किराये का घर और अन्य कविताएं - अजंता देव की नई प्रस्तुति
हमारे लिए यह अत्यंत संतोष की बात है (और गर्व की भी) कि अजंता देव इस वेबपत्रिका के लिए अपनी बेहतरीन कविताएं लगातार देती रही हैं। कविताओं के अलावा उन्होंने अपने उपन्यास "खारिज लोग" का अंश हमें प्रकाशित करने को उपलब्ध कराया। हाल ही में हमने उनकी लघुकथा 'निष्णात समाज' भी प्रकाशित की है। इन कविताओं में वह समकालीन मुद्दों से सीधा सामना करती लग रही हैं। एक बार अजंता देव ने अपने पत्र में हमें लिखा था, "ये कविताएं स्वयं से भी संवाद हैं। कविता के अलावा मेरा संवाद और भला कैसे होगा।" यही ध्यान में रखते हुए आप इन कविताओं को पढ़ें।
अजंता देव की नई कविताएं
।। किराये का घर।।
हम बदलते नहीं
बदल दिए जाते हैं
किराए के घर की तरह
कभी अचानक
कभी जानते हुए
हम विदा लेते हैं उससे
मोह तोड़ते हुए छोड़ जाते हैं कैलेंडर की तरह अपना निशान
ताक पर धर जाते हैं एक पुराना सिक्का विरासत में
कुछ दूर तक पीछे मुड़ मुड़ कर देखते हैं
फिर आँसू धुंधला देता है खुली खिड़की को
कुछ दूर तक पड़ोसी की याद गले में अटकती है
कुछ देर तक चमेली की बेल लिपटती है दुख की तरह
गली के छोर तक चला आता है कुत्ता किसी धूमिल आस में
फिर हम निस्पृह हो जाते हैं यात्री की तरह
पिछला घर मृत्यु
अगला जीवन लगता है किरायेदार को
जबकि दोनों ही बिल्कुल ख़ाली होते हैं।
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।।आवाज़।।
गोधूलि में लौटती गाय की तरह
मुझसे आवाज़ आती है
जब जब मैं उठती हूं कामकाज को
सबसे ज़्यादा बजती हैं चूड़ियां कि यहीं हूं
फिर पायल कि वहां हूं
मंगलसूत्र टकराता है पतीले से
अंगूठी बेलन से
झुमका बालों के क्लिप से अटका रह जाता है पीले पत्ते की तरह कांपता
उसे छुड़ाने में बार बार बजता है कंगन
नाक की कील चमक चमक कर दूर कमरे तक फेंकती है रोशनी की धार सूरज हो या बल्ब
भला हो महंगी धातुओं का
अब नहीं पहनने पड़ते मेखला बाजूबंद और हथफूल
मगर चप्पलों में बिछिया फंस कर धीमी करती है चाल अब भी
अब भी सुन्दर गढ़े जाते हैं गहने
अब भी स्त्रियों का झुंड सुनाई पड़ता है दूर से
गोधूलि की पीली रोशनी में चेहरे बन जाते हैं आभूषण
मखमली डब्बों में बंद होने के लिए।
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सबक
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बृहस्पति की आँख पृथ्वी को देख रही है
गुरुग्रह देख रहा है
कैसे पृथ्वी भूल गई है सारे सबक
पृथ्वी अपनी कक्षा में ही रहेगी युगों तक
उसे और बड़ी आकाशगंगा
और तेज सूर्य नहीं मिलेगा
नहीं मिलेगा एक और चन्द्रमा
हो सकता है शताब्दी के अंत तक
मिले और थोड़े जंगल
कुछ और पशु
कुछ ज़्यादा मनुष्यता
अगर याद रख सके पृथ्वी
इस बार का सबक।
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अजन्ता देव लगभग चालीस वर्षों से लगातार लिख रहीं हैं। पिछले दिनों राजस्थान साहित्य अकादमी की ओर से विशिष्ट साहित्यकार पुरस्कार के लिए चुना गया है। उनके चार कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं – राख का किला, एक नगरवधू की आत्मकथा, घोड़े की आँख में आँसू और बेतरतीब।