कविता मैं जीता - मोहन राणा की नई कविताएं
कविता मैं जीता - मोहन राणा की नई कविताएं
मोहन राणा से इस वेब पत्रिका के पाठक अच्छे से परिचित हैं। कभी-कभी आप यहाँ उनकी कविताएं पढ़ते हैं तो कम से कम दो बार उनके कविता संग्रहों की समीक्षाएं भी यहाँ प्रकाशित हुई हैं। अभी हाल ही में ‘कविता अपना जन्म खुद तय करती है’ नामक उनका अकादमिक लेख भी आपने पढ़ा जो मूलत: अंग्रेज़ी मेँ एक अंतर्राष्ट्रीय प्रकल्प के लिए लिखा गया था। नरेश शांडिल्य, इसी वेब साइट पर अपने एक लेख मेँ उनके बारे मेँ कहते हैं, “मैं उन्हें 'वैश्विक कवि' के रूप में देखता हूँ। क्योंकि उनके अनुभव एक स्थान तक सीमित नहीं हैं, वे सार्वभौमिक हैं। वे अनवरत विचरते हैं और इस विचरण से विरचित उनकी कविताएँ ग्लोबल हो गई हैं”।
- जटायु
मैं कविता नहीं कविता मैं जीता
कभी-कभी सोचता हूँ कि लिखना भूल गया, इतना समय हो गया
रेत घड़ी सूख गई है इस शरद के अवसान में,
पढ़ते हुए वह अपना ही लिखा किसी और नाम से
अतीत के भविष्य में
मैं एक मछली हूँ जिसने ज़मीन पर बिताया लंबा समय
एक दिन पंखों की आशा में कि मैं जटायु बन जाऊँ
कि तत् क्षण मैं छूता हूँ किसी जल लहर या तरंग को
गोता लगाता हूँ उसके अथाह तत् क्षण में,
चाहे वह बारिश में छपाक मेरा पैर हो
किसी सुनसान लट पर उछलती लहर : जो मुझे लपकती
धरने एक अरूप शब्द को
इससे पहले कि भाषा की पहुँच से परे बह जाय
मैं लिखना चाहता हूँ उसे
इस पहले कि मैं तुम्हें भूल जाऊँ
अँधेरे शीशे में अपने ही बिम्ब को देखते
यह सोच रहा हूँ रात की रेलगाड़ी में
जो बीता वही याद है भविष्य जीने के लिए।
जो छोड़ जाते हैं क्या वे फिर भी मित्र कहे जाते हैं !
कि जब वे फिर मिलते हैं मेरी तरह बहुत दूर तक जाकर लौटते
फिर उन्हें फिर से बनना पड़ता मित्र
टोककर नाम याद कर पुकारते
पलटकर उन आँखों में आख़िरी मुलाकात
कहीं थी वह जगह कुछ लिख मिटाने चुपके से
अपनी - अपनी दिशा में पानी पर उकेरने वह अर्थ
मैं ठहरा मँझधार में दम साधे एक टक
कि लपक लूँ वह स्मृति
कि तय हो आज सच क्या जो सहमत हो अपना
आइने के सामने तुम्हें देखते!
- एक बूँद जो ठहर गई
ओझल क्षितिज को समेटा नहीं जा सकता कैनवस पर
जो दिखता है
एक बूँद जो ठहर गई पतझर की फुनगियों पर
ठहर गई पीड़ा की कनखियों पर,
यह आर्तनाद हिंसा में भीगा शरद
मैंने उकेरा स्मृतियाँ को आज दुस्वप्न में
- दैंनदिन
पहले से सोच कर नहीं सुनियोजित नहीं
वह प्रेम की तरह अचानक मिलती है
पर अक्सर में उसे पहचान नहीं पाता
दैंनदिन आमने सामने,
किसी समुंदर में गहरे गोते लगाकर ये मोती आप खोज के लाते हो
दुश्मनी की यारा बड़ी जिद्द हो गई संदीपन !
कविता अचानक मिलती है
किस से पूछूँ कहाँ
पनाह जहाँ है सुरक्षित दुनिया दो पैर बराबर उड़न खटोला में।
- अर्थ
बियायान रचने एक पंक्ति को सूखने
क्रमशः
काग़ज़ के पर्दे पर शरद की बारिश में
कि झड़ कर बारीक जालीदार होते पत्ते
वहीं समय की हथेली पर,
वह अर्थ फिर होगा कोंपलों में कभी वसंत
5. तभी तो
नमक के किसान एक दोपहर
तपते आकाश तले स्वाद का एक कौर
इस प्रश्न का उत्तर भविष्य के इतिहास में अभी केवल तर्क
अभी पहुँचे एक नये प्रदेश में कि
कहीं और पहुँचने का नक़्शा
खोजने लगे गाइड बुक में फिर से
पहुँचना और आगमन
यात्राएँ अर्थ बदल देती हैं
जो विचित्र मेरे सामने ठहरना,
पड़ता है उसे गौर से देखना
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दिल्ली में जन्मे मोहन राणा पिछले दो दशकों से भी ज़्यादा से ब्रिटेन के बाथ शहर में रह रहे हैं। हाल ही में प्रकाशित ‘एकांत में रोशनदान’ सहित, उनके आठ कविता संग्रह निकल चुके हैं। इंग्लैंड की आर्ट्स काउंसिल के सहयोग से उनकी ढेर सारी चुनी हुई कविताओं का अँग्रेजी अनुवाद भी प्रकाशित हुआ है। उनकी अनेक कवितायें यूरोप की कई भाषाओं में पढ़ी और अनुवाद की गईं हैं। मोहन राणा ने उपरोक्त तीन कवितायें विशेष तौर पर raagdelhi.com के लिए भेजी हैं।