आत्मा की अमरता ‒ सम्भावनाओं की गांठों का खुलना

डॉ मधु कपूर | अध्यात्म एवं दर्शन | Sep 14, 2024 | 111

दार्शनिक विषयों को सरल भाषा में समझाने की अपनी ज़िम्मेवारी डॉ मधु कपूर बख़ूबी निभा रही हैं और अभी तक करीब दर्जन भर या उससे एक-आध ज़्यादा ही लेख हमारी वेब पत्रिका के लिए चुकी लिख चुकी हैं। हमारी ओर से गिनती भी ठीक चल रही थी कि वैबसाइट हैक होने से हम थोड़ा लड़खड़ा गए। लेकिन डॉ मधु कपूर डटी हुई हैं और अपने दसवें लेख “सभी मनुष्य मरणशील हैं” से उन्होंने आत्मा से जुड़े सवालों पर चर्चा आरंभ कर दी है। आज आप जो लेख पढ़ने जा रहे हैं, उसमें वह आत्मा की पूर्णता (या अपूर्णता?) पर रोचक चर्चा की है। आप निश्चिंत होकर ये लेख पढ़ें, आप भी मानने लगेंगे कि फ़िलॉसफी बोरिंग (उबाऊ) तो बिल्कुल नहीं होती।

आज मैं कुछ दृष्टान्तों से अपनी बात शुरू करूँगी। शिक्षक ने मेरे लिखे हुए उत्तर को लाल कलम से काट कर कहा, ‘इसे दोबारा लिख कर लाओ’, ऐसा एक बार नहीं छह से सात बार उन्होंने किया, क्योंकि वे जानते थे कि इससे भी अच्छा लिखा जा सकता है। उत्तर को ‘अच्छा’ बनाने की कोई सीमा नहीं है, पर सम्भावना है। बाज़ार में पचासों दुकानें जूते की हैं, पर मेरी बहन को अपने नाप के फिट और पसंद लायक जूते कभी मिलते ही नहीं हैं, कुछ न कुछ नुक्स उनमें रह ही जाता है। लेकिन उसकी तलाश जारी रहती है। इस प्रसंग में एक बार की घटना का उल्लेख करना तो अत्यंत हास्यास्पद भी हो सकता है। मुझे एक खास तरह के स्वेटर की तलाश थी जिसके लिए दिल्ली, कलकत्ता और लुधियाना का बाज़ार तो मैंने छान मारा किन्तु मुझे मेरा मन लायक स्वेटर नहीं मिल रहा था। एक बार जब मैं यूरोप घूमने गई थी तो अचानक वेनिस के रेलवे स्टेशन पर वह स्वेटर दीख गया और मैंने लपक कर उसे 19 यूरो देकर खरीद लिया। कहने का तात्पर्य है हम सबके साथ ऐसी घटनाएँ अक्सर घटती है और हम उसे सनकीपन, पागलपन कह कर हंसी में उड़ा देते है, किन्तु हम भूल जाते हैं कि इन्हीं घटनाओं में छिपा है हमारी अपूर्णता का एहसास जो इशारा करता है –‘तलाश जारी रखो’। अधूरेपन का एहसास ही सम्पूर्णता के बोध की छटपटाहट में बदल जाता है। सृजनशील व्यक्ति में यह पिपासा आध्यात्मिक पिपासा के रूप में देखी जा सकती है।

"आध्यात्मिक" शब्द का अर्थ ही है "आत्मा से सम्बंधित" अर्थात गहराई तक जाकर स्पष्ट देखना, सामान्य भौतिकता से परे कुछ सोचना। आध्यात्मिकता कोई  तथाकथित धर्म की तलाश नहीं है बल्कि आत्मा में निहित संभावनाओं की तलाश है। मृत्यु के बाद भी जीवन के पुनर्निर्माण की आकांक्षा एक ऐसी यात्रा है,  जो हम मंदिर, मस्जिद, या चर्च में नहीं पा सकते हैं, यह केवल हम सबके अंदर ही घटित हो सकती है। अपने "आंतरिक आयाम" को समझना और उसका विकास करना ही आध्यात्मिकता है।  हमारे  दैनिक जीवन में भी यह कार्य आध्यात्मिक मुक्ति का साधन हो सकता है। वैज्ञानिक किसी उच्च सत्य की खोज, गायक और संगीतकार किसी अद्भुत सुर के संधान में व्यस्त, चित्रकार रंगों के साम्राज्य में खोये हुए, बावर्ची  किसी  नए पाक रस की प्रक्रिया में शामिल होकर "आध्यात्मिक पूर्णता”  की इच्छा का साक्षात्कार करते हैं।  

जिस तरह एक ही मिट्टी के लोंदे से अनेक तरह के बर्तन बनाये जा सकते हैं, उसी तरह एक ही चेतन स्रोत हर व्यक्ति को उसकी ऊंचाई छूने के लिए प्रेरित कर सकता है, जो उसकी सम्पूर्णता को परिभाषित करता है।  आत्मा की अमरता केवल तर्क से सिद्ध करना कठिन काम है। हम इसे पूर्णता की दृष्टि से देखने का प्रयास करे तो शायद अधिक गहराई से इस पर विचार कर सकेंगे। जैसे संख्या का कहीं अंत नहीं होता है, वे कभी पूर्णता के गंतव्य तक नहीं पहुँच सकती हैं,  वैसे ही आत्मा की  पूर्णता का कोई अंत नहीं है। यह एक ऐसी अनुभूति है जो महसूस की जा सकती है। इस प्यास को धारावाहिक नित्य प्रवाह रूप में देखने का नाम ही अमरता है। अपने अपने कार्यों में पूर्णता प्राप्त करना निःसंदेह एक ऐसा आदर्श है जिसे हम छूना चाहते है, पर कभी छू नहीं सकते। Nadia Comaneci  के सम्बन्ध में 1976 के ओलम्पिक  जिमनास्टिक में ‘the perfect ten ‘ को  सबने सुना होगा,  लेकिन यह सिर्फ शाब्दिक खेल मात्र है। यह एक स्वप्न है, जो पूरा होता है, पर आगे का रास्ता भी खोल देता है। प्लास्टिक सर्जरी, जीन चिकित्सा, कृत्रिम मेधा इत्यादि के द्वारा विज्ञान पूर्णता की संभावनाओं की तलाश जारी रखता है। ग्रीक दार्शनिक अरस्तू  “eudaimonia”  शब्द व्यवहार करके मानव संभावनाओं को पूर्ण  विकसित करने को ही जीवन का  चरम लक्ष्य मानते हैं।

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि मानवीय चेतना एक अपूर्ण सत्ता है, लेकिन हम पूर्णता को पाना चाहते है। पूर्णता के बारे में यद्यपि हमें कोई धारणा नहीं है, यह एक क्षैतिक रेखा  की तरह सामने लक्ष्य तक पहुँचने का इशारा करती रहती है। आप पियानो बजाना 12 साल से सीख रहे है, लेकिन आपके गुरूजी को संतोष नहीं होता है। वे अधिक से अधिक पूर्णता चाहते है, इसलिए वे कहते है, थोड़ा और ..... थोड़ा और...... ये शब्द कानों में बजते रहेंगे पर आप उस स्तर तक कभी नहीं पहुँच सकते। ऐसा लगता है यह ‘थोड़ा और’ किसी मरीचिका में तृष्णा मिटाने का सन्धान मात्र  है, जो  मिटती नहीं है, मिटनी भी नहीं चाहिए। वस्तुतः यदि हम पूर्ण हो जाते तो विवर्तन की यात्रा के साथ दुनिया से सृजनशीलता भी  बंद हो जाती। कवि, इतिहासकार वैज्ञानिक, चित्रकार, गायक सभी अपनी अपनी तरह से कुछ-कुछ पूर्णता की तरफ अग्रसर होते रहते हैं, लेकिन मंजिल हमेशा दूर खिसकती जाती है। जैसा कि चित्रकार साल्वाडोर डाली  कहते है : 'Have no fear of perfection……you'll never reach it।'  अपूर्णता हमें निराश ज़रूर करती है, पर हमें सोच भी देती है। Leonardo Da Vinci  की चित्रकला के गंभीर अर्थों का सन्धान तथा उन पर गवेषणा इन्हीं अनंत संभावनाओं के बदौलत आज भी जारी है।   

सृष्टि के सभी प्राणियों से एकात्म बोध, सृष्टि की विशालता के सामने खुद को नगण्य और क्षुद्र होने का एहसास, केवल स्वजनों के प्रति ही नहीं, बल्कि सभी के लिए प्रेम और कृतज्ञता का एहसास, सभी प्राणी और वस्तुओं  के प्रति करुणा का फूटना ही  आध्यात्मिकता का लक्षण है।  

Tillich, विख्यात रहस्यवादी दार्शनिक, एक शब्द व्यवहार करते है "The Ambiguity of Perfection," जिसका अर्थ है अच्छा-बुरा, सत्य-झूठ, सृजनशीलता-ध्वंस -- दोनों शक्तियों का मिश्रण हमारे अन्दर मौजूद है, जो हमें पूर्ण बनाती है। मानवीय गुणों का विकास अपूर्णता में ही होता है। यदि हमने गलती नहीं की होती तो क्षमा मांगने का अर्थ हमें मालूम नहीं होता। यदि हम आलसी न होते तो परिश्रम का अर्थ हम नहीं समझते। अपनी इसी द्विमुखी क्षमता के कारण हम आगे बढ़ते है।  विश्व बनाम व्यक्ति एक सुन्दर अपूर्ण रचना है, जो पूर्ण मानवीय होने का सन्देश देती है। (It is the beautifully imperfect art of being perfectly human)। एक अच्छी खासी कहानी का अंत ढीला-ढाला हो जाना, एक सुन्दर चित्रकला का रंग फीका पड़ जाना या एक सुन्दर बंदिश का अंत में बेसुरा हो जाना, हमारी अपूर्णता को दर्शाता है, जो यह जाहिर करता है कि हम मनुष्य है, देवता नहीं। यही हमारी सुन्दरता भी है और यही हमारा प्रेरणा स्रोत भी।  यदि हम शब्दकोश खोल कर देखे तो ‘पूर्णता” शब्द का विपरीत शब्द मिलता है ‘अपूर्ण, दोषपूर्ण, गलत’ इत्यादि। हम पूर्णता को लेकर इतने आसक्त  हो जाते है कि अपूर्णता हमें  अस्वाभाविक लगती है। Leibnitz अपनी पुस्तक The Art of Discovery  में लिखते हैं कि हमें जितना संभव हो अपने तर्क को तेज़ और गणित की तरह बिलकुल पारदर्शी बनाना चाहिए जिससे हमारे अन्दर परस्पर किसी तरह का विवाद न हो। (‘Let us calculate, without further ado, to see who is right।’)  दुर्भाग्यवश यह विवाद एक अनंत यात्रा का विषय है, जो कभी समाप्त नहीं होता है, अर्थात यह सम्भावना भी क्षैतिज ही है।

Kintsugi  एक जापानी पद्धति है जो हमें याद दिलाती है कि टूटी चीजों में भी वस्तुतः सौंदर्य है। जब कोई सुन्दर मूर्ति टूट जाती है, तो हम उसके टूटे अंश को पुनः जोड़ कर संतुलित कर लेते है। वैज्ञानिक द्रव्य को अणुओं में विभाजित करके उसकी संरचना का विश्लेषण करने में आनंद पाते हैं, दर्ज़ी कपड़े के थान से तरह तरह के वस्त्रादि बनाने में आनंद पाता है, माली फूलों के रस से सुगन्धित इत्र तैयार करने में अपनी मौलिकता खोजता है, उसी तरह मनुष्य भी अपने अस्तित्व की पूर्णता की तलाश करता है अस्तित्व की अमरता में।  

अमेरिकन साइंस-फिक्शन फिल्म  “The Adjustment Bureau,” में एक राजनीतिज्ञ जब एक बैले नर्तकी के प्रेम में पड़ जाता हैं, तो उसके राजनीतिक सलाहकार उसे ऐसा करने से रोकते है, क्योंकि उसका राजनीतिक भविष्य खतरे में पड़ जायेगा। लेकिन अंत में वह अपनी पूर्णता बैलेरिना के साथ सच्चे प्रेम को निबाहने में पाता है, और राजनीति को अलविदा कह देता है। इसी तरह  एक अन्य फिल्म  Limitless में Bradley Cooper एक ऐसे असफल लेखक का किरदार निभाता है, जो एक जादू की गोली खाकर अपनी समस्त संभावनाओं को विकसित करने में सफल होता है और द्रुत गति से उपन्यास लिखने में पूर्णता हासिल करता है।

जीवन की प्रत्येक क्रिया में सुन्दरता को सहजता से स्वीकार करना ही पूर्णता का प्रथम पदक्षेप है। हमारे यहाँ नव्य नैयायिको ने एक ऐसी पूर्ण भाषा बनाने की कोशिश की थी जिसमें ज़रा भी अस्पष्टता और दुर्बोध्यता न हो।  लेकिन उनका यह प्रयत्न कुछ हद तक ही रहा, क्योंकि  यदि सब कुछ साफ साफ कह दिया जाय तो अनंत संभावनाओं और सृजनशीलता के सभी रास्ते समाप्त हो जायेंगे। हम भूल जाते हैं कि भाषा की अपूर्णता ही भाषा की सबसे बड़ी पूर्णता है।

बात शुरू हुई आत्मा की अमरता बनाम पूर्णता से। आत्मा का नित्यत्व, अविनाशित्व हमें यदि स्वीकार नहीं होगा तो इस पूर्णता की यात्रा के पथिक हम कैसे बन सकते हैं।  अंत में ‘चरैवेति  चरैवेति’....... चलते रहें चलते रहें........पूर्णता बनाम अमरता के खेल में।

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(डॉ मधु कपूर कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं। दर्शनशास्त्र के अलावा साहित्य में उनकी विशेष रुचि रही है। उन्हीं के शब्दों में, "दार्शनिक उलझनों की गुत्थियों को साहित्य के रास्ते में तलाशती हूं।" डॉ कपूर ने हिंदी से बंगला में कुछ पुस्तकों का अनुवाद किया है और कुछ कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। दर्शन पर उनके निबंधों का एक संग्रह Dice Doodle Droll Dance हाल ही में दिल्ली में सम्पन्न हुए विश्व पुस्तक मेला में रिलीज़ हुआ है।)
  

  



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