अमर आत्मा ही है शरीर का अनंत स्वप्न...
“मान लिया कि शरीर मरणशील है, किन्तु आत्मा का क्या करे जो अमर और अविनाशी कही जाती है”‒ संपादक महोदय की इस टिपण्णी ने मेरे विचारों की शृंखला के प्रवाह को अचानक एक नया मोड़ दे दिया दिया...
किसी आकस्मिक घटना में हाथ गंवाने वाला व्यक्ति उसी हाथ से चाय पीने की कोशिश करता है, युद्ध में पैर खोने वाला सिपाही उसी पैर में दर्द की शिकायत करता है, किसी प्रिय की मृत्यु होने के बाद भी उसकी वास्तविक उपस्थिति का एहसास होना और उससे बातें करना इत्यादि‒ इस तरह के कितने ही दृष्टान्तों में देखा जाता है कि व्यक्ति बिना अंग के ही उसका कार्य संपन्न करना चाहता है. आखिर देह के साथ मन का कोई तालमेल क्यों नहीं होता है?
साधारणतया मनुष्य को शरीर और मन की एक सम्मिलित इकाई कहा जाता है, जिसे हम ‘राम, श्याम, यदु, मधु आदि’ किसी भी नाम से पुकार सकते हैं. पर यह स्पष्ट नहीं है कि क्या मन और शरीर दो अलग-अलग सत्ताएं हैं,अथवा ये परस्पर कार्य-कारणरूप से बंधी रहती हैं?उदाहरण के लिए यदि शरीर अस्वस्थ होता है तो मन भी अस्वस्थ हो जाता है, और शरीर के स्वस्थ होने पर मन भी स्वस्थ और चंगा हो उठता है.यदि किसी व्यक्ति को क्रोध आता है, तो उसका मन अस्थिर हो जाता है, मन अस्थिर होने से उसका पूरा शरीर बेकाबू हो जाता है.स्वाभाविक रूप से वही प्रश्न पुनः उठता है कि देह और मन का आपस में क्या सम्बन्ध है?
भारतीय दर्शन के परिप्रेक्ष्य में देखे तो माना गया है कि मनुष्य-शरीर अत्यंत दुर्लभ है,जो ८४ लाख योनियों के पश्चात प्राप्त होता है. मृत्यु के समय सिर्फ पार्थिव शरीर रह जाता है, जिसका महत्व प्रियजन के लिए भी नहीं रह जाता है.इसलिए जब तक शरीर है, हम उसे सत्य मानकर उसके मोह में फंसे रहते हैं,और भौतिक सुखों के पीछे भागते रहते हैं. प्राणी शरीर पञ्च भूत तत्त्वों‒ पृथ्वी, जल, पावक, गगन, वायु ― से बना है.जब तक पञ्च तत्त्वों में संतुलन बना रहता है, तब तक शरीर की सभी जैविक क्रियाएं अनुकूल रूप से कार्य करती रहती हैं,पर जैसे ही इनमें असंतुलन उत्पन्न होता है, शरीर पञ्च तत्त्वों में विलीन हो जाता है।
दूसरी ओर मन या आत्मा का अर्थ है चेतन सत्ता.ऐसा कहा जाता है कि मृत्यु के पश्चात् भी इसका विनाश नहीं होता है.इसलिए संन्यासी शरीर को नाशवान और गौण मानकर आत्मा की आराधना में लीन तथा सभी प्रलोभनों से दूर रहते हैं (मैं आदर्श संन्यासी की बात कर रही हूँ).यहाँ यह बात ध्यान रखने की है कि पाश्चात्य दर्शन में मन और आत्मा एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं, जबकि भारतीय दर्शन में मन को अंतरिन्द्रिय का दर्ज़ा दिया गया है, अर्थात पञ्च इन्द्रियों के स्थान पर षष्ठ इन्द्रिय कहना बेहतर होगा, जबकि आत्मा एक पृथक सत्ता मानी जाती है।
शरीर की सामान्यतया तीन अवस्थाएं कही जाती है― स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण शरीर. स्थूल शरीर जो क्रमशः पञ्च ज्ञानेन्द्रियों, पञ्च कर्मेन्द्रियाँ, चार अन्तःकरण वृत्तियों ‒ मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार‒का समुदाय होता है. पञ्च इन्द्रियाँ ―यथाक्रम से घ्राण →गंध, रसना → स्वाद, चक्षु →रूप, त्वक् →स्पर्श और श्रोत्र →शब्द के द्वारा बाह्य जगत को अपना विषय बनाती है, जबकि मन अंतरिन्द्रिय होने के कारण सुख-दुःख, विचार, स्मृति और कल्पनादि को अपना विषय बनाता है. पाँच कर्मेन्द्रियों का प्रयोग हमें बाहरी जगत में क्रियाशील बनाता है, वातावरण से संवाद साधने में मदद करता हैं. ये पंच कर्मेन्द्रियां हैं‒ वाक् ‒हमें अपने विचार और भावनाओं को शब्दों के माध्यम से प्रकट करने की क्षमता प्रदान करती है. पाणि‒हमें वस्तुएं पकड़ने, वस्त्र पहनने, लिखने और अन्य बाहरी कार्यों में सहायक होती हैं. पाद‒ एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने में सहायक होते हैं. पायु‒हमें शरीर के अनावश्यक पदार्थों को बाहर निकालने में सहायक होते हैं. उपस्थ हमें प्रजनन की क्षमता प्रदान करते हैं. स्थूल शरीर जो एक बाहरी आवरण है अन्नमय कोष कहलाता है, जिसे हम देख सकते हैं, छू सकते हैं,शल्य चिकित्सा कर सकते है इत्यादि. स्थूल शरीर के माध्यम से ही संसार के भोगों का अनुभव जीवात्मा करती है।
सूक्ष्म शरीर अपञ्चीकृत किन्तु अन्न के द्वारा निर्मित व पोषित होता है. स्वप्नावस्था सूक्ष्म शरीर की एक विशिष्ट अवस्था है, जो जाग्रत अवस्था में किए गए कर्मों की स्मृतियाँ अन्तःकरण वृत्तियों के द्वारा नाना रूपों में उपस्थित करता है. सूक्ष्म शरीर को प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय कोष का आगार कहा जाता है. कारण शरीर वह बीज है या मूल वृत्ति है, जहाँ से सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर का निर्माण होता है. इनकी तुलना मनुष्य की जाग्रत, स्वप्नऔर सुषुप्ति अवस्था से की जाती है. जाग्रत अवस्था मे मनुष्य कर्ता भी है और भोक्ता भी है.स्वप्नावस्था में मनुष्य केवल भोक्ता है, वह करता कुछ नहीं है. सुषुप्ति अवस्था में मनुष्य न कर्ता होता है न भोक्ता होता है, फिर भी असीम सुख की अनुभूति उसे होती है.जैसे गाढ़ी नींद से उठने के बाद हम कहते हैं कि‘बहुत गहरी नींद सोया कि इतने शोर-शराबे का मुझे कुछ अंदाज ही नहीं लगा’.कारण शरीर को इसलिए आनंदमय कोष कहा जाता है. इन तीनो शरीरों का आपस में सम्बन्ध कुछ इस प्रकार से समझा जा सकता है‒
जो कपड़ा हम शरीर पर धारण करते हैं, उसका कारण है धागे और धागे का कारण है रूई.कॉटन-कुर्ता, धागा और रूई, क्रमशः स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर का प्रतिनिधित्व करते हैं. जो आपसी संबंध कुर्ता, धागे और रूई के बीच होता है, वही संबंध इन तीनों शरीरों में होता है. कारण शरीर के बिना सूक्ष्म शरीर नहीं बनेगा. सूक्ष्म शरीर के बिना स्थूल शरीर नहीं बनेगा।
इसके अलावा एक चौथी अवस्था (तुरीयावस्था) भी है जो एक नित्य आत्मिक अनुभूति का आनंद देती है,शास्त्रों में जिसे ‘अवाङ्गमन सगोचर’ की संज्ञा दी गई है. जिस तरह मीठे का स्वाद मीठा खाने वाला ही जानता है, उसे शब्दों में बयान करना नामुमकिन होता है, उसी तरह इस आत्मिक आनंद का बोध एकमात्र साधक ही कर सकता है. जब तब इसका क्षणिक आभास सृजनशील व्यक्तियों को भी होता है, जहाँ पूर्ण मनोयोग से आनन्द एकीभूत हो जाता है, किसी गायन, किसी चित्रकला अथवा अन्य किसी भी प्रकार की सृष्टिशील कला के माध्यम से.यद्यपि आत्मा का अस्तित्व शरीर से पृथक माना गया है, तथापि बिना देह के आत्मा का स्थायित्व संशयहीन नहीं रह पाता है।
यदि हम आत्मा के सम्बन्ध में जानना चाहते है तो विश्व जगत की सभी वस्तुओं को दो भागों में बाँट कर विचार करना चाहिए ‒ द्रष्टा यानि विषयी तथा दृश्य यानि विषय. विश्व अनन्त वस्तुओं का भण्डार है, जैसे चट्टान,तारे, नदी, पहाड़ और गाड़ी, सिगरेट आदि सभी विषयों को हम देखते है, पर देखने वाला द्रष्टा एक चेतन सत्ता है, जो सिर्फ देख सकता है, स्वयं दृश्य नहीं बन सकता है. जिस तरह हम अपनी आँखों को अपनी ही आँखों से कभी नहीं देख सकते हैं, क्योंकि जो द्रष्टा है वह दृश्य या विषय कैसे बन सकता है? दृश्य बनते ही उसे देखने वाला एक और द्रष्टा प्रकट हो जाता है. भविष्य में इस प्रसंग पर हम पुनः वापस आयेंगे।
फ़िलहाल जिस चेतन सत्ता या आत्मा की बात हम कर रहे है, उसका व्यावहारिक संबोधन ‘मै’ प्रत्यय के द्वारा होता है. ‘मैं’ की सत्ता का निर्माण समाज और आसपास के वातावरण से तैयार होता है, जिनसे हमने अपना तादात्म्य स्थापित कर रखा है. ‘मैं गोरा हूँ, मैं शिक्षक हूँ, मैं अमुक वंश में जन्मा हूँ, मैं अमुक नाम से जाना जाता हूँ, मैं भारतीय हूँ ’ इत्यादि, मेरे अस्तित्व को समृद्ध और पुष्ट करते हैं. मैं अभी इसी व्यवहारिक आत्मा की बात करना चाहती हूँ, जिसे अभिव्यक्ति के लिए शरीर की आवश्यकता पड़ती है. जैसे कम्प्यूटर सिस्टम में किसी भी प्रोग्राम को चलाने के लिए सॉफ़्टवेयर एवं डिवाइस के रूप में हार्डवेयर की ज़रूरत होती है, वैसे ही शरीर को चलाने के लिए जिस चालिका शक्ति की आवश्यकता होती है, उसे चेतन आत्मा कहते हैं।
हालाँकि, शरीर और मन के बीच कोई बातचीत नहीं होती है, क्योंकि देह जड़ है और आत्मा चेतन है, तथापि इनकी ट्यूनिंग ऐसी होती है कि शरीर के किसी भी अंग पर चोट लगने के बाद 'ओह-आउच' मुंह से निकल जाता है. इनकी बारीक-ट्यूनिंग सितार के तारों की तरह होती है. ट्यूनिंग यदि सटीक हो, तो किसी एक तार को छूने पर उस पिच पर बंधे सभी तार बिना स्पर्श किये ही झनझनाने लगते है. इसलिए यह पूछना ज़रूरी नहीं है कि ‘सितार के सुर’ कहाँ है, क्योंकि वह तो सितार में ही है, लेकिन सुर का आरोपण किसने किया? उस चेतन सत्ता ने जो शरीर में ही उपलब्ध होती है।
रात भर गहरी नींद में सोने के पश्चात् भी हमें सुबह उठ कर याद रहता है कि ‘कल क्या हुआ था, कल मैं कहाँ गया था, कल मैंने क्या खाया था’ इत्यादि.यदि यह सारी स्मृतियाँ लुप्त हो जाएँ तो दुर्भाग्यवश Dementia के मरीजों की तरह मै किसी को भी पहचान नहीं पाउँगी, क्योंकि अस्तित्व को परिभाषित करने वाली क्रिया मननशीलता को मैं खो चुकी हूँ. पर मुझे देखने वाले अन्य दूसरे लोग मुझे सहज ही पहचान लेंगे. प्रश्न घूम कर पुनः एक ही जगह खड़ा हो जाता है कि हम क्या है? शरीर या आत्मा?
एक निश्चित अर्थ में, आत्मा एक दर्पण की तरह काम करती है, जो दर्शाती है कि ‘मैं लिखने की कोशिश कर रही हूँ, मैं दोपहर के भोजन के लिए चिंता कर रही हूँ, मुझे बाज़ार से क्या क्या लाना है’ इत्यादि. न्यूरोसाइंटिस्ट कोशिकाओं की कार्यात्मक लहरों को ग्राफ के माध्यम से दिखा तो देते है कि मेरे मस्तिष्क में लाल रंग की प्रतिक्रिया कैसी हो सकती है. परन्तु एक जन्मांध व्यक्ति के लिए ‘लाल रंग को महसूसना’ संभव नहीं हो सकता. जैसे चिकित्सक रोगी के दर्द को जान तो सकता है, पर उसे महसूस नहीं कर सकता है. अतः जो यह मानते हैं कि मानसिक घटनाएँ मस्तिष्क की प्रक्रियाओं का एक साइड इफ़ेक्ट मात्र हैं, उनके विचार बहुत सतही होते हैं. अभिनेता, कवि, लेखक पर काया प्रवेश कर के पात्रों का चित्रण हूबहू कर सकते हैं, उनकी अनुभूति को एकात्म भी कर लेते हैं, पर कहीं एक द्रष्टा भाव उनके अन्दर भी बना रहता है।
दार्शनिक दृष्टिकोण से शरीर और आत्मा के इस द्वैतवाद को आज भी एक समस्या के रूप में देखा जाता है.एक ओर संत कबीर साहब समझाते हैं “देह धरे का दंड है, जो पाए सो रोए”, दूसरी ओर शंकराचार्य कहते हैं कि मनुष्य देह मिलना एक दुर्लभ संयोग है, जो हमें सत्संगति का अवसर प्रदान करता है. ‘शरीर यदि न रहता तो मोक्ष की इच्छा नहीं जागती, शरीर यदि रहता तो मोक्ष नहीं मिल सकता है’‒ यह विरोधाभास ही शायद देह और आत्मा के मिलन का रास्ता प्रशस्त कर सकता है।
आध्यात्मिक जीवन के लिए समर्पित बंगाल का बाउल सम्प्रदाय अपने गीतों में शरीर की सर्वोच्च शक्ति और दिव्यता का उल्लेख करते हैं. आध्यात्मिक पिपासा के लिए, आंतरिक इच्छाओं और विरोधाभासों से मुक्ति पाने के लिए वे जिस मोनेर मानुष (मनमाफिक आदमी) की तलाश करते है, उसे वे शरीर के बिना प्राप्त नहीं कर सकते है. शायद इसी कारण सभी धार्मिक संप्रदायों में गुप्त साधना (तांत्रिक) का प्रावधान रखा गया है।
अंत में कवि अशोक वाजपेयी के शब्दों में ‒
वृक्ष एक शरीर है
पृथ्वी के शरीर से उगता हुआ और अटूट
फूल तभी तक फूल है जब तक वह एक अंग है वृक्ष का
और पत्तियाँ तभी तक पत्तियाँ जब तक वे वृक्ष से ही लगी हैं
जब तक तुम साधे हो उसके शरीर को
तभी तक
उसकी आत्मा भी तुमसे अटूट है
आत्मा शरीर का अनंत स्वप्न देखती है...
डॉ. मधु कपूर
(डिस्क्लेमर : इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के स्वयं के हैं। रागदिल्ली.कॉम के संपादकीय मंडल का इन विचारों से कोई लेना-देना नहीं है।)