नए नज़रिये के साथ दीपाली शर्मा 'deez' की तीन कविताएं

डॉ. दीपाली शर्मा | साहित्य | Sep 16, 2024 | 342

आज हम आपका परिचय डॉ दीपाली शर्मा  "deez" की कविताओं से करवा रहे हैं। पिछले कुछ बरसों से वह कविताएं लिख रही हैं, ऐसी कविताएं जो पूरी तरह स्वत:स्फूर्त हैं और कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि उनकी कविताओं के पीछे कोई प्रयास है। ऐसा भी लग रहा है कि उनकी कविताओं में काफ़ी ताज़गी है और एक तरह से वह अपनी कविताओं में कुछ नए प्रयोग करती दिख रही हैं। उन्होंने हमें अपनी काफी कविताएं उपलब्ध करवाईं हैं जिनमें तीन आज हम प्रकाशित कर रहे हैं। आने वाले सप्ताहों में हम उनकी कुछ और रचनाएं भी लेकर आएंगे। 
 
1. हम पार्क जाते थे 
 
तुम बुज़ुर्ग हो 
ऐसा सब कहते हैं, 
ख़तरा तुमको ही है 
हम सुनते रहते हैं।   
 
पर क्या क्या छूटा हमसे
कोई जाने तो ज़रा, 
हमारे दिल में झांको 
फिर हम मानें तो ज़रा। 
 
सुबह सुबह वो पार्क के
चक्कर लगाते थे, 
ताली बजाते थे
हँसते हँसाते थे।   
 
सब मशरूफ़ थे 
बेटे-बहू, नाती-पोते,
फिर अगर ये पार्क ना होते 
तो कहाँ हम अपनेपन में भिगोते। 
 
दिन भर पत्ते भी खेलते थे 
हमें घर वाले यूँ ही नहीं झेलते थे, 
हम सब्ज़ी दूध लाते थे 
जो बन जाता खुश हो खाते थे,
क्योंकि हम रोज़ पार्क जाते थे।  
 
अब जो जाएँगे
तो अपनी आप बीती सुनाएँगे
फिर हँसेंगे हंसाएँगे
फिर दूध सब्ज़ी लाएँगे।  
 
पर तब तक सब्र से बैठेंगे
और मन में ये सोच के ऐंठेंगे,
बेटा-बहू, नाती-पोते 
हमें दिन भर दिखते हैं 
ऐसे अच्छे दिन 
भला बाज़ार में कहीं बिकते हैं? 
 
देखा है हमने सब 
हर दिन एक से नहीं रहते,
ये दिन भी कट जाएँगे 
और हम फिर पार्क जाएँगे। 
 
2. वाइरस 
 
ना पूछे देश 
ना पूछे धरम
ना पूछे जात
इस वाइरस का 
ऐसा है आघात। 
 
पर हम ना कोई वाइरस
हम तो मनुष्य जात, 
हमें बाटें देश, हमें बाटें धरम
और हमें बाटें जात।  
 
देख कर इतने हिस्से
वाइरस रह गया अचंभित,
बोला कि सुने तो थे तुम्हारे क़िस्से। 
 
फिर मुस्करा कर हल्के से बोला 
मुझ से तो बच जाओगे 
पर तुम ख़ुद अपने आप से 
छुटकारा कैसे पाओगे। 
 
3. कमबख़्त ……ये Forward 
 
आज फिर उसकी याद 
दिल के परतों को चीर कर 
मेरे सामने आ खड़ी हुई  
 
तो सोचा क्यों ना आज ही 
इज़हार कर लूँ 
कुछ कह दूँ  कुछ लिख दूँ । 
 
पर कहना तो कभी हुआ ही नहीं 
उसके सामने आते ही 
ज़बाँ लड़खड़ा जाती थी 
और मोहब्बत चुप रह जाती थी।  
 
तो सोचा आज लिख ही दूँ
दिल की स्याही को 
काग़ज़ पर उतार दूँ। 
पर बदकिस्मती देखिए,  
डाक तो बंद थी 
लॉकडाउन की पाबंद थी। 
 
उर्दू की डिक्शनरी निकाली, 
सुना है उसकी बात ही कुछ और है 
तो अंग्रेज़ी से हिंदी और फिर उर्दू में
लिखे हुए मेरे लफ़्ज़, 
Whatsapp पे उतार दिए 
और Send के तीर चला दिए।   
 
दिल थामे बैठी रही,
“जब भी कोई आहट होवे 
मनवा मोरा भागे” की तर्ज़ पर  
हर notification पर लगा कि 
इस बार तो जवाब ही होगा 
पर देर शाम तक कुछ ना आया 
फिर रात होते होते 
Whatsapp जैसे थरथर्रा उठा  
 
ये क्या! ये क्या!! 
मेरा ही ख़त मेरे ही पास 
लौट के आ गया!
कमबख़्त उसने पढ़ा ही नहीं 
और forward मान के आगे forward कर दिया 
Forward का सिलसिला लम्बा चला
Facebook और insta पे भी पहुँच गया 
काफ़ी likes भी बटोरे 
 
पर कमबख़्त मेरी मोहब्बत 
फिर सिमट के 
मेरे दिल को चीरते हुए 
वापस मेरे दिल में जा बैठी। 
 
दुनिया ने तो पढ़ ली 
पर उस तक पहुँची ही नहीं 
कमबख़्त ये मुहब्बत 
बस forward बनकर रह गई। 
******
 
 
डॉ. दीपाली शर्मा  "deez" श्री गुरु तेग बहादुर खालसा कॉलेज, दिल्ली यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्र विभाग में एसोसियेट प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हैं । कैरियर के तौर पर अर्थशास्त्र को अपनाने के बावजूद उनका साहित्यिक रुझान हमेशा ही बना रहा। स्वयं उनके शब्दों में, “मैं सिर्फ़ अपने मन में उमड़ते-घुमड़ते विचारों को कविता में पिरो देती हूँ, बिना यह चिंता किये कि वो तयशुदा साहित्यिक मानदंडों पर खरी उतरती हैं या नहीं हैं! मेरी कविताएं अगर कुछ सहृदय पाठकों के मन को भी छू जाती हैं तो यह मेरे लिए बहुत संतोष की बात होगी।“ 



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