केवल अनुष्ठान नहीं, व्रतनिष्ठा व साधना को गहन करने वाला पर्व
इन दिनों विश्व भर के जैन धर्मावलम्बी पर्यूषण पर्व मना रहे हैं। श्वेताम्बर और दिगम्बर मतानुयायी इसे 31 अगस्त से 17 सितंबर तक मनाएंगे – 7 सितंबर तक श्वेताम्बर और फिर 17 सितंबर थे दिगम्बर। इस पर्व के दौरान अपनी भूलों के लिए क्षमा याचना की जाती है और इसीलिए इस कान्सेप्ट को सभी लोगों को अपनाना चाहिए। विशेषकर आज की परिस्थितियों में जब हमें धर्म के नाम पर लड़वाया जा रहा है, ऊंचे पदों पर बैठे लोग भी बिना झिझक विद्वेष फैला रहे हैं, ऐसे में कोई हमें यह स्मरण करा रहा है कि आपको अपने दोषों को स्वीकार कर उनके लिए क्षमा माँगनी है तो इससे अच्छी क्या बात हो सकती है! यही सोच कर हम पर्यूषण पर्व के अवसर पर यह लेख दे रहे हैं ताकि जैन धर्मावलंबियों के इस विनम्र प्रयास के बारे में जानकारी जहां तक पहुँच सके, वही अच्छा!
हर वर्ष भाद्रपद माह आते ही जैन समाज जिस पर्व को लेकर सर्वाधिक आह्लाद से भर जाता है, वह पर्व है- पर्यूषण पर्व। पाँचों महाव्रतों यानी अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के महान सिद्धांतों को जीवन में उतारने का प्रयास नए सिरे से शुरू हो जाता है। इसका कारण यह है कि मनुष्य स्वभावत: एक सामाजिक प्राणी होने के नाते वर्षपर्यंत इन सिद्धांतों की पालना नहीं कर पाता। अतः पर्यूषण महापर्व का अवसर साधक को उत्तम गुण अपनाने की प्रेरणा देता है। और साधक यदि इस पर्व में प्रणपूर्वक व्रत, तप, साधना, आराधना करके आत्मा की शुद्धि का प्रयास करे, तो इससे यह संभावना बढ़ जाती है कि दैनिक जीवन के अन्य दिनों में भी उसके समस्त कार्य और व्यवहार में ये इन सिद्धांतों की पालना सहज होने लगें।
साथ ही, यह भी माना जाता है कि साल भर के सांसारिक क्रियाकलापों के कारण जीवन में जो भी दोष आ जाते हैं, उन्हें यह पर्व दूर करने का काम करता है। यह एक ऐसा महापर्व है, जिसमें अपने जीवन में वर्ष भर हुई गतिविधियों पर आत्मचिंतन करने का अवसर मिलता है। वर्ष भर में जाने-अनजाने मन, वचन या काया से किसी का दिल दुखाया हो तो उससे क्षमा मांग कर अपने पापों का प्रायश्चित किया जाता है। यह मात्र एक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि इसमें पिछले वर्ष की तुलना में और अधिक अहिंसा का अभ्यास करने का अवसर मिलता है, जिसमें आत्मानुशासन (संयम) और तपस्या (तप) जैसे शास्त्रों का अध्ययन (स्वाध्याय), आंशिक या पूर्ण उपवास, आत्म-निरीक्षण (प्रतिक्रमण) और आत्म-निरीक्षण (क्षमापना) शामिल है।
पर्यूषण पर्व को पर्वाधिराज भी कहा गया है। पर्यूषण का संबंध किसी स्थान विशेष से नहीं है, न तो अयोध्या से और न ही गया से और न ही शत्रुंजय से। पर्यूषण महापर्व का संबंध किसी व्यक्ति विशेष से भी नहीं है, न तो राम से और न कृष्ण से और न ही महावीर से। लौकिक रीति-रिवाज से और किसी प्रसंग विशेष से भी पर्यूषण का संबंध नहीं है। हाँ, लेकिन महावीर की शिक्षा से हमने यह अवश्य सीखा है कि यह पर्व आत्मा का है, यह पर्व आध्यात्मिक पर्व है, यह पर्व प्रत्येक आत्मा के लिए है। इन पर्यूषण महापर्व के दिनों में हम अपने प्रमाद और कषाय को छोड़कर अपने आत्म-गुणों की साधना करते हैं।
पर्यूषण पर्व मनाने का मूल उद्देश्य आत्मा को शुद्ध बनाने के लिए आवश्यक उपक्रमों पर ध्यान केंद्रित करना होता है। पर्यावरण का शोधन इसके लिए वांछनीय माना जाता है। आत्मा को अपने आस-पास के वातावरण के प्रति तटस्थ या वीतराग बनाए बिना शुद्ध स्वरूप प्रदान करना संभव नहीं है, इस दृष्टि से कल्प सूत्र या तत्वार्थ सूत्र का वाचन और विवेचन किया जाता है और संत मुनियों और विद्वानों के सान्निध्य में स्वाध्याय किया जाता है।
पर्यूषण पर्व में व्यक्ति अपना अधिकांश समय पूजा, अर्चना, आरती, त्याग, तपस्या, उपवास, मौन, स्वाध्याय आदि कार्यों में व्यतीत कर, दैनिक, व्यावसायिक तथा सावद्य क्रियाओं से दूर रहने का प्रयास करता है, संयम और विवेक का प्रयोग करने का अभ्यास करता है, जिससे धीरे-धीरे उसके दिन-प्रतिदिन की क्रियाओं में भी सकारात्मकता का प्रादुर्भाव होता है और स्वत: ही उसके जीवन में परिवर्तन आता है। इसमें व्यक्ति उपवास रखते हैं और स्वयं के पापों की आलोचना करते हुए भविष्य में उनसे बचने की प्रतिज्ञा करते हैं।
‘खम्मामि सव्वजीवाणं, सव्वे जीवा खमंतु मे।
मित्ति में सव्वभूदेसु, वेरं मज्झं ण केण वि।।’
अर्थात् मैं सब जीवों को क्षमा करता हूँ या करती हूँ। सब जीव मुझे क्षमा करें। मेरा सब प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव है। मेरा किसी से वैर नहीं है। (समणसुत्तं, 86, धर्मसूत्र-5)
इस प्रकार 84 लाख योनियों में विचरण कर रहे समस्त जीवों से क्षमा मांगी जाती है। परोक्ष रूप से व्यक्ति यह संकल्प करता है कि हम भविष्य में पर्यावरण के प्रति सतर्क रहेंगे, अपने आस-पास के परिवेश में कोई हस्तक्षेप नहीं करेंगे, जाने-अनजाने मन, वचन और काया से किसी भी हिंसा की गतिविधि में न तो स्वयं भाग लेंगे और न लेनेवालों का अनुमोदन करेंगे। इस प्रकार पर्यूषण पर्व हमारे जीवन में आत्मिक शांति का अनुभव कराता है और हम अपना जीवन परिवर्तित कर मोक्ष मार्ग की ओर अग्रसर होते हैं। पर्व-त्यौहार का हमारे जीवन में यही महत्व है कि वे हमें हमारी व्रतनिष्ठा की याद दिलाते हैं और हमारी साधना को और गहन करने में सहायक होते हैं।
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डा. मीता मुल्तानी, प्राचार्य, श्री पारसमल बोहरा नेत्रहीन महाविद्यालय, जोधपुर. संपर्क : dr.meetamultani@gmail.com