बिना व्यापक विचार विमर्श के लाये गए कृषि कानून
आखिरी पन्ना
आखिरी पन्ना उत्तरांचल पत्रिका के लिए लिखा जाने वाला एक नियमित स्तम्भ है। यह लेख पत्रिका के दिसम्बर 2020 अंक के लिए लिखा गया।
कोरोना 2020 की सबसे प्रमुख घटना होने के बावजूद हम दिसंबर माह में किसानों के अभूतपूर्व आंदोलन से रु-ब-रु हैं और यह लिखे जाने तक तो ऐसा लग रहा है कि हमारी सरकार को भी समझ नहीं आ रहा कि कैसे इस मसले से निपटे। किसान कृषि कानूनों पर वार्ता के लिए आमंत्रित किए जा चुके हैं लेकिन ये स्पष्ट नहीं है कि आखिर सरकार उनसे कहेगी क्या? इसका कारण ये है कि सरकार के मुखिया यानि प्रधानमंत्री मोदी ने इस वार्ता के शुरू होने के पहले दो बार - पहली बार तो २८ नवम्बर को अपने मासिक रेडियो प्रसारण 'मन की बात' में और उसके बाद अगले ही दिन अपने चुनाव क्षेत्र वाराणसी में इन कानूनों को उन्होंने ऐतिहासिक कृषि सुधार बताया और इनकी आलोचना करने वालों को भी आड़े हाथों लिया। ऐसे में सरकार इन कानूनों से पीछे हटेगी, इसकी तो कोई सम्भावना लगती नहीं! फिर वार्ता में क्या होगा, नहीं मालूम - शायद सरकार कोई समिति गठित कर दे कि एमएसपी (जिसको लेकर किसान सबसे ज़्यादा चिंतित हैं) का मिलना कैसे सुनिश्चित होगा, इस पर अपनी रिपोर्ट देगी या इसी तरह की कुछ और बातें जोड़ दी जाएँगी लेकिन देखना होगा की क्या किसान इतने पर मान जाएंगे. अभी तक तो किसानों की तरफ से भी जो सुनने में आ रहा है, उसे देखते हुए ऐसा नहीं लग रहा कि किसान भी जल्दी अपने घर वापिस चले जायेंगे.
इस मामले को ज़रा मुड़ कर देखें तो ये बात काफी अजीब लगती है कि जब आप किसानों के लिए इतना बड़ा फैसला लेने जा रहे हैं तो कम से कम किसान संगठनों से तो विस्तृत वार्ताओं के दौर चलने चाहिए थे. संसद भी इसका बहुत अच्छा मंच हो सकती थी जहाँ इन कानूनों पर विस्तार से बात हो सकती थी बल्कि इन कानूनों के प्रारूप को किसी संसदीय समिति को सौंपा जाना चाहिए था जो इनके हर पहलू पर विस्तार से चर्चा करती, किसान संगठनों को भी आमंत्रित करती और समझने की कोशिश करती कि आखिर किसानों की चिंताएं क्या हैं, क्यों उन्हें लग रहा है कि मंडियों का महत्व समाप्त होने से उन्हें फसल के सही दाम नहीं मिलेंगे और क्यों उन्हें लग रहा है कि वह कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के शुरू होने से अपनी ही ज़मीन में मज़दूर बन जायेंगे. अगर सभी स्टेक-होल्डर्ज़ के साथ गहन विचार-विमर्श होता तो ना केवल बेहतर कानून बनते बल्कि कहीं असहमतियों के बिंदु होने के बावजूद भी उनका विरोध इतना व्यापक ना होता क्योंकि बहुत सारी चिंताओं का निवारण तो विचार-विमर्श के जाता और कुछ आवश्यक सुधार कानूनों में हो जाते.
सच बात ये है कि ऊपर सुझाई गई प्रक्रिया अपनाना इस सरकार के स्वभाव में ही नहीं है. अभी तक हम इस सरकार के तौर-तरीकों के बारे में यही देखते हैं कि इनको कहीं से मशवरा लेना या अपनी रत्ती भर भी आलोचना सुनना पसंद नहीं। एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लिए ये अच्छे लक्षण तो नहीं लेकिन अब जो है सो है. बहरहाल, ये किसानों वाला मामला थोड़ा 'डेलिकेट' हो चला है यानी थोड़ा नाज़ुक या अगर वो सही शब्द है तो थोड़ा संवेदनशील. सरकार को चाहिए कि वो अपने अहंकारी रवैय्ये को कम से कम इस मसले पर तो विराम दे और अपने उच्च सिंहासन से उतर कर इन किसानों को एक बार गले लगाए, इनकी चिंताएं दूर करे - बहुत सारे विशेषज्ञ और अर्थशास्त्री मानते हैं कि इनकी चिंताएं जायज़ हैं, इन कानूनों के आने से खेती-किसानी पर बड़ी कंपनियों का क़ब्ज़ा हो जायेगा और किसान उनकी दया पर निर्भर हो जायेगा. हो सकता है कि इनमें से कुछ चिंताएं निराधार हों लेकिन ज़्यादातर सच लगती हैं. ख़ास तौर पर जब आप प्रख्यात कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा जी की बातें सुनते हैं जिनका कहना है कि जो सिस्टम आप भारत में लाना चाह रहे हैं, वो यूरोप और अमेरिका में फेल हो चुका है. अगर पाठकों में किसी की रुचि इस विषय ज़्यादा जानने समझने की हो तो वो गूगल सर्च करके देवेंद्र शर्मा के ब्लॉग Ground Reality को ढूँढ लें और उनका यूट्यूब चैनल भी देख सकते हैं। कृषि और किसानों पर वह बहुत ‘ऑथेंटिक’ ढंग से वह अपनी बात कहते हैं।
वैसे सरकार इस बार अपनी ज़िद्द पर ना अड़े तो अभी भी बहुत कुछ किया जा सकता है लेकिन उसके लिए दो बातें होना ज़रूरी है - किसानों का हित सर्वोपरि है, यह सरकार के मन में होना और दूसरा अगर विचार-विमर्श के बाद कृषि क़ानूनों में बदलाव की सूरत बनती है तो बिना प्रतिष्ठा का सवाल बनाए, उन बदलावों के लिए खुले मन से तैयार होना! उदाहरण के लिए सरकार जब कह रही है कि किसानों को एम॰एस॰पी॰ से कम मूल्य नहीं मिलेगा तो फिर एक चौथा विधेयक ला कर ये व्यवस्था कर देनी चाहिए कि एम॰एस॰पी॰ से कम मूल्य पर कोई व्यापार नहीं होगा और ना ही कोई कांट्रैक्ट! छोटे किसानों के हाथ से उनकी ज़मीन ना निकल जाए, सरकार को इसकी ऐसी पुख़्ता व्यवस्था करनी चाहिए जिस पर किसान को विश्वास भी हो जाए!
सरकार को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि जब क़रीब छः दशक पहले बड़ा बिज़नेस कृषि में घुसा तो उसके बाद छोटे किसानों का इतनी बड़ी संख्या में निष्क्रमण हुआ कि आज वहाँ कुल रोज़गारों का केवल डेढ़ प्रतिशत किसानी में है और जो है वो भी 425 बिलियन डॉलर के क़र्ज़े तले है - तो अगर कोरपोरेट के कृषि में आने के बाद भारत का छोटा किसान खेती से बाहर हुआ तो सरकार बताए कि उन्हें कहाँ खपाएगी, कहाँ से रोज़गार देगी? ये कोई हवाई चिंताएँ नहीं हैं, अमेरिका और यूरोप के कई देशों में पहले ऐसा हुआ है लेकिन वहाँ औद्योगीकरण के उच्च स्तर ने इन किसानों को उस समय काफ़ी हद तक खपा लिया लेकिन भारत में तो पहले ही बेरोज़गारी अपने उच्चतम स्तर पर है और उससे भी बड़ी बात ये है कि हमारे यहाँ विस्थापित होने वाले किसानों की संख्या बहुत बड़ी हो सकती है। तो सरकार को खुले मन से इन सब मुद्दों पर विचार करना चाहिए और फिर जो भी रास्ता स्पष्ट निकल कर आए, उसे बिना इज़्ज़त का सवाल बनाए, स्वीकार करना चाहिए। संवाद और सलाह-मशवरा हर निर्णय को आसान बना देता है और बहुत तक ऐसा भी कि उसमें गलती की गुंजाइश ना हो जैसी कि नोटबंदी के समय हुई थी। संवाद करना और सलाह लेना सलीके की बातें हैं जिन्हें कभी भी सीखा जा सकता है और अभी तो कोई देर हुई ही नहीं है।