हरियाणा चुनाव परिणामों से कॉंग्रेस के लिए सबक

विद्या भूषण अरोरा | समाज-एवं-राजनीति | Oct 10, 2024 | 476

हरियाणा चुनाव परिणामों से कॉंग्रेस के लिए सबक

हरियाणा विधानसभा के चुनाव परिणाम आए दो दिन हो चुके हैं। कांग्रेस इन नतीजों से स्तब्ध है और पार्टी ने कहा है कि उनके यहाँ चुनाव परिणामों का विश्लेषण होगा हालांकि अभी तो पार्टी की सारी ऊर्जा हरियाणा में मतगणना के दौरान हुई तथाकथित धांधलियों के प्रमाण खोजने में लगी हुई है। प्रस्तुत लेख में हम चुनाव के बाद कांग्रेस में क्या परिदृश्य है, इस पर विचार कर रहे हैं।

हरियाणा विधानसभा के चुनाव परिणाम कांग्रेस के लिए पिछले कई वर्षों में सबसे बुरी खबर की तरह आए। जिन चुनाव परिणामों के बारे में, जैसा कि कुछ पत्रकारों ने निजी बातचीत का हवाला देते हुए बताया, भाजपा के नेता भी अंदर ही अंदर यह मान चुके थे कि ये कांग्रेस के पक्ष में जाने वाले हैं, वो चुनाव परिणाम कांग्रेस के लिए इतने निराशाजनक रहे कि जैसे उनके हाथ से कोई निवाला छीन कर ले गया हो। हालांकि कांग्रेस का दावा है कि वो कुछ पुख्ता सबूत चुनाव आयोग को सौंप चुकी है और आयोग ने उन्हें उचित जांच का आश्वासन दिया है लेकिन हम सब जानते हैं कि इस सबका कुछ नतीजा नहीं निकलने वाला।

कांग्रेस चुनाव क्यों हारी, इसको लेकर जो प्रत्यक्ष कारण गिनवाए जा रहे हैं, उनमें सबसे प्रमुख ये है कि कांग्रेस ने अपने पूरा दांव जाट वोटों पर लगा दिया था। इससे गैर-जाट सशंकित हो गया और वह डर गया कि यदि कांग्रेस जीती तो प्रदेश में ‘जाट-राज’ कायम हो जाएगा। दूसरे कांग्रेस को यह भी भरोसा था कि दलित वोट जो लोकसभा चुनावों में उनकी तरफ खिसक आया था, वो अभी भी उसी तरह उनके साथ रहेगा। ऐसा भी नहीं हुआ और गैर-जाट ओबीसी जातियाँ संगठित होकर भाजपा के पक्ष में खड़ी हो गईं। फिर शहरी वोटर जिसमें बड़ी संख्या पंजाबियों की भी होती है, परंपरागत तौर पर पिछले कई दशकों से वो भाजपा के साथ ही रहते हैं। तीसरे, कांग्रेस की गुटबाज़ी खुलकर सामने आ रही थी और चुनाव से हफ्तों पहले स्थानीय कांग्रेसी नेता मुख्यमंत्री पद के अपने अपने दावे ठोंक रहे थे। चौथे, टिकट वितरण में ना केवल जाटों को बल्कि जाटों में भी एक परिवार (हुड्डा) को प्राथमिकता मिलना भी पार्टी के पक्ष में नहीं गया।

पिछले कई चुनावों में भाजपा के रणनीतिकार यह सिद्ध कर चुके हैं कि हर बूथ को जोड़ने की उनकी राजनीति का अब कोई सानी नहीं है और इसलिए तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद उन्होंने चुपचाप गैर-जाट जातियों में अपनी पैठ बनाई और उन्हें अपने साथ लिया। एक ‘नैरेटिव’ यह भी चला था कि यदि हरियाणा में भाजपा हारती है तो केंद्र में प्रधानमंत्री मोदी की स्थिति कमजोर हो जाएगी। कहते हैं कि इस ‘नैरेटिव’ का लाभ भी भाजपा को मिला क्योंकि राज्य सरकार से हजार शिकायतें होने के बावजूद अभी हरियाणा के लोग प्रधानमंत्री मोदी को और कमजोर नहीं देखना चाहते होंगे, इसलिए कांग्रेस को दस साल की भाजपा सरकार से नाराजगी का जो लाभ मिलना चाहिए था, वो नहीं मिला।    

अब हम इस लेख के प्रमुख विषय पर आते हैं कि कांग्रेस को इस हार से क्या सबक लेने चाहियें। हार के कारणों को उलट कर देखेंगे तो कुछ उपाय तो अपने आप सामने आएंगे और इसलिए हम प्रत्यक्ष उपायों की चर्चा करने की बजाय ‘दूर के उपायों’ पर बात करना चाहेंगे। शायद सबसे पहला सबक तो यही होना चाहिए कि ‘अति आत्मविश्वास’ से बचना आवश्यक है। कभी भी ऐसी स्थिति मत आने दो जब आप या आपका कार्यकर्ता ये महसूस करने लगे कि बस ये चुनाव तो अब जीते ही समझो। कभी-कभी कार्यकर्ता और नेता का उत्साह-वर्द्धन करने के लिए अगर ऐसा कह भी रहें तो जैसे विज्ञापनों में ‘शर्तें लागू’ लिखा होता है, ऐसा कहने के साथ ही शर्तें भी लगा दें। अगर जीत का ऐसा कोई आभास चुनाव से दो-तीन महीने पहले ही होने लगे तो संतुष्ट होकर बैठने की बजाय ज़्यादा सजग होने की ज़रूरत माननी चाहिए।  जैसे इस बार भाजपा को पहले से ही मालूम था कि दस साल से उनकी पार्टी की सरकार है तो जनता को तरह तरह की शिकायतें होंगी और इसलिए उन्होंने चुनाव से छः महीने पहले ही इस तरफ ध्यान देना शुरू कर दिया था।

दूसरा सबक है कि अपने साथ चुनाव लड़ने या ना लड़ने के लिए साथी दलों के साथ कांग्रेस को ज़्यादा सावधानी बरतनी चाहिए। यह सही है कि कांग्रेस उनके सामने नतमस्तक नहीं होनी चाहिए लेकिन उन्हें आप अहंकारी भी नहीं लगने चाहिए। इससे कांग्रेस को ना केवल हरियाणा विधानसभा के चुनाव में नुकसान हुआ है बल्कि उसने आगे के लिए भी साथी दलों में अपनी साख खराब कर ली है। यह मानना होगा कि अखिलेश यादव ने लोकसभा चुनावों के दौरान कांग्रेस (और राहुल गांधी) के साथ काफी उदारता बरती थी लेकिन हरियाणा विधानसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी के लिए कांग्रेस के क्षत्रप दो-तीन सीटें देने को भी तैयार नहीं हुए जबकि राज्य की कई सीटों पर यादव वोट काफी संख्या में हैं। और ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। कांग्रेस कई बार इस तरह के अहंकार का प्रदर्शन कर चुकी है।

यह बात मानने की है कि विरोधी दलों में कांग्रेस सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी है और उसकी मौजूदगी देश के हर कोने में है। लेकिन फिर आज की परिस्थिति में इस सच्चाई से भी आँखें नहीं मूँदी जा सकती कि देश के ज़्यादातर हिस्सों में कांग्रेस अब सहयोगी दलों के बिना भाजपा या अपने सामने खड़े किसी भी दल को अकेले चुनौती देने की स्थिति में नहीं है। हाँ, अगर कांग्रेस ये मूड बना रही है कि अब चाहे उसे बीस-तीस बरस लगें लेकिन उसे अपने बूते ही चुनाव लड़ना है तो बात दूसरी है।

एक सबक यह है कि चुनाव की तैयारी हमेशा जारी रहनी चाहिए। यह सही है कि पार्टी के पास ऐसे संसाधन भी नहीं होंगे कि कार्यकर्ताओं को हर समय फील्ड में उतार कर सके किन्तु पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व को और राज्य स्तर के नेताओं को हमेशा ही गतिशील रहना होगा। सिर्फ राहुल गांधी की भारत जोड़ों यात्रा ही नहीं बल्कि उसके कई संस्करण तैयार होने चाहियें जिनमें राज्यों के कांग्रेसी नेता अपने क्षेत्रों में तो यात्राएं करें ही बल्कि अपने नए प्रभाव क्षेत्र भी ढूंढें। कांग्रेस को फालतू किस्म के नेताओं से मुक्ति पाने के उपाय खोजने होंगे।  

अगर हम इसी तरह ‘दूर के उपायों’ पर चर्चा करते रहे तो हरियाणा चुनावों से कहीं दूर निकल जाएंगे इसलिए इस लेख को यहीं विराम देते हैं और इस विषय को अगले किसी लेख के लिए छोड़ते हैं।

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विद्या भूषण अरोड़ा

लेखक का एक पाँच वर्ष पुराना लेख "कांग्रेस का ज़िंदा रहना क्यों जरूरी है" आप यहाँ पढ़ सकते हैं - कांग्रेस का ज़िंदा रहना क्यों ज़रूरी है (raagdelhi.com) 



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