आकाशगंगा में चमकता दूसरा सितारा - यह ‘अन्य’ कौन?

डॉ मधु कपूर | अध्यात्म-एवं-दर्शन | Oct 04, 2024 | 417

यह एक सामान्य धारणा है कि शब्द से अर्थ का बोध होता है किंतु सभी शब्दों से सभी अर्थों का बोध नहीं होता अपितु किसी निश्चित शब्द से किसी निश्चित अर्थ का ही बोध होता है. फिर निश्चयता कितनी है, यह प्रश्न बराबर हमें कुरेदता रहता है. ‘दर्द महसूस करना’ और किसी ‘अन्य के दर्द को समझना’  बिलकुल पृथक होकर भी पृथक नहीं होते है. चिकित्सक समझता है दांत के दर्द और पेट के दर्द में क्या फर्क है, महसूस नहीं कर सकता है. इस वेब पत्रिका में र्शन शास्त्र  की  अनेक गुत्थियों को पहले कई लेखों के माध्यम से सुलझा चुकीं डॉ मधु कपूर अपने एक और लेख के साथ आईं हैं।

आकाशगंगा में चमकता दूसरा सितारा यह अन्य कौन?

“क्या आप अपने बच्चे को जानते हैं?”

“जी हाँ, बिलकुल, पढने में अच्छा है, फुटबॉल खेलता है, शांत है और कम बोलता है.” माँ का जवाब था.

“तो जाइये, देखिये वह क्या कर रहा है.” (थोड़ी देर सन्नाटा)

“अरे, तू यह क्या कर रहा है, बेटा...ड्रग...सिगरेट”

इस फ़िल्मी वार्तालाप ने माँ का दावा कितना सतही साबित कर दिया कि ‘मैं उसे जानती हूँ’. यह ‘दूसरा’  कौन है, जो मुझसे अलग है, जिसे मैं जानती हूँ, पर नहीं भी जानती हूँ. जिसे मैं लाल रंग समझती थी, वह हरा रंग निकला (inverted spectrum).

हम इस सम्भावना से इंकार नहीं कर सकते हैं कि हम अपनी चेतना को जितनी आसानी और सहजता से जान सकते हैं, ‘दूसरे की चेतना या मन’ को शायद उतनी आसानी से नहीं जान सकते. उदाहरण के लिए जब मेरे दांत में दर्द होता है तो मैं कहती हूँ कि ‘मेरे दांत में दर्द हैं’ पर वही बात जब कोई दोस्त  अपने दांत दर्द के सम्बन्ध में कहता है, तो मैं समझ जाती हूँ कि उसका दर्द भी मेरी ही तरह का है, पर उसके दर्द को मैं महसूस नहीं कर सकती हूँ. मेरा  शंकित होना स्वाभाविक है,  क्या वास्तव में उसके दांत में दर्द हैं? क्या मैं ‘उसके मन’ को जान सकती हूँ ? यह ‘अन्य या दूसरे का मन’ क्या है? मेरा कथन उत्तम  पुरुष वर्तमान काल में है, जबकि दूसरे के लिए मैं तृतीय पुरुष का प्रयोग करती हूँ, ‘उसके दांत में दर्द है’. (हाँ, अवचेतन मन में क्या होता है, या वो क्या होता है, इसके बारे में फिर कभी जानेंगे).  

दूसरे के मन को अमूमन उसके व्यवहार से जान सकते हैं. जैसे मैं शतरंज खेलने के समय कौन सी चाल कैसे चलूँगी आदि के बारे में सोचती हूँ, शह-मात देने पर आह्लादित होती हूँ, वैसे ही ‘दूसरा’ भी आहलादित होता है.  इससे सिद्ध होता है कि उसका मन भी मेरी ही तरह काम करता है. फर्क यह है कि मैं अपनी चेतना को अपने व्यवहार से जोड़ कर देखती हूँ, लेकिन दूसरे का व्यवहार देख कर उसकी चेतना और  सुख-दुःख आदि के बारे में अनुमान करती हूँ. लेकिन यह प्रमाण कई बार हमें धोखे में भी डाल देता है. मेरा बच्चा रो रो कर कहता है ‘मैं स्कूल नहीं जाऊंगा मेरे पेट में दर्द है’, मैं शुरू शुरू में विश्वास कर लेती थी पर कुछ दिन बाद पता चला वह तो स्कूल न जाने का बहाना बनाता है. अब मैं कैसे समझूँ कि व्यवहार (रोना) और उसकी सोच (पेट में दर्द होना) एक ही है? फिर तो कहना पड़ेगा कि हम सभी अपने अपने चेतना के द्वीपों में बंद रहते हैं और अंततः हम solipsism (अहंवाद) के शिकार हो जाते हैं जिसका अर्थ है “मैं और मेरी चेतना” के अलावा ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे मैं जान सकूँ. 

कृत्रिम मशीन कहें या A philosophical zombie ऐसा यंत्र है, जो साधारण व्यक्ति  की  तरह व्यवहार करता है, किन्तु पिन चुभोने पर उसे कोई दर्द की अनुभूति नहीं होती है. वह फूलों की सुगंध को पहचान सकता है, फूलों की सुगंध कचरे की दुर्गन्ध से अलग कर सकता है, वह सामान्य व्यक्ति की तरह सवालों का जवाब भी देता है, तो क्या हम मान ले कि उसके भी अन्दर मनुष्यों की तरह ही मन है !  पर हम जानते हैं कि उसके अन्दर ‘मन’ नाम की कोई चेतन सत्ता नहीं हो सकती है. उसके अन्दर इलेक्ट्रिक तारों और कुछ सॉफ्टवेयर इत्यादि का जाल बिछा है पर ‘मन’ के नाम पर वह भारी पत्थर हैं. उसका आचरण, भाषा, क्रिया आदि हमें भ्रम में डाल देती है. इससे यह आशंका उत्पन्न होनी है कि जिन्हें हम मनुष्य समझते हैं वे भी हमारे जैसा ही व्यवहार करते हैं, पर वास्तव में वे मस्तिष्कशून्य हैं! न्यूरो वैज्ञानिक विश्वास दिलाते हैं कि ‘अन्य व्यक्तियों के मन” को जानने का उपाय है उनके मस्तिष्क के अन्दर लाखों लाखों कोशिकाओं को कार्य करते हुए देखना,  जिस तरह मेरी कोशिकायें कार्य करती हैं उसी तरह दूसरों की भी कोशिकायें कार्य करती है.

फिर भी एक व्यवधान तो रह ही जाता है कि दूसरे के दर्द की अनुभूति मुझे वैसी नही होती है जैसी अपने दर्द की होती है. अपनी भावनाओं को हम साक्षात् रूप से देख सकते है, जबकि दूसरों के व्यवहार से अनुमान करते हैं कि उसे सुख या दुःख की अनुभूति हो रही है.  दर्द को महसूस करनाऔर दर्द को समझनादोनों में फर्क हैं. साधारणतः मन, जो एक अमूर्त सत्ता है, सुख दुःख, चिंता, कल्पना, विचार, भावना इत्यादि की समष्टि कहा जाता है, जिसे देखा नहीं जा सकता है, पर उसकी अभिव्यक्ति या व्यवहार हम देख सकते हैं.

कुछ लोगों के अनुसार ‘मन’ कोई अमूर्त धारणा नहीं है. यह एक भाषाई व्यवहार है. जब हम “दर्द” शब्द प्रयोग करते है तो वह हमें सूचना देता है कि हमारे भीतर क्या घट रहा है ! शब्द अर्थ तक नहीं पहुंचाते हैं उलटे अर्थ (दर्द) हमें शब्द व्यवहार करने की प्रेरणा देते हैं. भाषा सामाजिक व्यवहार का तरीका है जो बतलाती है कि ‘मुझे दर्द है” और मैं कराहने लगती हूँ. हम भाषा के माध्यम से दर्द का अनुभव नहीं करते है बल्कि हथौड़ा मारने पर जो दर्द होता है और उससे चीख निकलती है ̶̶ “आउच” एक भाषाई चिह्न है, जो दर्शाता है कि मुझे दर्द हो रहा है. किसी की लाल आँखे, चीख चीख के बोलना या हाथ पैर मारना आदि हावभाव देख कर हम अनुमान करते है, ‘वह गुस्से में है’.  पर समस्या है कि दूसरा यदि गुस्से का अभिनय कर रहा है तो कैसे प्रमाण किया जाय कि वह सचमुच गुस्से में है ? दूसरों के भी मेरे जैसा ही मन है, इसे कैसे प्रमाणित किया जाय ? Wittgenstein का मानना है यह कोई अनुमान नहीं हैं बल्कि गुस्सा =व्यवहार =भाषा ᅳᅳ इन तीनों का समीकरण है. इसी तरह यदि हम किसी ऐसे मेधावी रोबोट को तैयार कर सके जिसे सुख दुःख का अनुभव होता है, तो प्रमाण किया जा सकेगा कि उसके अन्दर भी चेतना है. इसके बावजूद दूसरों के व्यवहार और चेतना के बीच एक खाई रह जाती है जिसे लांघना मुश्किल है. अपने दर्द को मैं अनुभव कर सकती हूँ पर दूसरे के दर्द को अनुमान करने में भूल होने की सम्भावना रह जाती है. दर्द का एहसास होना सिर्फ एक भाषाई प्रयोग नहीं है. ’महसूसना’ एकदम निजी घटना है, जो साझा नहीं की जा सकती.  

धर्मकीर्ति, जो एक भाववादी बौद्ध दार्शनिक है, के अनुसार  ऊपर उल्लिखित solipsism (अहंवाद) पारमार्थिक जगत की अनिवार्यता है, क्योंकि वहां पहुँच कर व्यक्ति अकेला हो जाता है, उसकी भाषा व्यक्तिगत हो जाती है, जिसे वह साझा नहीं कर सकता है. लेकिन व्यवहारिक जगत में हम दूसरों की उपस्थिति मान कर संवाद स्थापित करते हैं.  भाषा और व्यवहार के माध्यम से ‘दूसरे के मन’ का अनुमान करना व्यवहारिक जगत की अनिवार्यता है.

जब तक हम ‘दूसरे के मन’ को जानने का दावा नहीं करेंगे तब तक दूसरे के प्रति दया, सहानभूति, प्रेम इत्यादि, दिखाना बेईमानी हो जायेगा. सहानभूति के कारण ही हम परस्पर प्रतिबद्ध होते है,  ‘दूसरे’ के बारे में सोचते भी हैं और हमें उनकी जरूरत का एहसास भी होता है. बच्चे का रोना सुनकर माँ समझ जाती है बच्चा क्या चाहता है, वह अनुमान नहीं करती है. अभिनेता दूसरे की शारीरिक मुद्राओं का अनुकरण करने के साथ साथ उनके भावों का भी अनुकरण करता हैं. जब हम किसी व्यक्ति के व्यवहार को देख कर कहते, ‘अरे! उसने ऐसा क्यों किया, उससे यह उम्मीद नहीं थी’ तो हम उसकी मानसिक सत्ता को मान कर चलते है. यदि किसी प्रेमी या प्रेमिका ने एक दूसरे को धोखा  दिया है, तो अन्य को निराशा क्यों होती है या गुस्से से  क्यों तमतमा उठता है? इसका कारण है कि वह विश्वास करता है कि दूसरा वास्तव में है. दूसरे की सत्ता को जानने का उपाय यदि अनुमान होता तो हमें एक लम्बी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता जो सामान्यतया असंभव प्रक्रिया है. यह तो वैसा ही होता जैसा कि किसी आत्मीय व्यक्ति को अचानक कहीं देख कर पहले प्रमाण इकठ्ठा करें  फिर उससे बातचीत करने के लिए आगे बढ़ें. साधारण जीवन में हम सहज और सरल भाव से व्यक्ति सत्ता पर विश्वास करते है. फ़िलहाल हमारी समस्या अभी भी अनुत्तरित ही है.  

Martin Buber दो तरह से इस समस्या पर विचार करते हैं.  पहला,  ‘मैं-वह जिसमें हम दूसरे को वस्तु रूप में देखते है. उदाहरण के लिए दूध, किताब, कुर्सी, बैंक का कर्मचारी आदि शब्दों का व्यवहार करते है. इनसे हमारा दूर का रिश्ता है, क्योंकि ये सब  विषय है. लेकिन जब हम  मैं-तुम  का सम्बन्ध बनाते हैं तो इसमें सहृदयता, सद्भाव तथा मैत्री सम्बन्ध की उष्णता देखी जाती है.

हमारा दैनंदिन जीवन इन्हीं संबंधों पर टिका है और इसी से अर्थपूर्ण भी बनता है. दृष्टान्त स्वरूप हम किसी वृक्ष को सौंदर्य की दृष्टि से देख सकते है, उसको उसकी जैविक प्रक्रिया के रूप में देख सकते है, उसकी जाति के अनुसार किसी वृक्ष श्रेणी के अंतर्भुक्त करके देख सकते हैं इत्यादि. वृक्ष हमारे लिए विषय बन जाता हैं. पर सुन्दरलाल बहुगुणाजी ने जब ‘वृक्ष बचाओं आन्दोलन’ के लिये अनशन किया तो उनका सम्बन्ध वृक्ष से मैं-तुम का था, वे उसके साथ आत्मीय सम्बन्ध में थे. प्रेम का सम्बन्ध भी कुछ ऐसा ही हैं. दूसरे चेतन प्राणी की मानसिक सत्ता को यदि हम स्वीकार नहीं करेंगे तो नीति, कानून, समाज सब बेकार साबित हो जायेंगे. कोई भी सामान्य मनुष्य किसी दूसरे व्यक्ति की मानसिक सत्ता को नकार नहीं सकता है. क्या पड़ोसी से झगडा करते हुए हम सोचते हैं कि यह एक मशीन है ? खेल के मैदान में खिलाड़ी के खेल की  समालोचना या प्रशंसा करने वाले हम दूसरे ही होते है.  यह द्वैत-भाव हमारे अस्तित्व का महत्वपूर्ण हिस्सा है.

समस्या यह नहीं हैं कि हम क्यों विश्वास करते हैं कि दूसरा व्यक्ति भी मेरी ही तरह अनुभव करता  हैं?  सवाल यह है कि ‘उसका होना ही हमारे विश्वास का आधार है. सवाल यह भी नहीं है कि दूसरे का मन है कि नहीं, सवाल है कि हम उसे कैसे जानते है?

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(डॉ मधु कपूर कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं। दर्शनशास्त्र के अलावा साहित्य में उनकी विशेष रुचि रही है। उन्हीं के शब्दों में, "दार्शनिक उलझनों की गुत्थियों को साहित्य के रास्ते में तलाशती हूं।" डॉ कपूर ने हिंदी से बंगला में कुछ पुस्तकों का अनुवाद किया है और कुछ कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। दर्शन पर उनके निबंधों का एक संग्रह Dice Doodle Droll Dance हाल ही में दिल्ली में सम्पन्न हुए विश्व पुस्तक मेला में रिलीज़ हुआ है।)



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