बाज़ारवाद के ज़माने में मीडिया

पार्थिव कुमार | समाज-एवं-राजनीति | Mar 27, 2019 | 237

इस सरकार ने मीडिया के पतन को सार्वजनिक कर दिया है और अब कुछ भी छिपा नहीं रहा। चिंता की बात ये है कि यदि सरकार बदल भी जाती है तो भविष्य की सरकारों को यह पहले से ही पता होगा कि मीडिया को कैसे मामूली से दबाव से ही झुकाया जा सकता है। मीडिया का दुरुपयोग ना हो, यह तो अब भविष्य की सरकारों के स्वयं के नैतिक बल पर ही निर्भर करेगा।

पार्थिव कुमार *

मोदी सरकार के लगभग पांच बरसों में मीडिया की विश्वसनीयता में लगातार आयी गिरावट गहरी चिंता का सबब है। इस दौरान मीडियाकर्मियों के एक बड़े तबके ने सरकार के कामकाज पर नजर रखने की अपनी बुनियादी जिम्मेदारी से पूरी तरह मुंह मोड़ लिया। ज्यादातर अखबार और टेलीविजन चैनल साम्प्रदायिकता, रूढ़िवाद और युद्धोन्माद जैसे पतनशील मूल्यों को समाज में फिर से मजबूत करने की मुहिम में लगे रहे। नतीजतन पाठकों और दर्शकों का उन पर से विश्वास उठ गया। उन्हें अब नाजायज फायदों के लिये सचाई छिपाने और झूठ को सच की तरह पेश करने की मशीन के रूप में देखा जाने लगा है।

लेकिन इन हालात के लिये सिर्फ पत्रकारों और मौजूदा सरकार को कटघरे में खड़ा करना वाजिब नहीं होगा। दरअसल मीडिया की इस दुखद स्थिति को तीन दशकों से जारी उस बाज़ारवाद (जिसे पता नहीं क्यों उदारीकरण भी कहा जाता है) से जोड़ कर देखा जाना चाहिये जिसने भारत के समूचे राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिवेश को दूषित किया है।

1990 के दशक की शुरुआत में बाजारवाद को भारत की आर्थिक नीति के तौर पर अपनाये जाने के साथ ही मीडिया में कई बदलाव आये। समाचारपत्रों और टेलीविजन चैनलों की तादाद में अचानक बेतहाशा इजाफा होने लगा। इसके साथ ही ‘मीडिया रिलेशंस एजेंसी’ नामक एक नये कारोबार की भी शुरुआत हुई। इसी दौरान देश भर में पत्रकारिता का प्रशिक्षण देने वाले संस्थानों की भी बाढ़ आ गयी।

 इन सभी बदलावों के बीच देश के सबसे बड़े समाचारपत्र प्रकाशन समूहों में से एक बेनेट कोलमैन एंड कंपनी के प्रबंध निदेशक विनीत जैन ने 2016 में एक अमेरिकी अखबार से बेबाकी से कहा, “वास्तव में हम समाचार के कारोबार में नहीं हैं। हम विज्ञापन का व्यवसाय करते हैं। अगर आपकी कमाई का 90 फीसदी हिस्सा विज्ञापनों से आता है तो आप निस्संदेह विज्ञापन के कारोबार में ही हैं।”

बेशक समाचारपत्रों और टेलीविजन चैनलों की संख्या में तेज़ बढ़ोतरी की एक वजह देश की साक्षरता दर में वृद्धि भी थी। लेकिन इसका सबसे बड़ा कारण वे बहुराष्ट्रीय कंपनियां थीं जिन्हें भारत की नयी नवेली आर्थिक उदारता का फायदा उठाने के लिये देश में आमंत्रित किया गया था। इन कंपनियों को अधिकतम मुनाफा कमाने के लिये अपने उत्पादों को अर्द्धशहरी और ग्रामीण इलाकों तक पहुंचाने की दरकार थी। राष्ट्रीय समाचारपत्रों के स्थानीय संस्करणों और टेलीविजन चैनलों ने उनके उत्पादों के इन क्षेत्रों में प्रचार-प्रसार में अहम किरदार अदा किया। बहुराष्ट्रीय कंपनियों और मीडिया के आपसी लाभ के इस रिश्ते से समाचारपत्रों और टेलीविजन चैनलों की आमदनी काफी बढ़ गयी। साथ ही यह भी तय हो गया कि इन कंपनियों और स्थानीय समुदायों के हितों के बीच टकराव की हालत में उनकी प्रतिबद्धता सामान्य तौर पर आम आदमी के खिलाफ होगी।

जूनियर पत्रकारों से लेकर संपादकों तक को भ्रष्ट बनाने में मीडिया रिलेशंस एजेंसियों का बड़ा हाथ रहा है। अगर किसी को इस बारे में कोई संदेह हो तो उसे ‘नीरा राडिया टेप’ पर फिर से गौर करना चाहिये। राडिया की वैष्णवी कम्युनिकेशंस देश की शुरुआती मीडिया रिलेशंस एजेंसियों में से एक रही है। आयकर विभाग ने राडिया की राजनीति, उद्योग और मीडिया जगत की कई जानीमानी हस्तियों के साथ बातचीत रिकॉर्ड की थी। इनसे पता चलता है कि राडिया ने किस तरह श्री ए राजा को दूरसंचार मंत्री बनाये जाने के फैसले को प्रभावित करने के लिये सीनियर मीडियाकर्मियों का सहारा लिया।

मीडिया रिलेशंस एजेंसियों ने पत्रकारिता में एक ऐसी संस्कृति की बुनियाद रखी जिसमें समाचारों के महत्व को उससे जुड़े लोगों की जेब से आंका जाता है। इस संस्कृति का इस कदर विस्तार हो चुका है कि केन्द्र और राज्य सरकारें भी मीडिया में अपनी सकारात्मक मौजूदगी के लिये महंगे उपहारों की रिश्वत का सहारा लेने लगी हैं। जनता के पैसे से खरीदे जाने वाले इन उपहारों का चलन अब सामान्य बात हो गया है और अब इन पर कोई अँगुली नहीं उठाता।

देश भर में हजारों की संख्या में मौजूद निजी पूंजी से चलने वाले पत्रकारिता प्रशिक्षण संस्थान वास्तव में मीडिया के लिये पत्रकारों के बजाय ठेके पर लिए जाने वाले मज़दूर तैयार करने में जुटे हैं। पत्रकारिता के शाश्वत मूल्यों से अनभिज्ञ इन मज़दूरों का एकमात्र मकसद अपने वेतन के बदले मालिक की मर्जी के मुताबिक उत्पाद तैयार करना है। उनकी नजर में वे सभी सूचनाएं और विचार महत्वहीन हैं जिनसे मुनाफा नहीं कमाया जा सकता। किसानों, मजदूरों, महिलाओं, छात्रों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों समेत तमाम वंचित तबकों के लिये उनके मन में कोई सहानुभूति नहीं है क्योंकि इन समुदायों के संघर्ष अक्सर प्रभावशाली राजनेताओं और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के गठजोड़ के स्वार्थों को नुकसान पहुंचाते हैं।

बाज़ारवाद ने सत्ता और कारपोरेट घरानों के रिश्तों को एक नयी नज़दीकी दी है। ऐसे में कारपोरेट पूंजी से चलने वाले मीडिया का सरकार के साथ खड़ा होना स्वाभाविक ही है। देश में समाचार टेलीविजन चैनलों और वेब मीडिया में काम करने वालों की सेवा शर्तों को परिभाषित करने वाला कोई कानून नहीं है। अखबारों और समाचार एजेंसियों के कर्मचारियों के लिये श्रमजीवी पत्रकार कानून है मगर उसे कहीं भी लागू नहीं किया जाता। उनके लिये मजीठिया वेतन बोर्ड की सिफारिशों को इक्कादुक्का समाचारपत्रों को छोड़ कहीं भी लागू नहीं किया गया। सरकार और मीडिया मालिक साफ तौर पर ऐसे किसी भी प्रावधान के खिलाफ दिखते हैं जिससे पत्रकारों के अधिकार मजबूत होते हों। दोनों को संदेह है कि अगर मीडियाकर्मियों को उनके वाजिब अधिकार दे दिये गये तो वे मजदूर से पत्रकार में तब्दील हो जायेंगे और आजादी से काम करने का हक भी मांगने लगेंगे।

सत्ता और पूंजी के गठजोड़ ने देश में एक ऐसा मीडिया उद्योग खड़ा किया है जिस पर कोई भी श्रम कानून लागू नहीं होता। यह उद्योग मीडिया की स्वतंत्रता के नाम पर  तमाम विशेषाधिकारों का उपयोग करता है। लेकिन पत्रकारों के हितों से संबंधित कानूनों और वेतन बोर्डों की सिफारिशों को लागू करने के सवाल पर वह कन्नी काट जाता है। उसके अनुसार मीडिया एक उद्योग है और इसलिये बाज़ारवाद के इस जमाने में उस पर अंकुश नहीं लगाये जाने चाहिये। यह बात और है कि औद्योगिक कामगारों से संबंधित कानूनों को लागू करने में भी उसकी कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी देती।

अगर मीडिया एक उद्योग है तो क्या इसके मालिकान इसे उपभोक्ता संरक्षण कानून के दायरे में रखे जाने का समर्थन करेंगे? क्या पाठकों और दर्शकों को समाचारों का उपभोक्ता होने के नाते यह हक देना वाजिब नहीं होगा कि वे बदनीयती से भ्रामक और गलत सूचनाएं दिये जाने की हालत में मीडिया संस्थानों से हर्जाना मांग सकें?

बहरहाल, सच यही है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सत्तासीन होने से पहले ही आम तौर पर भारतीय मीडिया सरकार और पूंजी की गुलामी स्वीकार कर चुकी थी। मोदी सरकार ने अपने राजनीतिक हितों को साधने के लिये न्यायपालिका, संसद, निर्वाचन आयोग, नियंत्रक और महालेखा परीक्षक, केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो तथा केन्द्रीय सतर्कता आयोग समेत तमाम सांवैधानिक संस्थाओं के दुरुपयोग की भरपूर कोशिश की। मगर  सरकार साम, दाम, दंड और भेद की चौतरफा नीति अपना कर मीडिया को सबसे आसानी से साधने में कामयाब रही।

वास्तव में इस सरकार ने मीडिया के पतन को सार्वजनिक कर दिया है और अब कुछ भी छिपा नहीं रहा। चिंता की बात ये है कि यदि सरकार बदल भी जाती है तो भविष्य में आने वाली सरकारों को यह पहले से ही पता होगा कि मीडिया का कैसे और किस हद तक दुरुपयोग किया जा सकता है और कैसे मामूली से दबाव से ही इसे झुकाया जा सकता है। मीडिया का दुरुपयोग ना हो, यह तो अब भविष्य की सरकारों के स्वयं के नैतिक बल पर ही निर्भर करेगा।  

ऐसा नहीं है कि सभी मीडियाकर्मी बाज़ारवाद की शक्तियों के सामने समर्पण कर चुके हैं। मीडिया की मौजूदा निराशाजनक स्थिति को लेकर कुछ संजीदा मीडियाकर्मियों में काफी बेचैनी है। प्रेस क्लब की चर्चाओं से लेकर विचार गोष्ठियों तक में उनके बीच चर्चा का मुख्य मुद्दा यही होता है कि इस परिस्थिति से कैसे निपटा जाए। उन्हें इस खतरे का भान है कि पाठकों और दर्शकों का मीडिया के प्रति बढ़ता अविश्वास अंतत: उनके पेशे के लिये विनाशकारी होगा।

यदि आम लोग समाचारपत्रों और टीवी चैनलों पर भरोसा करना छोड़ दें तो सूचनाओं के जरिये विचारधारा निर्मित करने की उनकी क्षमता भी खत्म हो जायेगी। ऐसे में मीडिया उस टूटे कनस्तर में तब्दील हो जायेगी जो लुढकाये जाने पर शोर तो बहुत करता है मगर जिसमें कुछ भी रखा नहीं जा सकता। इस स्थिति में वे लोग भी उससे कन्नी काट जायेंगे जो भ्रामक प्रचार के जरिये अपना उल्लू सीधा करने के मकसद से धन और अन्य तरह के लाभ देकर मीडिया का ईमान खरीदने में लगे हैं। इस तरह की स्थिति मीडिया के कारपोरेट युग के अंत की शुरुआत साबित हो सकती है। ऐसे में सोचा जाना चाहिये कि पत्रकारिता के उच्च आदर्शों पर चलने का साहस रखने वाली भविष्य की मीडिया के स्वामित्व का स्वरूप क्या हो सकता है।

पार्थिव कुमार

पार्थिव लंबे समय तक यूएनआई से जुड़े रहने के बाद अब स्वतंत्र पत्रकारिता करते हैं। ईमेलः kr.parthiv@gmail.com



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