कोलकता की शर्म : एक और बर्बरता व अनेक सवाल
एक बार फिर उच्चतम न्यायालय ने समाज के ‘कॉनशियान्स-कीपर’ की भूमिका निभाई - कोलकाता में 9 अगस्त की रात एक प्रतिष्ठित सरकारी अस्पताल में एक डॉक्टर के साथ बलात्कार की बर्बर घटना और इसके बाद उभरे राष्ट्रव्यापी क्षोभ का 20 अगस्त को स्वतः संज्ञान लिया और पश्चिम बंगाल की सरकार के आकाओं और अमले को फटकारते हुए अनेक निर्देश दिए। इनमें डॉक्टरों की सुरक्षा का प्रोटोकॉल तैयार करने के लिए टास्क फोर्स बनाने, केंद्र, राज्य और केंद्र-शासित क्षेत्रों की सरकारों द्वारा अस्पतालों के सुरक्षा प्रबंधों का ब्यौरा दिए जाने और सीबीआई से अगले दो दिनों में स्टेटस रिपोर्ट दाखिल करने के निर्देश शामिल थे।
अभी यह खबर हवा में तैर ही रही थी कि अखबारों और दूसरे मीडिया में इसके ऐन नीचे या आगे-पीछे महाराष्ट्र, उत्तराखंड और दूसरे इलाकों में ऐसे ही जंगली आचरण की अनेक खबरें सुशोभित (!) नज़र आईं। इनके विवरण और इन्हें पढ़ना भी अब हमारी सामूहिक असंवेदनशीलता और आत्म-धिक्कार के प्रतीक लगते हैं, इसलिए इस लेख में इस विवरण में जाने का इरादा नहीं है।
लेकिन इनसे जुड़े सैकड़ों सवाल हो सकते हैं। उन्हें पूछा जाना चाहिए और वे सवाल हमें चुभने चाहिए, उनके जवाबों से उपजी बेचैनी से सामूहिक रूप से हमारी नींद बार-बार उचटनी चाहिए। तभी राष्ट्र और समाज के रूप में हम टिक सकेंगे। तो कुछ तो सवाल करें।
पहला सवाल तो यही है कि आखिर हर बार सुप्रीम कोर्ट को ही ढीठ कार्यपालिका को काम करने के तरीके क्यों बताने पड़ते हैं। एक तरह से तो यह स्वतन्त्रता के तुरंत बाद के हमारे बेजोड़ नेतृत्व की सराहना का मौका है कि अज्ञान, अशिक्षा, गरीबी, देश-विभाजन की विभीषिका और राष्ट्र-राज्य की धारणा से वंचित आबादी के बीच उन्होंने ऐसा संविधान, लोकतन्त्र के चारों स्तंभों को ऐसी मजबूती, संस्थाओं को ऐसी परिपक्वता प्रदान की कि आज भी हमारी सर्वोच्च न्यायपालिका सत्ताओं को उनके कुकर्मों और धूर्तताओं के लिए फटकार सकती है। आज भी उच्चतम न्यायालय देश के आम जन का रक्षक और राष्ट्र का ‘कॉनशियान्स-कीपर’ (conscience-keeper) बन जाता है। हमारी अदालतें, हमारी संस्थाएं, हमारी जनता का विवेक और पहरेदारी हर बार हमें ऐसे खूनखराबों, तानाशाहियों और ‘बैनाना रिपब्लिक’ बनने से बचा लेती हैं जो दुनिया के अनेक विकासशील देशों में हुए हैं।
लेकिन इससे जुड़ा सवाल यह है कि ऐसी नौबत ही क्यों आती है कि कार्यपालिका, इतनी संवेदनहीन हो जाए, विधायिका इतने खेमों में बँट जाए कि न्यायपालिका को हर बार दखल दे कर निर्लज्ज-खुदगर्ज राजनीति और ब्यूरोक्रेसी को झकझोरना-फटकारना पड़े?
सुप्रीम कोर्ट ने सभी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स से पीड़िता की पहचान हटाने के भी निर्देश दिए हैं। यहाँ इस घटना से जुड़े कई वीभत्स प्रसंगों और मीडिया से जुड़े सवाल उठते हैं। पहले तो, इस घटना के बाद पीड़िता के परिवार को गलत जानकारियाँ दे कर भटकाने, पूरी अव्यवस्था के शिखर पर बैठे अस्पताल के जिम्मेदार अधिकारी द्वारा पीड़िता की पहचान उजागर करने, उस अधिकारी को बचाने/ चोर दरवाजे से पुरस्कृत करने, राजनैतिक कबीले की उद्दंड भीड़ से हमला करवाकर सबूत मिटाने की अनेक असंवेदनशीलताएँ हुई। उन ब्यौरों में जाना सुरुचिपूर्ण नहीं है। यहाँ सवाल यह है कि राजनीति और नौकरशाही का हमारा तंत्र स्वार्थों और लूट-खसोट में इतना असंवेदनशील और निर्लज्ज हो जाएगा तो क्या हमारा समाज टिक पाएगा?
इसी तरह एक सवाल मीडिया की भूमिका को लेकर बनता है जो इस पूरे प्रकरण में सर्वव्यापी असंवेदनशीलता का चेहरा बन गया है। जाने-अनजाने (by omission and/or commission) मीडिया का एक बड़ा हिस्सा जिस तरह से इन घटनाओं को पेश करता है, वह प्रोफेशनल निरक्षरता, घटिया भावनाओं को लुब्ध करने के धंधे और भावशून्यता का भयावह उदाहरण हैं। चैनलों, अखबारों, खास तौर से भारतीय भाषाओं के मीडिया में आजकल अच्छा-खासा हिस्सा स्त्रियों के खिलाफ अपराधों की खबरों का होता है। बचाव में कहा जा सकता है कि खबरों को होने से हम नहीं रोक सकते लेकिन जिस विस्तार, शब्दावली, निजता के प्रति कतई बेपरवाह तरीकों से, बल्कि सीधे-सीधे ‘चटकारे लेते हुए’ इन खबरों की प्रस्तुति होती है; उससे ये सवाल उठते हैं कि क्या दूसरे पेशों की तरह, पत्रकारिता की भी गंभीर पढ़ाई होती है, क्या उसमें निजता, कानून, सौम्यता, आचरण (एथिक्स) से जुड़ी बातें पढ़ाई जाती हैं या फिर बंदरों के हाथों में उस्तरे पकड़ा दिए गए हैं। इन खबरों की प्रस्तुति से जुड़े ये सवाल, समाज में उग्र-असभ्य पितृसत्ता को सहलाने से भी जुड़ जाते हैं जिसका सजग विश्लेषण अनेक लेखों का विषय हो सकता है।
एक अन्य सवाल अपराध और जघन्य अपराधियों को विभिन्न राजनैतिक दलों द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से, या फिर खुले आम निर्लज्जता से प्रश्रय देने, सत्ता की शह पर पुलिस और अन्य अमले द्वारा दंड- प्रक्रिया में ढिलाई, पीड़ितों को डराने, अपमानित-हतोत्साहित करने – यहाँ तक कि जान-माल का नुकसान पंहुचाने की बढ़ती प्रवृत्तियों का भी है। पूरे समाज को सत्ता, अपराध और कदाचार के इन गिरोहों के खिलाफ जागृत होना होगा, अन्यथा यह वायरस हमारे पूरे तंत्र में फैल जाएगा।
इससे जुड़ी बड़ी चिंता हमारे पूरे समाज के विभिन्न् धड़ों की सोच का अपने-अपने किवाड़ जड़े बंद कमरों में -अपने-अपने ‘घेटो’ या ‘बबल्स’ में कैद हो जाने का है। हमारे पास गंभीर विचार नहीं, ‘सेलेबल पैकेज’ हैं। उनके फैलाये प्रदूषण से हमारी सामूहिक सोच तटस्थ और विवेकशील हो कर समग्र देश-समाज का हित देखने की नहीं, बल्कि संकरी 'हम और दूसरों' की ‘बायनरीज’ में बंट गई है। किसी भी घटना पर हम, दूसरे ‘घेटो’ की गलती का किस्सा खोल कर, आस्तीन समेटे ‘युद्धम देहि’ की मुद्रा में आ जाते हैं – ‘जब तुम्हारे नेता/ खैरख़्वाह/ गुर्गे ने किया था, तब क्यों नहीं बोले।‘ हमारे लिए अब बुराई और अपराध ‘दूसरे’ जाति/धर्म/ प्रदेश वाले की बुराई के चश्मे से देखी जाने लगी है।
इस ‘वॉटअबाउटरी’ (whataboutery) में समाज बुरे और बुराई का प्रतिकार नहीं कर रहा है, बुराई के खिलाफ सदभाव खड़ा नहीं हो रहा है; बल्कि बुरे और बुराई को अलग-अलग खेमों-कबीलों का प्रश्रय मिल रहा है, हर नई घटना के साथ लगातार सामाजिक वैमनस्य बढ़ रहा है। राजनैतिक आका और उनके सहयोगी निहित स्वार्थों वाले समूहों ने हमारे चारों तरफ भिन्न धर्म, जाति, प्रदेश, विचार वाले काल्पनिक ‘दूसरों-परायों’ की भयावह सेना खड़ी कर दी है और हमें लगातार बताया जाता है कि जब तक ये ‘दुश्मन’ षड्यंत्र करते रहेंगे, आगे ज्यादा बुरा होगा। हमारा समाज विषबीजों के नाश की बजाय, अपने-अपने विषबीजों को खाद-पानी दे रहा है। यह समग्र देश-समाज के लिए भले संकेत नहीं हैं।
और अंत में, ईसाई धर्म में ‘सेवन डैडली सिन्स’ का जिक्र है जिनमें सबसे बड़ा पाप ‘हताशा (डिस्पेयर)' को बताया गया है। हमारे चारों तरफ गंभीर अध्ययन-विश्लेषण की कमी, मीडिया के छिछोरेपन, राजनैतिक विषाक्तता, हमारे खुद के खेमों में बंट जाने, सोशल मीडिया से पैदा हुई आत्म-मुग्धता और क्षुद्र आत्म-प्रचार की ललक – इन सब ने हमें बहुत पस्त कर दिया है। नतीजा यह होता है कि जब भी ऐसी झकझोरने वाली घटनाएँ होती हैं, हम एक तरह की उदासीन नकारात्मकता ( सिनिसिज़्म) में घिर जाते हैं। हमारा क्षोभ बढ़ता है लेकिन वह हमें एक सामाजिक, सामूहिक, सात्विक आक्रोश की ओर नहीं ले जाता। समग्र समाज के सौहार्द्र और ‘एंपैथी’ से वंचित हम अकेले पड़ गए हैं और मान लेते हैं कि इन दुर्घटनाओं-त्रासदियों का कोई समाधान नहीं होगा। हमारी प्रतिक्रिया स्वस्थ, सौम्य, गंभीर संवाद और कर्म की नहीं, ‘दूसरों’ के लिए बीमार व्यंग, तानों-जुमलों, नफरत और उग्रता की होती जा रही है। विकासशील, समग्र समाज के लिए यह खतरनाक बीमारी है।
बेशक अंधेरा घना है, लेकिन घने अंधेरे के बाद ही सुबह होती है। तब तक एका रखिए, सवालों की मशाल जलाए रखिए। जवाबों से राह निकलेगी और सुबह होगी।
(लंबे समय तक सम्पादन और जन-संचार से जुड़े रहे राजेन्द्र भट्ट अब स्वतंत्र लेखन करते हैं। वह नियमित रूप से रागदिल्ली.कॉम में लिखते रहे हैं।)
(डिस्क्लेमर : इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के स्वयं के हैं। रागदिल्ली.कॉम के संपादकीय मंडल का इन विचारों से कोई लेना-देना नहीं है।)