ओंकार केडिया का अनूठा व्यंग्य : चश्मा
चश्मा कमाल की चीज़ है। जो काम घड़ी,जूते,बेल्ट और मोबाइल मिलकर भी नहीं कर सकते, वह चश्मा अकेला कर देता है। घड़ी, जूते, बेल्ट और मोबाइल से भले ही आदमी सम्पन्न या सभ्रांत लगे, विद्वान नहीं लगता। यह काम चश्मा आसानी से कर देता है। मैंने अपने ख़ुद के तजुर्बे से यह सीखा है। बहुत से और लोगों ने भी ऐसा ही महसूस किया है, पर कभी स्वीकार करने की हिम्मत नहीं जुटा पाए।
मेरी आँखों पर चश्मा लगने में बड़ी देर हुई। वरना मैं बहुत पहले से विद्वान लगने लगता। इसका मुझे आजीवन मलाल रहेगा। यूनिवर्सिटी के दिनों में मैं फ़िल्में बहुत देखता था। मुझे पर्दे पर सब कुछ धुंधला-सा दिखता था। दोस्तों ने समझाया कि अभिनेत्रियाँ सबको ऐसी ही दिखती हैं। जब मैंने बताया कि मुझे अभिनेता भी धुंधले-से दिखते हैं, तब उन्हें चिंता हुई और उन्होंने मुझे आँखों के डॉक्टर के पास भेजा।
डॉक्टर ने बताया कि मेरी आँखें कमज़ोर हैं और मुझे चश्मा लगवाना ही पड़ेगा। अब तक मेरी उम्र 22-23 साल की हो चुकी थी। जैसे ही मैंने चश्मा लगाना शुरू किया, मुझे ठीक से दिखने लगा। दूसरों को भी मैं ठीक से नज़र आने लगा। चश्मा लगाना शुरू करने के बाद ही लोगों ने मेरी विद्वता का लोहा माना। अंधे के हाथ बटेर लग गई या यूं कहिए कि चश्मा लग गया। मैंने यह सोचकर संतोष कर लिया कि 22-23 की उम्र में भी कोई विद्वान लगने लगे, तो बहुत देर नहीं होती।
अपने विद्वान होने के बारे में मुझे तो पहले से पता था। मैं पढ़ने में बचपन से ही ठीकठाक था। थोड़ी बहुत कविताएं भी लिख लेता था, पर लोग थे कि मानने को तैयार ही नहीं थे। दरअसल मुझे बाद में पता चला कि कविताएं लिखनेवाले को लोग विद्वान नहीं, निकम्मा मानते हैं। जो लोग सरकारी नौकरी वगैरह करते हैं और खाली समय में दफ़्तर में कविताएं लिखते हैं,उन्हें लोग बहुत आदर देते हैं। उन्हें भ्रम हो जाता है कि कविताएं लिखने के कारण उन्हें सम्मान मिल रहा है। खैर, मैं सोच-विचार कर ही रहा था कि डॉक्टर ने मुझे बचा लिया।
चश्मा लगाकर मैंने जाना कि भगवान जो भी करता है, अच्छे के लिए ही करता है। मेरी आँखें कमज़ोर हुईं, पर यह सोचिए कि फ़ायदा कितना हुआ? एक-दो हज़ार का चश्मा लगाकर आपका सिक्का जम जाय, इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है? इतने पैसों में तो अच्छे डॉक्टर आजकल किसी मरीज़ को भी नहीं देखते। दफ़्तरों में कोई इतने पैसे ऑफर करे, तो लोग दया के मारे मुफ़्त में भी काम कर देते हैं।
जब से लोग मुझे विद्वान समझने लगे हैं, मैं विद्वानों जैसी हरकतें भी करने लगा हूँ। सबसे पहले तो मैंने इसी बात पर विचार किया कि चश्मा लगाने के बाद आदमी विद्वान क्यों लगने लगता है। दरअसल सरकारी नौकरी के अनुभव के कारण मुझे किसी भी समाधान की जड़ में जाने की आदत है। मैं इस नतीज़े पर पहुंचा हूँ कि चश्मा लगाने के बाद एक साधारण आदमी भी चार आंखोंवाला लगने लगता है। जितनी ज़्यादा आँखें, उतना बड़ा विद्वान।
वैसे तो जितना विद्वान लोग मुझे समझते हैं, उतना भी कम नहीं है, पर आदमी कभी संतुष्ट होता है क्या? आजकल मैं एक ऐसे चश्मे की तलाश में हूँ, जिसमें चार शीशे लगे हों- दो आँखों पर और दो आँखों के थोड़ा ऊपर। मुझे लगता है कि ऐसे चश्मे का प्रभाव थोड़ा ज़्यादा पड़ेगा। दो सौ किताबें पढ़ने से भी वह बात नहीं बनेगी, जो दो अतिरिक्त लेंस लगाने से बन जाएगी।
चश्मा बनानेवाली एक कंपनी को मेरा आइडिया पसंद आया है। चार लेंस का उनका चश्मा अगले साल तक बाज़ार में आ जाएगा और हर चश्मे की बिक्री पर वे मुझे कुछ कमीशन देंगे। यह मत समझिएगा कि मुझे कमीशन का कोई लालच है, पर मैं यक़ीन दिलाता हूँ कि चश्मा लगाकर आप अभी जितने विद्वान लगते हैं, उससे दोगुने चार लेंस वाला चश्मा लगाकर लगेंगे। चश्मा कब, कहाँ और कितने का मिलेगा, यह जानने के लिए मुझसे संपर्क में रहिएगा। अपना मोबाइल नंबर मुझे भेज देंगे, तो मैं ख़ुद आपको सूचना दे दूँगा। आप निश्चिंत रहें, आपका नंबर सिर्फ़ मकान बेचनेवालों के साथ शेयर किया जाएगा।
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(ओंकार केडिया पूर्व सिविल सेवा अधिकारी हैं। भारत सरकार में उच्च पदों पर पदासीन रहने के बाद वह हाल तक असम रियल एस्टेट एपिलेट ट्राइब्यूनल के सदस्य रहे हैं और आजकल गुवाहाटी में रह रहे हैं। इनका कविता संग्रह इंद्रधनुष काफी चर्चित हुआ। अंग्रेजी में इनकी कविताओं का पहला संग्रह Daddy भी काफी चर्चित रहा। कोरोना पर कविताओं का एक संग्रह प्रकाशाधीन है।)