राजनीतिज्ञ नहीं थे डॉ मनमोहन सिंह - एक अर्थशास्त्री को हमारी श्रद्धांजलि
राजनीतिज्ञ नहीं थे डॉ मनमोहन सिंह - एक अर्थशास्त्री को हमारी श्रद्धांजलि
विद्या भूषण अरोरा
अभी घंटा-डेढ़ घंटा पहले जब डॉ मनमोहन सिंह के निधन की खबर सुनी तो मन में पहला विचार यही आया कि मध्यम-वर्ग को उसका सर्वश्रेष्ठ समय देने वाला हीरो नहीं रहा। आप कह सकते हैं कि सिर्फ मध्यम-वर्ग को ही क्यों, डॉ मनमोहन सिंह को ग्रामीण निर्धन क्या मनरेगा (ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना) के लिए याद नहीं करेंगे? करेंगे, जरूर करेंगे लेकिन हम डॉ सिंह की राजनीतिक शुरुआत उनके प्रधानमंत्री काल शुरू होने से नहीं मान सकते बल्कि वह एक युग परिवर्तनकारी कदम प्रधानमंत्री नरसिंह राव के कार्यकाल में ही उठा चुके थे जब उन्होंने भारत के वित्तमंत्री के रूप में “आर्थिक सुधारों” की शुरुआत की और विदेशी पूंजी को भारत में लाने के लिए आर्थिक उदारीकरण के रास्ते को अपनाया। 1991 से शुरू हुआ यह क्रम आज तक चल रहा है और पिछले इतने ही समय से यह बहस भी जारी है कि क्या यह रास्ता सचमुच बेहतर है या फिर इसके कुछ विकल्प हो सकते थे। बहरहाल, इस आलेख में हमारा इन सवालों के जवाब तलाशने का कोई इरादा नहीं है।
दरअसल डॉ मनमोहन सिंह का आकलन सर्वश्रेष्ठ अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के तौर पर तो होगा ही लेकिन हम आज उनके निधन के अवसर पर उनके प्रधानमंत्री होने के कारण देश की राजनीति पर जो असर पड़ा, उस पर एक दृष्टि डालना चाहेंगे। 2004 के आम चुनावों में जब अटल बिहारी वाजपेयी जैसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री के नेतृत्व में ‘इंडिया शाइनिंग’ कैम्पेन के बावजूद और शायद प्रमोद महाजन जैसे नेताओं के ‘ओवर-कॉन्फिडेंस’ के चलते भाजपा हार गई तो सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को फिर एक बार अवसर मिला कि वह सहयोगी दलों के साथ मिलकर सरकार बनाए।
यहीं से शुरुआत हुई एक ऐसे दौर की जिसे आप कांग्रेस की राजनीति की दृष्टि से देखें तो ये दौर उसके लिए सबसे ज़्यादा ‘अराजनीतिक’ दौर था। सोनिया गांधी ने अपनी राजनीतिक असुरक्षा के चलते देश की बागडोर एक ‘अफसर’ के हाथ में सौंप दी। आप भावुक ना हों, हम यह बिल्कुल नहीं कर रहे कि डॉ मनमोहन सिंह अच्छे प्रधानमंत्री नहीं थे, हम केवल यह कह रहे हैं कि वह राजनीतिज्ञ नहीं थे, अच्छे या बुरे – वह कैसे भी राजनीतिज्ञ नहीं थे। उन्होंने प्रधानमंत्री पद को वैसे ही स्वीकार किया जैसे एक बड़े अफसर को पदोन्नत करके सबसे बड़ा अफसर बना दिया जाए। इसमें कोई शक नहीं कि उन्होंने सरकार अच्छी चलाई – खास तौर पर यूपीए सरकार के पहले पाँच वर्ष तो अभूतपूर्व सफलताओं के साल थे – इसी दौर में भारत ने 10 प्रतिशत से भी ज़्यादा की उच्चतम सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि की दर हासिल की जिसके चलते हम 2008 की वैश्विक आर्थिक मंदी का बखूबी मुकाबला कर सके। ग्रामीण रोजगार गारंटी जैसी प्रगतिशील योजनाएं आईं जिनकी पूरे विश्व में तारीफ हुई, शिक्षा का अधिकार और सूचना का अधिकार जैसे कानून बने और भारत-अमेरिका परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर हुए, जिसने भारत को सबसे मजबूत परमाणु देश में से एक बना दिया।
इन सबसे बड़ी बात यह थी कि डॉ मनमोहन सिंह ने लोकतान्त्रिक परंपराओं का बखूबी निर्वाह किया और अपने पर या अपनी सरकार पर लगने वाले तमाम आरोपों के बावजूद उन्होंने कभी विरोधी पक्ष को कुचलने की कोशिश नहीं की। सोचिए कि यह आज के माहौल से कितना भिन्न है जब मीडिया को तो पूरी तरह पालतू बना दिया गया है बल्कि राजनीतिक विरोधियों को भी कई बार तो व्यक्तिगत दुश्मन जैसा मान लिया जाता है। ऐसे में डॉ मनमोहन सिंह हमेशा ही एक परफेक्ट जेन्टलमैन की तरह हमारे सामने आते रहेंगे।
लेकिन ऐसे डॉ सिंह के बावजूद और यूपीए सरकार की इतनी सफलताओं के बावजूद यह सरकार राजनीतिक चुनौतियों का ज़रा भी मुकाबला नहीं कर सकी क्योंकि सरकार के शीर्ष पर एक राजनीतिज्ञ नहीं बल्कि एक अर्थशास्त्री स्थापित थे। कांग्रेस के सभी मंत्री सरकार का हिस्सा बनकर एन्जॉय कर रहे थे लेकिन कांग्रेस पार्टी के संगठन पर कोई ध्यान नहीं दे रहा था। पार्टी के संगठन को तो जैसे घुन लग गया था। जब अन्ना हज़ारे का आंदोलन शुरू हुआ तो कांग्रेस में कहीं से भी उसका माकूल उत्तर देने के लिए कोई ठीक से आगे नहीं आया। यूपीए की दूसरी पारी में 2011 में जब सोनिया गांधी अस्वस्थ हुईं तो पार्टी का संगठन तो चरमर्राया ही, सरकार भी कराहने लगी। इस बीच डॉ मनमोहन सिंह की भी बाई-पास सर्जरी हुई तो पार्टी और सरकार दोनों ही अनाथ हो गए.। वैसे भी सरकार के शीर्ष पर डॉ मनमोहन सिंह जैसे संकोची व्यक्तित्व के होने से वह कभी भी सरकार के श्रेष्ठ कामों का श्रेय नहीं ले सके।
इस तरह कांग्रेस की राजनीति में घोर आलस्य जैसा छाया हुआ था और दूसरी तरफ भाजपा और आरएस्सएस्स अन्ना हज़ारे के आंदोलन को सफल बनवाने में लगे थे। 2014 के चुनावों से छः महीने पहले ही जब भाजपा ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया तो रही-सही कसर भी पूरी हो गई। इस तरह देश के तत्कालीन सत्तापक्ष के इस घोर ‘अराजनीतिकरण’ का परिणाम यह हुआ कि उस समय के विपक्ष को एक तरह से मैदान साफ मिल गया और नरेंद्र मोदी जैसे नेता के रूप में उन्हें एक अत्यंत कुशल वक्ता मिल गया जिसने चुनौती के अभाव में बहुत मज़े से ना केवल भाजपा के लिए बहुमत जुटा लिया बल्कि देश की राजनीति को भी एक तरह से हमेशा के लिए बदल दिया।
अब केवल अंदाज़ ही लगाया जा सकता है कि यदि प्रधानमंत्री पद पर डॉ मनमोहन सिंह के स्थान पर कोई राजनीतिज्ञ होता तो क्या कांग्रेस के लिए स्थिति कुछ बेहतर होती? कई लोगों का मानना है कि प्रणब मुकर्जी यदि प्रधानमंत्री बनते तो वह राजनीतिक चुनौतियों का मुकाबला राजनीतिक ढंग से करते और कांग्रेस की हालत इतनी बुरी ना होती कि वह केवल पचास सीटों पर ही सिमट कर रह जाती!
बहरहाल, उपरोक्त पूरे घटनाक्रम में डॉ मनमोहन सिंह का कहीं कोई दोष नहीं है और इसमें कोई संदेह नहीं कि वह व्यक्तिगत रूप से अत्यंत सज्जन और ईमानदार व्यक्ति थे। अब वह राजनीतिज्ञ नहीं थे तो इसमें उनका क्या दोष! ऐसे परफेक्ट जेन्टलमैन, सज्जन, विद्वान अर्थशास्त्री को हमारी श्रद्धांजलि!
