नन्दिता मिश्र की नई कहानी - आखिर क्यूँ?
विवाहेत्तर संबंध विवाह संस्था जितने ही पुराने हैं। हाँ, इनके प्रति समाज का दृष्टिकोण कैसा है, यह देश-काल पर निर्भर करता है। हम अपने सामने भी स्त्री-पुरुष के बीच के सम्बन्धों पर विभिन्न दृष्टिकोण देखते हैं। 'लिव-इन'रिलेशनशिप भी अब पहले जैसी अनोखी मिसाल नहीं रह गई है। समाजवादी नेता और स्वतन्त्रता सेनानी डॉ राम मनोहर लोहिया दशकों पहले यह कहा करते थे कि बलात्कार और वायदा-खिलाफी को छोड़ कर मर्द और औरत के बीच हर रिश्ता जायज़ है। बहरहाल, यह तो किसी समाजशास्त्रीय बहस का विषय हो सकता है लेकिन विवाहेत्तर सम्बन्धों में एक औरत पर क्या गुज़रती होगी जब उसका पति अपने विवाहेत्तर सम्बन्धों को उसके सामने ही स्वीकार लेता है। नंदिता मिश्र की इस कहानी में किसी सवाल का कोई जवाब नहीं है (यूं भी कहानियाँ सवालों का जवाब देने के लिए नहीं होती) लेकिन उन्होंने स्त्री-मन की ऊहापोह को इतने पैनेपन से उकेरा है कि कहानी के अंत तक आते-आते कहानी के मुख्य चरित्र के साथ हम भी दुविधाओं और भावनाओं के ज्वार में गोते लगाने लगते हैं। आइये, हमारे साथ यह कहानी पढ़िये।
।। आखिर क्यूं।।
नन्दिता मिश्र
पिछले कुछ दिनों से मन बहुत परेशान था। भटक रहा था। क्या करूं। किससे कहूं। तीन संतानें हैं। सब अपने-अपने में व्यस्त और त्रस्त। बेटी की बहुत याद आ रही है। यहां होती तो उससे शेयर करती। वो समझ सकती है। इतनी दूर विदेश में न तो कुछ लिखना चाहती हूं और न फोन करना चाहती हूं। वो भी चिन्ता में पड़ जायेगी। आमने सामने बात करना आसान होता है। कठिन परिस्थितियों में लिखी हुई बात को पत्र पाने वाला कैसे समझेगा। मेरा आशय और वो जो समझे वो मतलब एक हो ये ज़रूरी नहीं।
बड़ा बेटा राहुल मेरे साथ रहता है और छोटा अबीर बम्बई में। बेटी तान्या मंझली संतान है वो विदेश में। हम औरंगाबाद में रहते हैं। एक साफ सुथरा छोटा सा सुविधा-सम्पन्न घर है। राहुल का विवाह हो चुका है। उसकी पत्नी कल्याणी शिक्षिका है। दो बच्चे हैं..बेटी करुणा और बेटा रौनक। करीब बीस साल पहले मैं अपने पति से अलग हो गयी थी। वे चाहते थे हम आपसी सहमति से तलाक ले लें। मैंने उनसे कहा,"आपको फिर से घर बसाना है तो बसा लीजिये। मैं कभी आड़े नहीं आऊंगी। पर तलाक नहीं दूंगी।"
हम दोनों में से कोई भी सरकारी नौकरी में नहीं था। उन्होंने भी ज्यादा ज़ोर नहीं दिया और हम शालीनता पूर्व अलग हो गये। बच्चे मेरे साथ रहे। श्री अलग होने से काफी पहले ही जो ज़मीन जायदाद थी वो मेरे नाम कर चुके थे। राहुल तब दस बरस का था। ये बीस वर्ष कैसे कटे या काटे ये बताना कठिन है। हमारे समाज में पति से अलग रहने वाली महिला अच्छी नहीं समझी जाती। कितने ही पढ़ लिख जायें बदलना मुश्किल है। शुरू में बहुत कष्ट हुआ। बच्चों को ये बताना कि अब पापा हमारे साथ क्यों नहीं रहते, असम्भव था। श्री कभी कभी बच्चों से मिलने आते थे। फिर धीरे-धीरे वो कम हो गया। बच्चे बड़े होते गये। शायद परिस्थिति समझने लगे और पिता के साथ नहीं रहने के हालात से उबर गये थे। तान्या और अबीर के पिता को लेकर पूछने वाले प्रश्न बंद हो गये थे। यादें धुंधली पड़ने लगीं। राहुल शुरू में कभी कभी पूछता था मां क्या पापा अच्छे आदमी नहीं हैं। मैं उससे कहती कि जो पापा साथ नहीं रहते वो क्या बुरे आदमी होते हैं। मेरी कोशिश रहती कि मैं बच्चों के मन में उनके पापा के खिलाफ कुछ ना आने दूँ पर टी वी और फिल्मों में पति पत्नी के अलग होने का जो चित्रण बच्चे देखते हैं वो बड़ा भयानक होता है। चीखना-चिल्लाना, कभी-कभी मार पिटाई,उससे उन्हें यही समझ आता है कि या तो मां बुरी हैं या पापा। बच्चों की यह समझ बनना कि दोनों में से कोई भी बुरा नहीं है, फिर भी अलग रहते हैं, बड़ा कठिन था। खैर वह कठिन समय भी धीरे-धीरे निकल गया।
राहुल के अलावा दोनों बच्चों के मन से पापा की छवि धूमिल हो चुकी थी। श्री ने नई नौकरी कर ली और औरंगाबाद छोड़ कर मुम्बई चले गये। मैंने भी राहत की सांस ली। एक शहर में रहना मतलब कभी न कभी टकरा ही जाते थे। इतने साल बीत गये। श्री के बिना जीवन ठीक-ठाक चल रहा था पर कई बार बड़ी बेचैनी होती थी। याद भी आती थी। अबीर ने भी काम करने के बाद मुम्बई जाने का मन बनाया और चार पांच दोस्त अपनी जीविका के लिये उस मायानगरी चले गये। अबीर गाता बहुत अच्छा है। कुछ मॉडलिंग का शौक भी है उसे। संगीत उसे अपने पिता से विरासत में मिला है। उसके कुछ ऐसे मित्र हैं जो धनाढ्य हैं। मित्र मंडली में अबीर उम्र में अपेक्षाकृत छोटा था और इसलिए सबका लाडला था। उनकी थोड़ी सी शह से ही उसके मन में मॉडल बनने का विचार जागा था।
अबीर की बड़ी चिन्ता रहती थी मुझे, सबसे छोटा जो था। एक भी दिन उसका फ़ोन नहीं आता था तो मैं घबरा जाती थी। उसने बहुत जल्दी मॉडलिंग की दुनिया में अपनी एक ठीक-ठाक जगह बना ली। एक शाम उसने फोन पर बताया कि वो आज अपने पापा से मिला। उसे बहुत अच्छा लगा। पापा तो खुश थे ही, उन्होंने ही तो मिलने को बुलाया था। मैंने पूछा..."कैसे, कहां। उन्हें पहचाना कैसे?" उन्होंने ...उसने बीच में टोका, "रुको तो सब बताता हूं। सब्र तो करो। मैंने थोड़े ही पहचाना। मुझे तो उनकी शक्ल भी ठीक से याद नहीं थी। लेकिन वो मुझे देखते ही पहचान गये। अभी तो वह मेरे फ्लैट पर कुछ ही देर के लिए आए थे लेकिन अब मुझे किसी दिन घर बुलाया है। किसी दिन समय निकाल कर जाऊंगा।"
अबीर ने बताया श्री ने उसके कुछ विज्ञापन देखें और वे अपने बेटे को पहचान गये। अबीर लगभग वैसा ही दिखता है जैसे श्री दिखते हैं। उन्होंने एक विज्ञापन कम्पनी में फोन करके उसका पता मालूम किया और फ्लैट पर आ धमके। पहले जिस तरह उन्होंने खुद का परिचय दिया, उसे बड़ा अटपटा लगा, पर कुछ देर बाद सहज हो गया। अबीर ने मुझसे कहा "मां मुझे पापा बहुत अच्छे लगे। भैया कहता था वो बुरे हैं इसलिए हमें छोड़ गये। मुझे पता होता कि वो बुरे नहीं हैं तो मैं मुम्बई आने के बाद खुद उनसे मिल लेता।"
आज लम्बे समय बाद फिर से वही प्रश्न मेरे सामने खड़ा है ---पति पत्नी अलग हों तो क्या यह ज़रूरी है कि उनमें से कोई एक बुरा हो। अथवा दोनों बुरे हों। क्या ये नहीं हो सकता कि दोनों अच्छे हों। फिर भी साथ नहीं रह सकते । मैं जानती हूं श्री बहुत अच्छे हैं। फिर अनजाने ही उन्होंने किसी और महिला से प्रेम संबंध बना लिया। मैं इसे सहन नहीं कर सकती थी। उन्होंने मुझे बहुत समझाया कि मैं और वो सिर्फ मित्र हैं। हां ये मित्रता इतनी घनिष्ठ हो जायेगी इसका अंदाजा नहीं था। मैं कोई नासमझ व्यक्ति नहीं हूं। मैं धीरे-धीरे दूरी बनाने की कोशिश करूंगा। मुझे कुछ समय दो। उन्होंने अपनी ग़लती मानी। ये वादा भी किया कि ये उनके वैवाहिक जीवन की पहली और आखिरी भूल है।
मैं इस अप्रत्याशित घटना से इतनी टूट गयी थी कि साथ रहने की बात सोच भी नहीं सकती थी। श्री ने कहा था मान लो मैं खुद ये बात तुम्हें नहीं बताता तो कभी पता नहीं चलता। श्री ने जहां तलाक की बात कही थी, वहीं किन्हीं क्षणों में यह भी स्वीकार किया था कि उन्होंने अपना विवेक खोया। बोले थे, "शर्मिंदा हूं। मैं ये नौकरी छोड़ दूंगा। हम किसी दूसरे शहर चले जायेंगे।" पर उस वक्त मेरे मन ने कहा नहीं। कभी कुछ कहते हैं कभी कुछ! अब इनके साथ नहीं रहना है।
आज अबीर के फोन से ये बातें ताज़ी हो गयीं। मैं बेटे को खोने के विचार से डर गयी। बहुत देर तक उन्हीं यादों में खोयी रही। अंधेरा हो गया । होश आया तो उठ कर लाइट जलाई। दिया-बाती की। मन उथल-पुथल हो रहा था। यह सोच कर और डर लग रहा था कि अबीर कभी अपने पापा के घर गया तो क्या होगा। वहां उसे उनका दूसरा परिवार मिलेगा तब। क्या वह उन्हें सहन कर पायेगा। वे लोग कैसा व्यवहार करेंगे ।मन कह रहा था उसे वहां जाने से मना कर दूं। लेकिन उसे बुरा लगा तो। वो मुझे कुछ ग़लत न समझ लें। दुविधा में पड़ गयी। चलो छोड़ो अब जो होना है वो होने दो।
राहुल को बताया तो वो भी चौंका। इतने साल बाद। क्या ज़रूरत थी उन्हें हमारे जीवन में आने की। क्यों ढ़ूंढ़ा अबीर को। चाहते तो पहले भी मिल सकते थे हमसे। कोई रोक टोक तो थी नहीं। खुद ही आना बंद किया था। अब क्यों। राहुल ने इतने बरस बीत जाने के बाद उस समय की बात की जब मैं उसके पापा से अलग हुई थी। "मां मैं जब उन दिनों के बारे में सोचता हूं तो गिनी चुनी बातें याद आती हैं। घर में कभी आप दोनों के बीच कोई लड़ाई झगड़ा नहीं देखा। एक दूसरे पर चीखते चिल्लाते नहीं देखा । हां घर में चुप्पी सी रहने लगी थी। आपस में साथ बैठना धीरे-धीरे कम हो रहा था। आप दोनों खुश नहीं दिखते थे। आप कभी कभी खीझ जातीं थीं पर पापा चुप रहते थे।"
मैं राहुल का विचलित होना देख कर हैरान थी। वो कह रहा था "मुझे याद आता है आपका सहजता का आंचल ओढ़े हमें पालना। पापा कभी-कभी आते थे तो हम खूब खुश हो जाते थे। फिर जाने के बाद उनके फिर से आने की राह देखने लगते थे। तान्या और अबीर आपसे उन्हें बुलाने की फोन पर बात करने की जिद करते थे। मैंने कभी नहीं की। शायद मैं इतना बड़ा था कि ये समझ सकूं आप पापा के आने से खुश नहीं होती थीं। फिर उनका आना कम हुआ फिर बंद।
आपने बताया वे मुम्बई चले गये हैं। वहीं काम करेंगे और वहीं रहेंगे।"
उसने बताया कि वो रात को मुझे देर रात तक जागते देखता था, कभी कभी छत पर जा कर तारों को ताकते देखता था और कभी बरामदे में चुपचाप बैठे देख कर दुखी होता था। "मुझे आपकी परेशानी कुछ-कुछ समझ आती थी। आपको याद है एक बार मैंने आपसे पूछ लिया था क्या आप दोनों का तलाक हो गया है तो आपने सिर्फ इतना कहा नहीं बेटा। जैसे जैसे मैं बड़ा होता गया बातें ज्यादा समझ आने लगीं। इतना पक्का पता चल गया था कि हम किसी कारण से पापा रहित जीवन जीने को अभिशप्त हैं। पर वो क्या है ये कभी जान नहीं पाया। उसने बताया कि उसे यह अच्छी तरह समझ आने लगा था कि मैंने उन्हें ऐसे बड़ा किया कि उन्हें पिता का साथ न रहना, उनका अभाव कभी खले नहीं लेकिन कहीं ना कहीं एक रीतापन था या पता नहीं क्या था जो यदा-कदा उदास कर देता था। कहने लगा, "लेकिन फिर मन में एक भरोसा था कि तुम तो हो और ज़रूर कुछ ऐसा हुआ होगा कि मां ने पापा के साथ नहीं रहना तय किया। वे चाहते तो हमसे सम्पर्क बनाये रख सकते थे। उन्होंने ऐसा नहीं किया। और अब जब हमें उनकी बिल्कुल ज़रूरत नहीं बची है तो वे क्यों हमारे जीवन में आ रहे हैं।"
मैं चुपचाप सुनती रही। कहना भी क्या था। घर में उस दिन फिर चुप्पी छा गयी। खाना खा कर अपने-अपने कमरों में चले गये। किसी बात में मन नहीं लगा। इधर राहुल और उधर अबीर। उन्हीं के बारे में सोचती रही। दोनों बच्चे करुणा और रौनक आपस में कुछ हंसी-मज़ाक कर रहे थे। राहुल ने उन्हें डांट कर होम वर्क करने का हुकुम सुना कर भगा दिया। वे पढ़ने में लग गये। कल्याणी चौंका समेटने में लग गयी।
फिर कुछ दिनों में घर का वातावरण सामान्य होने लगा और सब पहले जैसा हो गया। अबीर को दीपावली पर आना था। त्योहार मनाने की तैयारियां हो रहीं थीं। करीब तीन माह पहले आया था तब अपने पापा से मिला नहीं। श्री से मिलने के बाद ये पहली यात्रा थी। मेरे और राहुल के मन बहुत सी बातें थीं, शंकाएं थीं। पर हमने उस सब पर कोई बात नहीं की।
फिर एक दिन दीपावली से कुछ ही रोज़ पहले अबीर अचानक आ गया। फोन भी नहीं किया। "अरे चाचू", रौनक खुशी से चिल्लाया। रविवार था। सबकी छुट्टी थी। नाश्ता चल रहा था। हम सब हैरान थे। मैंने जैसे ही मुड़ कर देखा तो उसका चेहरा देख कर घबरा गयी। चेहरा एकदम उतरा हुआ था। क्या हुआ होगा, मैंने सोचा। ये तो जैसे रास्ते भर अपने आप से जूझता आ रहा हो। "अबीर बेटा जल्दी आ गये। तबीयत ठीक है", मैंने संयत हो कर कहा।
"सब है और कुछ भी ठीक नहीं है। मां तुम ऐसा कैसे कर सकती थीं।"
"अरे! ये क्या कह रहे हो? क्या किया मैंने?"
"तुम कुछ कहो मत माँ। मुझे मालूम था तुम यही कहोगी। कितना बड़ा अन्याय किया है तुमने हम तीनों के साथ!"
मैं राहुल और कल्याणी अवाक थे। कल्याणी स्थिति की गम्भीरता देखकर सहमे हुए बच्चों को ले कर अंदर वाले कमरे में चली गयी। राहुल ने अबीर को शांत करने की गरज से कहा, "पहले बैठ तो ठीक से, फिर शिकायत कर। आजा यहां बैठ। क्या हो गया, मां ने क्या किया है?"
"मां तुमने पापा को क्यों छोड़ा था। और भैया तुम हमें बचपन में बताते थे वो अच्छे आदमी नहीं थे । इसलिये हमारे साथ नहीं रहते। क्यों मां,क्यों। क्या ग़लती थी उनकी। बता सकती हो?"
राहुल कुछ कहना चाहता था पर मैंने रोक दिया और अबीर से पूछा "क्या तुम पापा के पास गये थे या वो तुम्हारे पास आये थे। उन्होंने कुछ कहा है तुमसे। कहीं तुम उनके घर तो नहीं चले गये। वहां क्या हुआ। कौन-कौन मिला?"
मैं सारी बातें जानने के लिए उतावली हो रही थी। सवाल पर सवाल किये जा रही थी। मेरा सिर घूम रहा था। मेरा शायद संतुलन भी बिगड़ रहा था और मैं जैसे लड़खड़ा गई। राहुल ने मुझे सहारा दिया और कुर्सी पर बिठाया। पानी पिलाया।
"मां इतने सवाल एक साथ! लो फिर सुन लो कि पापा अकेले रहते हैं। उनके साथ कोई नहीं रहता। इतने बरसों से वे हम सबके होते हुए भी अकेले रहे। क्यों मां क्यों। सिर्फ इसलिये कि उनकी एक महिला मित्र थी। ही वाज़ हैविंग एन अफेयर विद हर। इस बात पर तुमने उन्हें छोड़ दिया। हम लोगों को पिता के प्यार से वंचित रखा? क्या इसका हक था तुम्हें। पापा ने तुम्हें कई तरह से समझाया। तुम साथ रह कर भी अलग रह सकती थीं। हमें तो मां- बाप दोनों का प्यार मिलता।"
वो बोलता जा रहा था। मैं कभी राहुल को देखती कभी उसे। वो भी भौंचक्का था। अबीर बोलता रहा। मैं सुनती रही। बल्कि कुछ देर बाद वो आवाज़ मेरे मन में चल रही उथल पुथल के कारण नेपथ्य में चली गयी।
मैं सोच रही थी, मूल्य कितने बदल गये हैं। अबीर के लिये ये छोटी बात है पर मेरे लिये? क्या मैंने जो किया उसका मुझे अधिकार नहीं था? मैंने सिर उठा कर देखा अबीर अपने मन का गुबार निकाल कर शांत बैठा था।
मैंने दुबारा सूत्र पकड़ने की कोशिश की - "देखो बेटा वे तुम लोगों से मिलने आते थे। मैंने कभी मना नहीं किया। वे चाहते तो तुम लोगों को ले जा सकते थे पर वे तो किसी और...."
"नहीं मां नहीं। क्या पापा ने तुम्हें नहीं कहा था कि यह मेरे जीवन की पहली और आखिरी भूल है। मैं न जाने कैसे विवेकहीन हो गया था। उनका कहना है कि उन्होंने आपसे माफी भी मांगी थी। मैं अभी तक समझता था मेरी मां बहुत उदारमना महिला है। आधुनिक है। पर आप तो उसके उलट निकलीं। मुझे पता ही नहीं था कि आप लोग अलग क्यों हुए। अरे मां ऐसा होने लगे तो आज बहुत से घर बिखर सकते हैं। सौ में से तीस-चालीस घरों में संबंध विच्छेद हो जायेंगे। इसलिए कहता हूँ कि पापा तुम्हें तो नहीं छोड़ना चाहते थे। तुमने उन्हें छोड़ा।"
मैं देख रही थी और सोच रही थी क्या अबीर ठीक कह रहा है कि क्या हुआ अगर उन्हें किसी और से प्यार हो गया? वे शायद मुझे नहीं छोड़ना चाहते थे। (हालांकि क्या पता?) क्या उनसे अलग होने का निर्णय मेरी भूल थी? क्या अबीर का कहना ठीक है कि बरसों पहले उठाया गया मेरा अलग होने का फैसला ग़लत था? घोर आत्मसंशय के इन मुश्किल क्षणों में मुझे अपने पक्ष के कुछ धुंधले-धुंधले से तर्क याद तो आ रहे थे लेकिन मुझमें इतनी शक्ति नहीं रह गई थी कि मैं बच्चों के सामने अपना बचाव कर पाती। मुझे लगा जैसे मैं एक बहुत ही डरावना सपना देख रही हूँ और ज़ोर से चीखना चाहती हूँ पर फुसफुसा भी नहीं पाती। मुझे लगता है मैं बैठे0बैठे ही दरक गई हूँ और मेरे चारों तरफ जैसे ना समझ आने वाला शोर हो रहा है।
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