मेनस्ट्रीम बनाम वैकल्पिक मीडिया : रेस में कौन आगे..!
4 जून के चुनावी नतीजों के बाद, मैंने एक छोटी सी विडिओ क्लिप देखी, जिसमें यू-ट्यूबर ‘डॉ. मेडुसा’, जिनका साप्ताहिक कार्यक्रम ‘दुखदर्शन’ आपने शायद कभी 4PM चैनल पर देखा हो, अपने ही जैसे एक और यू-ट्यूबर ‘मेघनर्ड’ की एक व्यंगात्मक टिप्पणी पर दिल खोलकर हंस रही थीं। यह टिप्पणी एएनआई पॉडकास्ट वीडियो की पृष्ठभूमि में की गई थी, जिसमें भाजपा की सीटें कम होने के पीछे का एक कारण यूट्यूब चैनलोँ का उदय बताया गया था। डॉ. मेडुसा और मेघनर्ड दोनों ही यूट्यूब चैनल पत्रकार हैं (या आप इन्हें influencer भी कह सकते हैं) और ये दोनों वैकल्पिक पत्रकारिता की विस्तृत श्रृंखला का प्रतीक हैं, जिसमें समाचार पोर्टल, यूट्यूब चैनल, यूट्यूबर और सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर शामिल हैं।
वैकल्पिक मीडिया की पारंपरिक परिभाषा में बीस-एक साल पहले तक पोर्टल और यूट्यूब चैनल शामिल नहीं थे लेकिन अब ये वैकल्पिक मीडिया के केंद्र में हैं। डॉ. मेडुसा और मेघनर्ड मुख्यधारा के मीडिया के विशाल नेटवर्क (जैसे टीवी चैनल और व्यापक रूप से प्रसारित समाचार पत्र और पत्रिकाएँ) की पृष्ठभूमि में हाथी के समक्ष खरगोशों की तरह हैं। आदर्शत: प्रेस का मुख्य काम लोगों को तथ्यों और आँकड़ों के आधार पर सूचित और शिक्षित करना है, ताकि लोग अपनी जानकारी के अनुसार सही-गलत की परख कर सकें। लेकिन भारत में 24 घंटे के टेलीविज़न चैनलों के प्रसार के बाद से पत्रकारिता के मूल्यों का क्षरण शुरू हो गया था। बहुरंगी स्क्रीन और लगभग हर घर तक पहुँचने की इसकी क्षमता ने एक तरह से एक मारक अस्त्र हासिल कर लिया था। इसमें किसी भी विषय, वस्तु या व्यक्ति के पक्ष या विरोध में प्रभाव डालने की अंतर्निहित क्षमता थी।
पिछले दशक में ऐसा ही हुआ – नैतिकता और मीडिया की शुचिता को पूरी तरह तिरोहित करते हुए हुआ। मुख्यधारा के मीडिया ने स्वयम को लोकतंत्र के चौथे स्तंभ होने का मान या लिहाज़ नहीं रखा और पूरी तरह पक्षपाती और एकतरफा होने का रास्ता अपना लिया। इसने खुद को सरकार का भोंपू बना लिया और एक व्यक्ति विशेष को महिमा-मंडित करने के लिए और विपक्ष के बड़े नेताओं को नीचा दिखाने का काम एक मुहिम की तरह किया। ऐसे रीढ़-विहीन मीडिया ने अप्रासंगिक सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों को उभारा; दक्षिणपंथी एजेंडे को फैलाने और प्रचारित करने करने के लिए विभाजनकारी मुद्दों और विषयों पर दिन-दर-दिन, महीने-दर-महीने और साल-दर-साल बहसें आयोजित करने को प्राथमिकता दी। । लोग उनके बहकावे में आ गए।
2019 के आम चुनावोँ के परिणाम काफी हद तक मुख्यधारा के मीडिया से प्रभावित थे। देश और जनता के वास्तविक मुद्दों को पीछे धकेल दिया गया और समझदार आवाज़ें मुख्यधारा के मीडिया के शोर में दब कर रह गईं । केवल ‘द हिंदू’ या ‘इंडियन एक्सप्रेस’ या ‘टेलीग्राफ’ जैसे कुछ समाचार पत्र ही कुछ हद तक पत्रकारिता के पारंपरिक मूल्यों पर बने रहे। कम से कम एक टेलीविजन चैनल (एनडीटीवी) ने अन्य चैनलोँ की लाइन पर चलने से इनकार कर दिया और कम से कम एक प्राइम टाइम ऐंकर (रवीश कुमार) ने उन मुद्दों को उजागर करना जारी रखा जो वास्तव में लोगों और देश के लिए मायने रखते थे। यह आखिरी गढ़ था जो ताकतवरों की मर्जी के आगे एक दिन परास्त हुआ जब इसे अडानी समूह ने खरीद लिया।
यूट्यूब चैनल और पोर्टल
ताकतवरों की मर्जी के आगे इस् आखिरी गढ़ के परास्त होने से बहुत पहले ही वैकल्पिक मीडिया की ताकत ने आकार लेना शुरू कर दिया था। कम निवेश-संसाधनों, सीमित पहुंच और मामूली आमदनी के साथ न्यूजलॉन्ड्री, द वायर, द स्क्रॉल, न्यूजमिनट, ऑल्ट न्यूज, न्यूजक्लिक और अन्य छोटे स्तर के मीडिया संगठन काम करने लगे। इन सभी ने पत्रकरिता के नाम पर होने वाली चाटुकारिता का मुकाबला करने का साहस किया। इन छोटे मीडिया पोर्टल्स ने झूठी, मनगढ़ंत ‘तथ्यों’ की जांच की और सच को सामने लाना शुरू किया; शासन, समाज और देश से संबंधित मुख्य मुद्दों पर बहसें आयोजित कीं। उन्होंने लोगों के एक वर्ग, विशेष रूप से शिक्षित वर्ग और युवाओं को प्रभावित किया। फिर भी उनकी पहुंच सीमित रही क्योंकि इनमें से ज़्यादातर अंग्रेजी में बात कर रहे थे जो भारत में बौद्धिक रूप से प्रभावशाली वर्ग की भाषा तो है, लेकिन विशाल भारतीय आबादी के मुकाबले उनकी संख्या नगण्य ही है।
इसके बाद स्थितियाँ कुछ ऐसी बनीं कि मुख्यधारा के चैनल अजित अंजुम, अभिसार शर्मा और पुण्य प्रसून वाजपेयी जैसे स्वतंत्र प्रकृति के पत्रकारों को नहीं झेल सके और एक के बाद एक, इन तीनों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। अभिसार शर्मा शायद पहले स्टार ऐंकर थे जिन्होंने तेज़ और स्पष्ट आवाज में अपनी बात रखनी शुरू की। इसके बाद पुण्य प्रसून बाजपेयी आए -- दर्शकों से संपर्क स्थापित करने और सावधानीपूर्वक विश्लेषण के साथ तथ्य प्रस्तुत करने की अपनी बेदाग शैली के साथ। अजीत अंजुम, लॉकडाउन के दौरान हो रहे व्यापक विस्थापन और फिर किसान आंदोलन की निडर कवरेज के साथ प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंचे। इन मुद्दों को मेनस्ट्रीम मीडिया ने या तो नजरअंदाज कर दिया या इन्हें देश विरोधी आंदोलन के रूप में प्रचारित किया था। शर्मा, बाजपेयी और अंजुम सभी जाने-माने चेहरे थे और वे भारत के बहुसंख्यक लोगों की भाषा हिंदुस्तानी में बोल रहे थे। वे हजारों, लाखों तक और दूर-दूर तक पहुंचने लगे और लोगों को प्रभावित किया। फिर इस प्रवृत्ति को बल मिला, जब रवीश कुमार ने नैतिक आधार पर एनडीटीवी से इस्तीफा देने के बाद अपना खुद का यूट्यूब चैनल शुरू किया।
फिर तो तांता बांध गया... ‘डीकोडर’ (एनडीटीवी वाले प्रणय रॉय), ‘सत्य हिंदी’ (आशुतोष), ‘आर्टिकल 19 इंडिया’ (नवीन कुमार), ‘दी रेड माइक’ (संकेत उपाध्याय) और अनेकों अनेक आ गए। पत्रकारिता की नैतिकता के अनुरूप, इन यूट्यूब चैनलों ने विश्वसनीय सूचनाएं प्रसारित करने में मदद की, फ़र्ज़ी खबरों का खंडन किया, तथ्यों और आंकड़ों के आधार पर सरकार के दावों की जांच की, कमियों को उजागर किया और लोगों की समस्याओं से जुड़े रहे। उन्होंने कानून लागू करने वाली एजेंसियों की ज्यादतियों पर उंगली उठाने की हिम्मत की और यहां तक कि न्यायपालिका के कुछ फैसलों पर भी शालीनता लेकिन दृढ़ता से सवाल उठाए। नतीजतन, उनमें से कई को सत्ता की नाराज़गी का सामना करना पड़ा और कानूनी दलदल में भी फंसना पड़ा।
मुख्यधारा के मीडिया की तुलना में, जो कॉर्पोरेट घरानों और सरकारों और सत्तारूढ़ दल से मिलने वाले विज्ञापन राजस्व पर फल-फूल रहे थे, ये पोर्टल और चैनल छोटे विज्ञापनों और स्वैच्छिक सार्वजनिक धन से चल रहे थे। न्यूज़लॉन्ड्री ने अपनी स्थापना के समय से ही विज्ञापन चलाने से इनकार कर दिया और अभी भी सार्वजनिक धन से ही इसका प्रबंधन चल रहा है।
असल चीज़ जनशक्ति है। है कि नहीं ? इनमें से कई यूट्यूब चैनल अनुभवी पत्रकारों जैसे आशुतोष, फेय डिसूजा, पुण्य प्रसून बाजपेयी, प्रणय रॉय, नवीन कुमार, संकेत उपाध्याय, अभिसार शर्मा, रवीश कुमार और अन्य द्वारा चलाए जा रहे थे। यूट्यूब द्वारा जारी किए गए डेटा के अनुसार, अप्रैल-मई 2024 के महीने में, जब चुनाव प्रचार अपने चरम पर था, शीर्ष 30 राजनीतिक समाचार चैनलों/टिप्पणीकारों के दर्शकों की संख्या लगभग 2056 मिलियन थी। इनमें से अधिकांश चैनल/टिप्पणीकार गैर-पक्षपाती और जन-केंद्रित थे। उन्होंने मिलकर लगभग 64 करोड़ वास्तविक मतदाताओं में से एक तिहाई को प्रभावित किया। याद रखें, ये केवल थोड़े से हिंदी चैनल हैं। अन्य हिंदी, अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं के समाचार चैनलों की संख्या गिनें तो गिनती भूल जाएं। इसके अलावा, फेसबुक, इंस्टाग्राम, ‘एक्स (ट्विटर) और व्हाट्सएप थे, जिनके जरिए छोटे-मोटे influencers अपने दर्शकों तक पहुँच रहे थे। यह अनुमान लगाना कठिन नहीं कि वैकल्पिक मीडिया ने मतदाताओं को कैसे और किस हद तक प्रभावित किया होगा।
अकेले योद्धा
मुख्यधारा के मीडिया के खिलाफ़ और छोटे लेकिन सच्चे मीडिया के साथ-साथ, सोशल मीडिया के प्रभावशाली लोगों की एक नई नस्ल लगभग दस साल पहले सोशल मीडिया, खासकर यूट्यूब के माध्यम से उभरी और फैली। स्टैंड-अप कॉमेडियन कुणाल कामरा भाजपा के नेतृत्व वाली दक्षिणपंथी राजनीति के एकमात्र प्रचलित नैरेटिव को चुनौती देने वाले पहले व्यक्ति थे। उनके मज़ाकिया, व्यंगात्मक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुए और लोगों को प्रभावित किया। विवादित पत्रकार अर्नब गोस्वामी के साथ उनकी कथित मुठभेड़ की कहानी जनता के बीच तुरंत हिट हो गई थी। यह सामूहिक ‘कथार्सिस’ (catharsis) का एक बड़ा नमूना था, क्योंकि इस बार उसको धौंसा दिया गया था जो सब को धौंसाता था।
इसके तुरंत बाद, संपत सरल और वरुण ग्रोवर, कुणाल कामरा जैसी ही विषय-वस्तु के साथ चर्चा में आए। बाद में उनके जैसे कई और और स्टैंड अप कॉमेडियन्स सामने आए। जब दुष्प्रचार तथ्यों को कुचल देता है और कुतर्क विवेक को दबा देता है, तो हास्य और व्यंग्य सबसे शक्तिशाली हथियार बन जाते हैं। जब तर्क और तथ्य किसी गंभीर बहस में, फर्जीवाड़े और झूठे आख्यानों का मुकाबला करने में सफल नहीं होते, तो यह हास्य और व्यंग्य ही होता है जो लोगों तक पहुंचता है और उनके पूर्वाग्रहों के गुब्बारे में सूई चुभा देता है, जहां से प्रतिवाद को रास्ता मिलता है। ऐसा ही हुआ। कामरा की तरह के, संपत की तरह के, सैकड़ों स्टैंडअप कॉमेडियन और हास्य-कवि, व्यंग्यकार, लोक गायक और कलाकार और सोशल मीडिया influencer उभरे और सम्मेलनों और यूट्यूब स्ट्रीमिंग के माध्यम से लाखों-करोड़ों लोगों तक पहुंचे। वे अथक थे, बावजूद इसके कि उनमें से कुछ, जैसे मुनव्वर फारुकी, नेहा सिंह राठौड़ और कुणाल कामरा को तो कानून से भी डराया गया था बल्कि मुन्नवर फरुकी को तो कुछ समय जेल में भी रहना पड़ा था। ऐसी सभी लोगों को आई टी सेल के कार्यकर्ताओं द्वारा लगातार ट्रोल किया जाता रहा और गाली-गलौच द्वारा परेशान किया गया लेकिन इससे हास्य कलाकारों और कवियों की बढ़ती नस्ल का मनोबल नहीं टूटा। ऐसे लोग दमन की किसी गंभीर कार्यवाही से आमतौर पर बचे भी रहे क्योंकि उन्होंने सत्ता को सामने से चुनौती नहीं दी, बल्कि हास्य-व्यंग के परदे में रहकर उसका मज़ाक उड़ाया।
बीस वर्षीय दुबले-पतले ध्रुव राठी, पहले यूट्यूबर थे, जिन्होंने सरल हिंदुस्तानी भाषा में गंभीर राजनीतिक सामग्री पेश की। वे भारत के बाहर से काम कर रहे थे, लेकिन उनके विषय भारतीय थे और उनकी सामग्री ने यहाँ के लोगों के दिलों और दिमागों को छुआ। ध्रुव राठी ने अपने तथ्य-आधारित और सूचनात्मक वीडियो से हलचल मचा दी। उन्होंने हर विषय पर बात की, जिसमें राजनीतिक विषय भी शामिल थे। 2014 से आईटी सेल की फर्जी, झूठी और घृणा से भरे संदेश फैलाने वाली ट्रोल सेना सोशल मीडिया पर दनदनाती फिर रही थी। राठी ने पहला तहलका इस तरह मचाया कि भाजपा ट्रोल सेना के एक युवा के मुँह से ही आईटी सेल के पीछे की सच्चाई उगलवा ली और उनका काम करने का क्या तरीका है, यह सब कैमरा पर कहलवाया। मीडिया के करीबी लोग आईटी सेल की हरकतों से कमोबेश वाकिफ थे लेकिन तब तक आम जनता या तो अनजान थी या बेखबर थी। इसलिए जब सच्चाई साफ और सीधी भाषा में और सीधे तौर पर सामने आई, तो लोगों ने उस पर भी विश्वास करना शुरू कर दिया जो अब तक अविश्वसनीय था।
लगभग उसी समय, अमेरिका में रहने वाले एक भारतीय यूट्यूबर अवि डांडिया सामने आए, जिन्होंने तथ्यों और तर्कों के साथ बात रखना शुरू कर दिया। नफरत के इस माहौल के खिलाफ उन्होंने अपनी 'मोहब्बत की दुकान' खोली। हालांकि वह इतने पोपुलर नहीं हुए लेकिन 40 हजार से ज़्यादा तो सब्स्क्राइबर उनके भी हैं। इसके बाद अभिषेक बनर्जी अंधभक्त के छद्म नाम से सामने आए। उन्होंने राजनीतिक और सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों का कटाक्ष-पूर्ण विश्लेषण पेश करना शुरू किया।
डॉ. मेडुसा (बेशक छद्म नाम!), एक और शानदार कंटेंट क्रिएटर और इन्फ्लुएंसर 2021 में लॉकडाउन के बाद सामने आईं। हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाएं धाराप्रवाह बोलने वाली असमिया लड़की, डॉ. मेडुसा अपनी असहमति और असंतोष को बड़ी रचनात्मकता और कुशलता से चैनलाइज़ करती हैं। उन्होंने कई प्रकार के व्यंगात्मक कार्यक्रम प्रस्तुत किये। उनमें से एक ‘दुख:दर्शन’ कार्यक्रम है जिसका ज़िक्र हमने इस लेख के शुरू में किया। इसमें वह पुराने समय के दूरदर्शन समाचार वाचकों की तरह, भावहीन चेहरे के साथ, कुछ समाचारों को व्यंगात्मक रूप से प्रस्तुत करती हैं। ‘दुख:दर्शन’ के अलावा उनके दो-एक और भी कार्यक्रम हैं जिनमें और भी अधिक रचनात्मकता होती है।
गरिमा एक अन्य प्रतिभाशाली यूट्यूबर हैं। वह कंगना रनौत, स्मृति ईरानी, निर्मला सीतारमण और न्यूज ऐंकर सुधीर चौधरी जैसे मुखर लेकिन हास्यास्पद स्वरों को निशाना बनाकर और उनकी नकल करके व्यंगात्मक वीडियो की एक श्रृंखला पेश करती हैं। रैंटिंग गोला ( असली नाम शमिता यादव) ने एक के बाद एक शॉर्ट्स और रील के माध्यम से बहुत तीख कटाक्ष करते विडिओ बनाती है। लोक गायिका नेहा सिंह राठौर, राजीव ध्यानी, भगत राम, पुष्पा जिज्जी, सलोनी गौर और कई अन्य लोगों ने भी सोशल मीडिया के माध्यम से लोगों तक अपनी बात पहुंचाई।
तारीफ की बात ये है कि द वायर, द स्क्रॉल, द न्यूजलॉन्ड्री, द प्रोब, द रिपोर्टर्स कलेक्टिव, द क्विंट, द कारवां इत्यादि, प्रेस एसोसिएशन और गिल्ड्स के साथ पंजीकृत अपने कार्यालयों के साथ संगठनों के रूप में काम करते थे, जबकि ये यूट्यूबर या सोशल मीडिया influencer अकेले योद्धा थे, जो अपने छोटे घरों, रोज़मर्रा में इस्तेमाल होने वाले कपड़ों और साधारण पृष्ठभूमि में विडिओ बना रहे थे।
लोकतंत्र को बचाने के लिए
अब हम आते हैं 2024 के लोकसभा चुनावों पर। आसन्न आम चुनावों के साथ, बड़े मीडिया घरानों द्वारा आयोजित रिपोर्ट, सर्वेक्षण, टिप्पणियाँ, सम्मेलनों और कॉनक्लेवस् ने यह बिगुल बजाना शुरू कर दिया कि मोदी सरकार और भी अधिक सीटों के साथ सत्ता में वापस आने वाली है और कोई भी विपक्षी दल या नेता मोदी के रथ को रोकने में सक्षम नहीं है। ‘अबकी बार 400 पार’ का नारा सत्तापक्ष के अलावा मुख्यधारा का मीडिया भी बहुत उत्साहपूर्वक लगा रहा था। सिविल सोसाइटी, जो देश और उसके संस्थानों और उसके सामाजिक ताने-बाने के भविष्य को लेकर बहुत चिंतित थी, में निराशा की भावना छा गई थी।
ऐसे निराशा के दौर में वैकल्पिक मीडिया अर्थात ये यूट्यूब चैनल और समाचार पोर्टल नागरिक समाज के नुमाइंदे बन गए थे। यूट्यूबर और सोशल मीडिया influencers ने साहस दिखाया और लगातार आलोचनात्मक सामग्री पेश की। ठीक है कि उनमें से किसी की भी पहुंच टेलीविजन चैनल जितनी नहीं थी, लेकिन उनके पास कुछ हज़ार से लेकर कई मिलियन तक के सब्सक्राइबर थे। वे टुकड़ों में, थोड़ा-थोड़ा करके ही सही, लेकिन जनता तक पहुंचे। उन्होंने देश भर में करोड़ों लोगों को झूठ की बयानबाजी से परे यथार्थवादी और आलोचनात्मक रूप से सोचने के लिए प्रेरित किया।
चुनावों से लगभग तीन महीने पहले, ध्रुव राठी ने एक उत्कृष्ट कार्यक्रम तैयार किया जिसका शीर्षक था: क्या भारत तानाशाही की ओर बढ़ रहा है? इस वीडियो ने तहलका मचा दिया। यह डराने वालों को भी डराने में सफल रहा। मुख्यधारा के मीडिया, भाजपा आईटी सेल और पार्टी, सभी ने अपने-अपने तरीके से इस वीडियो के प्रभाव को कम करने की कोशिश की। लेकिन इसका उल्टा असर हुआ। राठी के इस विडिओ के अलावा और कुछ अन्य नए-पुराने वीडियो को देश के कई आंतरिक हिस्सों में प्रोजेक्टर के माध्यम से प्रदर्शित किया गया। राठी मनोरंजन करने वाले नहीं थे। उनका विषय और सरोकार गंभीर था और लोग, जैसा कि हम देख सकते हैं, उनकी बात ध्यान से सुन रहे थे।
अप्रैल और मई में चुनावी रैलियों के दौरान, प्रधानमंत्री मोदी ने एक तरह से चहुँमुखी मोर्चा खोल दिया। उन्होंने मुख्यधारा के मीडिया को लगभग दो दर्जन साक्षात्कार दिए जिनमें कुछ मौकों पर बेतुकी बातें भी कहीं, जिनमें से एक में उन्होंने दावा किया कि एटनब्रो की फिल्म से पहले देश के बाहर गांधी जी को ज़्यादा लोग नहीं जानते थे। एक अन्य साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि अपनी माँ की मृत्यु के बाद उन्हें कभी कभी ऐसा लगता है कि उनकी ऊर्जा इस जैविक शरीर की नहीं है बल्कि ईश्वर प्रदत्त है। उनकी सभी बेतुकी, सांप्रदायिक और विभाजनकारी बातों को मुख्यधारा के मीडिया ने सही वक्तव्य के रूप में लिया, लेकिन वैकल्पिक मीडिया ने तथ्यों के साथ उनका मुकाबला किया और सोशल मीडिया ने उनका मजाक उड़ाया। मोबाइल स्क्रीन पर मीम्स और कार्टून की बाढ़ आ गई। वैकल्पिक मीडिया, जिसमें सभी ऑनलाइन पत्रिकाएँ, यूट्यूब चैनल और स्वतंत्र सामग्री निर्माता शामिल हैं, ने तथ्यों, विश्लेषण और व्यंगात्मक सामग्री के साथ प्रधानमंत्री मोदी की एक ऐसी छवि पेश की जो मुख्यधारा द्वारा बनाई गई छवि से बिल्कुल अलग थी।
मुख्यधारा के मीडिया ने दस वर्षों तक अपना सबसे बड़ा काम (सरकार से सवाल पूछना) बिलकुल नहीं किया और धीरे-धीरे अपनी विश्वसनीयता खो दी। उनकी घटती टीआरपी इस बात का सबूत बन गई कि वह लगातार अपनी विश्वसनीयता खो रहे हैं। वैकल्पिक मीडिया ने इस खालीपन को भर दिया। यह अंग्रेजी और हिंदी तथा अन्य सभी भारतीय भाषाओं और बोलियों के माध्यम से वहाँ भी पहुंच गया, जो मुख्यधारा के मीडिया की पहुंच से बहुत दूर थे। यहां तक कि जब सभी एग्जिट पोल ने मोदी की व्यापक जीत की भविष्यवाणी की, तब भी ये यूट्यूब चैनल और पोर्टल और influencers अपने इस आकलन पर अडिग रहे कि उनकी जीत आसान नहीं है।
उपसंहार (The last laugh)
एनडीए सहयोगियों की बदौलत, एनडीए सरकार मोदी जी के नेतृत्व में फिर से सत्ता में है लेकिन बहुत छोटे हो चुके कद के साथ! हालांकि वैकल्पिक मीडिया की यह लड़ाई जारी रहेगी – फिलहाल इस सरकार के खिलाफ और बाद में किसी भी सरकार से बेधड़क और निर्भय होकर सवाल पूछने के लिए। लेकिन कौन इनकार कर सकता है कि अब प्रधानमंत्री मोदी की छवि वैकल्पिक मीडिया के एक्स-रे से गुजर चुकी है और अब हम सच्चाई साफ-साफ देख सकते हैं। एक धूमिल हो चुकी छवि और राजनैतिक रूप से पस्त हो चुके भाजपा नेतृत्व को देखना, फिलहाल, अंग्रेज़ी के मुहावरे ‘the last laugh’ जैसा ही तो है।
(लेखक हिन्दी और उर्दू में साहित्यिक गतिविधियों के लिए जाने जाते हैं)
(डिस्क्लेमर : इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के स्वयं के हैं। रागदिल्ली.कॉम के संपादकीय मंडल का इन विचारों से कोई लेना-देना नहीं है।)