जल योद्धा लक्ष्मण सिंह जी से एक मुलाक़ात
अपनी हाल ही की जयपुर यात्रा के दौरान मेरी मुलाक़ात हुई पर्यावरणविद और जलयोद्धा लक्ष्मण सिंह जी से जो जयपुर से करीब 80 किमी की दूरी पर स्थित लापोड़िया गाँव से हैं। जल संरक्षण के अपने मौलिक तरीकों से इस रेगिस्तानी इलाके में जहां वर्षा का वार्षिक औसत पिछले कुछ वर्षों में 300 मिमी रहा है, लक्ष्मण सिंह जी ने ना सिर्फ अपने गाँव को बल्कि आस-पास के 80 और गांवों का भी कायाकल्प कर दिया है। लापोड़िया का अनुकरण अब सैंकड़ों गाँव में हो रहा है।
उनके काम के बारे में आप गूगल सर्च करेंगे तो काफी कुछ मिल जाएगा – इसलिए इस आलेख को उनके साथ हुई इस छोटी सी लेकिन मुलाक़ात पर ही केन्द्रित करता हूँ।
दरअसल अभी मुझे अपने विस्तृत परिवार में एक विवाह-समारोह में शामिल होने के लिए जयपुर जाने का निमंत्रण आया तो मैंने लापोड़िया जाने का भी मन बनाते हुए जयपुर जाना तय किया। लापोड़िया के लिए अपने और लक्ष्मण सिंह जी के सांझे मित्र राकेश भट्ट से सम्पर्क किया तो उन्होंने जवाब में बताया कि वहाँ जाना नहीं हो पाएगा क्योंकि लक्ष्मण सिंह जी तो स्वयं किसी पारिवारिक कार्य से जयपुर आए हुए हैं। थोड़ी निराशा तो हुई किन्तु अब जयपुर जाना तो तय कर ही लिया था। अब राकेश भी थे।
लेकिन जयपुर पहुँचने के कुछ ही घंटों के भीतर ये निराशा उस समय खुशी में बदल गई जब राकेश जी को लक्ष्मण सिंह जी का फोन आया कि आप लापोड़िया नहीं भी जा पा रहे तो क्या, हमारी मुलाक़ात तो जयपुर में भी हो सकती है ना! अरे वाह, हमें और क्या चाहिए था!
तय हुआ कि वही अपनी पत्नी के साथ हमारे होटल में तशरीफ ले आएंगे और फिर आगे का कार्यक्रम तय हो जाएगा। निश्चित समय के दस मिनट पहले ही होटल के रिसेप्शन से फोन आता है कि आपके मेहमान आ गए! राकेश नीचे जाते हैं उन्हें ऊपर लाने के लिए!
कुछ ही देर में सौम्य मुस्कान के साथ लक्ष्मण सिंह जी का अपनी पत्नी के साथ प्रवेश होता है। परिचय की औपचारिकताओं के समाप्त होते ही साथ-साथ ही पूरा वातावरण सहज होने लगता है। राकेश ने अपने लापोड़िया दौरे को याद करते हुए बातचीत शुरू की और पता ही नहीं चला कि लक्ष्मण सिंह जी बहुत सहज भाव से अपने उन कार्यों के बारे में बताने लगे जिनकी दुनिया भर के पर्यावरणविदों में भूरि-भूरि प्रशंसा होती है और जिन्हें वो लोग अद्वितीय उपलब्धियों के रूप में देखते हैं। हमने उनकी विनम्रता इस रूप में भी देखी कि वह अपनी बातचीत में गांधी शांति प्रतिष्ठान से जुड़े स्वर्गीय अनुपम मिश्र जी का बीच बीच में बहुत आदरपूर्वक ज़िक्र करते रहे कि कैसे उन्होने अनुपम जी से इतना कुछ सीखा।
चर्चा इस पर चल निकली कि कैसे हम सब, जीव-जन्तुओं सहित, इस प्रकृति के अभिन्न अंग हैं और कैसे ये हम सबका दायित्व है कि हम अपने साथ-साथ अपने साथ रहने वाले जल-स्रोतों, पेड़-पौधों और सभी जीव-जन्तुओं का भी पूरी संवेदनशीलता से ध्यान रखें।
यहीं पर लक्ष्मण सिंह जी ने एक ऐसी घटना सुनाई जिसे हम यहाँ शेयर करना चाहते हैं। जैसा कि हमें मालूम भी था और उन्होंने भी बताया कि उनके क्षेत्र में किसी भी वन्य-जीव का शिकार प्रतिबंधित है। कुछ समय पहले पड़ोस के किसी गाँव के व्यक्ति ने एक खरगोश को मार दिया और संयोग से वह गाँव वालों की नज़र में भी आ गया।
जैसा कि ऐसे मामलों में साधारणतः होता है, गाँव के युवाओं ने तय किया कि इस व्यक्ति की अच्छी मरम्मत की जानी चाहिए, फिर चाहे उसका जो हाल हो। लेकिन अगर वहाँ ऐसा हो जाता तो फिर लापोड़िया की विशिष्टता ही क्या होती?
मामला गाँव के बुज़ुर्गों के साथ-साथ लक्ष्मण सिंह जी को भी पता चला। लक्ष्मण सिंह जी ने दोषी को सबक सिखाने के लिए पीटने को तत्पर युवकों को समझाया कि उस व्यक्ति ने तो हिंसा की और हम कह रहे हैं कि उसने गलती की। फिर हम जो उसके साथ हिंसा करेंगे तो हम भी तो दोषी होंगे और सज़ा के भागीदार होंगे ना? यदि हम अपने को सज़ा नहीं दिलाना चाहते तो साफ है कि हमें हिंसा नहीं करनी।
फिर दोषी के साथ क्या हो? वह भी फैसला हुआ। दोषी के गाँव से बुज़ुर्गों के साथ बहुत सारे लोग आए। लापोड़िया के भी बहुत सारे लोग जमा हो गए। करीब पाँच सौ लोग जमा हुए और मृत खरगोश को लेकर ये लोग मृत जानवरों को दफनाने के निश्चित स्थान पर ले गए जहां खरगोश को दफनाया गया। उसको मारने के दोषी व्यक्ति ने सार्वजनिक रूप से अपने कसूर के लिए माफी मांगी और वहाँ उपस्थित सभी लोगों ने फिर से यह शपथ ली कि वह प्रकृति के किसी भी उपादान को, चाहे जीव-जन्तु हों या पेड़-पौधे और या कोई जल-स्रोत, कभी भी नुकसान नहीं पहुंचाएंगे और यदि कोई ऐसा करता है तो वह उसका अहिंसक ढंग से प्रतिरोध करेंगे।
इसके बाद वहाँ उपस्थित सभाजनों ने ये तय किया कि इस खरगोश की स्मृति में यहाँ एक चबूतरा बना दिया जाये जो एक स्मारक जैसा होगा ताकि आने वाली पीढ़ियों को भी इस बात का भान हो कि हमें अपने वन्य-जीवों की भी अपने घर के लोगों जैसी देखभाल करनी है।
हम लोगों को लगा कि अभी चल कर लापोड़िया जाकर खरगोश महाशय का ये स्मारक देखना चाहिए लेकिन फिर इस निश्चय के साथ कि जल्दी ही लापोड़िया का अलग से कार्यक्रम बनाया जाएगा, हम वहाँ की पशु-सम्पदा के बारे में और बातें करने लगे।
बातचीत यहाँ पहुँचने पर लक्ष्मण सिंह जी की पत्नी ने हिस्सेदारी शुरू की और सबसे पहले ये बात कही कि हम जानवरों को जितना प्यार देते हैं, वो हमें उससे कई गुना ज़्यादा प्यार लौटाते हैं। लक्ष्मण सिंह जी ने जब यहाँ कहा कि हाँ, सभी गऊएँ इनकी प्रतीक्षा करती हैं तो उनकी पत्नी ने तुरंत हस्तक्षेप करते हुए कहा कि क्यूँ, सिर्फ गऊएँ ही क्यूँ, हमारी एक भैंस है जो मुझे बहुत ही प्यार करती है और वह तो मेरी अनुपस्थिति में दूध भी नहीं देती। “अब मैं लौटकर जब उसके पास जाऊंगी तो वह मुझसे खूब सारी बातें करेगी”। उन्होंने अपनी भैंस के साथ अपने इस प्यारे रिश्ते को जिस तरह बताया हम लोग अभिभूत हो गए।
इसके बाद हम लोग खाने के लिए बाहर चले गए और खाने पर भी मज़ेदार बातें हुईं जिन्हें फिर कभी के लिए रखते हैं। अभी तो इतना कह कर अपनी बात समाप्त करते हैं कि एक ऐसे व्यक्ति से जिसे कई अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने सम्मानित किया हो और जल-संरक्षण के लिए जिनके काम की पहचान दुनिया भर में हों, ऐसे व्यक्ति से इतने सादगी भरे माहौल में मिलना हमारे लिए यादगार अनुभव था।
...विद्या भूषण अरोरा