वो एक दिन और पत्थर - दीपाली शर्मा 'deez' की कविताएं
डॉ दीपाली शर्मा ‘deez’ने फिर से अपनी दो कविताएं भेजी हैं। इस वेब-पत्रिका के पाठक देख चुके हैं कि उनकी कविताओं का एक अनूठा ही अन्दाज़ है - बेबाक और कुछ बेपरवाह सा! क्या कविताओं को 'blunt' कहा जा सकता है? अगर कहा जा सकता है तो शायद 'डीज़' की कविताओं को आप उस श्रेणी में रख सकते हैं। जैसा कि हमने पिछली बार उनकी कविताओं के बारे में कहा था कि वह अपना रास्ता तलाशती लग रही हैं, इस बार भी उनकी तलाश जारी है। उनकी पिछली दो बार की कविताएं आप यहाँ और यहाँ देख सकते हैं।
दीपाली शर्मा 'deez' की कविताएं
वो एक दिन
एक दिन एक रोज़
यूँही अनायास जब
सुबह से अपनी ही बड़-बड़ सुन
कर हो गई थी परेशान तो
सोचा स्टेप-काउंटर की जगह
क्यों ना वर्ड-काउंटर लगा दूँ!
‘आइडिया तो अच्छा है’
कहीं से आवाज़ आई
और कल्पना ने ऊँची भरी उड़ान
देखते ही देखते अपनी जिह्वा पर
वर्ड-काउंटर लगा दिया!
आलम ये था कि शाम तक
दिन भर अपने ही बोले शब्दों से
सिर फटने लगा और कान
और कान तो जैसे शोर से बहरे हो गए!
तब जाकर औरों की पीड़ा समझ आयी
और मुझे कुछ चेतना सी आयी
अब मैं सयानी हो चली हूँ
बोलती बहुत कम हूँ
सिर्फ़ लिखती हूँ!
पत्थर
इन पत्थरों में भी कोई तो बात है
इनका हमारा बहुत गहरा साथ है
बचपन में कभी पिट्ठू का खेल बनाया
कभी गिट्टों से सखियों का मन बहलाया
कभी मास्टर जी बोले अक्ल पे पत्थर पड़ गये
कभी देखा कि पत्थर माँ के कड़े पे जड़ गये
बड़े हुए तो कभी पत्थर के सनम मिल गये
कभी हम ख़ुद ही पत्थर दिल बन गये
बहुत बार सिर पे पत्थर चखना पड़ा
और बहुत बार दिल पे पत्थर रखना पड़ा
मंदिर गये तो भगवान भी पत्थर के मिले
बहुत बार भगवान पत्थर बन गये, न हिले
पत्थर से बहुत बार मारा अपना सिर भी
पत्थर से ठोकर लगती रही फिर भी
ज़िंदगी भर ये पत्थर साथ चलते रहे
बार बार रूप अपना बदलते रहे
इन पत्थरों में भी कोई तो बात है
इनका हमारा बड़ा गहरा साथ है
अब जो ख़ुद पत्थर बन जाएँगे
तो इन पत्थरों से नया रिश्ता बनायेंगे!
(डॉ. दीपाली शर्मा श्री गुरु तेग बहादुर खालसा कॉलेज, दिल्ली यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्र विभाग में एसोसियेट प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हैं। करियर के तौर पर अर्थशास्त्र को अपनाने के बावजूद उनका साहित्यिक रुझान हमेशा ही बना रहा। स्वयं उनके शब्दों में, “मैं सिर्फ़ अपने मन में उमड़ते-घुमड़ते विचारों को कविता में पिरो देती हूं, बिना यह चिंता किये कि वो तयशुदा साहित्यिक मानदंडों पर खरी उतरती हैं या नहीं हैं! मेरी कविताएं अगर कुछ सहृदय पाठकों के मन को भी छू जाती हैं तो यह मेरे लिए बहुत संतोष की बात होगी।")