा जाता है, पर इसे सत्य-मिथ्या की परिधि से बाहर ही रखा जाता है (यह पृथक आलोचना का विषय है).
भाषा एक प्रकार का खेल है जो व्याकरणिक नियमों के साथ साथ लोक व्यवहार के द्वारा संचालित होता हैं. जिस तरह किसी भी खेल के कुछ निर्धारित नियम होते है, वैसे भाषा भी नियमों के अनुसार ही प्रयोग में लाई जाती है. जैसे शतरंज के खेल में मोहरे कैसे आगे बढ़ेगे यह सब नियम के मुताबिक होता है. यदि नियम के विपरीत मोहरा आगे बढ़े, तो इसे गलत चाल कहा जाता है. व्याकरणिक नियमानुसार होने पर भी वाक्य यथार्थ बोध उत्पन्न नहीं कर सकता है, यदि वह लोक व्यवहार के विरुद्ध हो, जैसे ‘वह आग से पौधौं को सींचता है’ यह वाक्य व्याकरण की दृष्टि से सही होने पर भी अनुभव विरुद्ध है, क्योंकि आग में सींचने की क्षमता नहीं होती है. अतः ऐसे वाक्यों से श्रोता को कोई यथार्थ बोध नहीं होता है. ‘वहां कुछ है’ अथवा ‘वहां कुछ नहीं है’ ऐसे वाक्य लोक व्यवहार में खूब प्रचलित होते है, पर वाक्य में निहित शब्द ‘कुछ नहीं’ और ‘कुछ’ से किस अर्थ का बोध होता है, यह स्पष्ट नहीं है.
अंततः, भाषा और लोकजीवन के बीच कोई अलगाव नहीं हो सकता है. जैसे जीवन कैसे जीना है इसके लिए कोई एक मानक नहीं होता है, उसी तरह भाषा का प्रयोग कैसा होगा यह लोक सापेक्ष ही होता है, लोकभाषा के समर्थक दार्शनिक ऐसा मानते है. अंत में बचपन में पढ़ी एक कविता जो काल्पनिक होकर भी अर्थ बोध कराने में सक्षम होती हैं ᅳ उसका उल्लेख करना चाहूंगी:
लग जाते अंगूर नीम में और कुएं से दूध निकलता.
बिना तेल के डाले भी यदि घर में दिया रात दिन जलता.
जोते बोये बिना खेत में गेंहू धान चना उग आते.
केला नाशपाती संतरा आम हर ऋतू में आते.
रूपया पैसा फैला होता पृथिवी पर जैसे हो गिट्टी.
छू लेते हम जिसे चाव से सोना बन जाती वह मिट्टी.
इच्छा करते जिसकी भी वह चीज तुरंत ही पा सकते हम.
इच्छा करते जहाँ जरा भी वहां तुरंत ही जा सकते हम.
बिना पढ़े ही विद्या आती कभी न हम दुनिया में मरते.
तो क्या बतला सकते बच्चों हम क्या करते तुम क्या करते ?
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डॉ मधु कपूर कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं। दर्शनशास्त्र के अलावा साहित्य में उनकी विशेष रुचि रही है। उन्हीं के शब्दों में, "दार्शनिक उलझनों की गुत्थियों को साहित्य के रास्ते में तलाशती हूं।" डॉ कपूर ने हिंदी से बंगला में कुछ पुस्तकों का अनुवाद किया है और कुछ कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। दर्शन पर उनके निबंधों का एक संग्रह Dice Doodle Droll Dance हाल ही में दिल्ली में सम्पन्न हुए विश्व पुस्तक मेला में रिलीज़ हुआ है।