लघुकथा ‘निष्णात समाज’ जैसी रचनाएं सजग रखती हैं हमें
वरिष्ठ साहित्यकार अजंतादेव इस वेबपत्रिका के लिए नई नहीं हैं। उनकी कविताएं तो आप कई मर्तबा यहाँ पढ़ चुके हैं। पिछले वर्ष आए उनके चर्चित उपन्यास ‘खारिज लोग’ का एक अंश भी आपने इसी साइट पर पढ़ा है। आज प्रस्तुत है उनकी लघु कथा ‘निष्णात समाज’ – इसके पढ़ते समय ही आप समझ जाएंगे कि अजंता देव आपको आज की एक कड़वी सामाजिक सच्चाई से परिचित करवा रही हैं जिसमें राजनीतिक रूप से सशक्त हो चुकी कुछ विचारधाराएं हमारे सर्वसमावेशी समाज को एकांगी बनाने पर तुली हुई हैं और चिंता की बात ये है कि यह विकृति समाज में काफी हद तक स्वीकृति पाती भी लग रही है। इस लघुकथा के माध्यम से अजंता ने एक दमदार विद्रूप रचा है जिसका हर वाक्य खूब loaded है। अगर यह लघुकथा आपकी उदासी बढ़ाने लगे तो तुरंत याद कीजिए ऐसा साहित्य ही तो समाज में क्षय की प्रक्रिया को रोक सकता है (और रोकता है)। आइए पढ़िए उनकी यह रचना!
पहले वह काहिल था। आलस्य उस पर कड़ी के जाले की तरह फैला हुआ था। वह कल्पना जगत की सैर पर रहता था।
फिर एक दिन उसे अखबारों की कतरन काटने का शौक हुआ। ऐसे में स्वास्थ्य पर एक लेख ने उसका ध्यान खींचा - संतुलन से सेहत। वह सेहत बनाने पर जुट गया।
वह घंटों एक पांव पर खड़े होने का अभ्यास करता रहा, करता रहा और एक दिन निष्णात हो गया।
उसकी दिनचर्या बदल गई। वह बगुले की तरह एक टांग पर खड़ा घंटों बिताने लगा। उसमें फुर्ती भी आ गई थी। मेहमान आने पर वह फुदक-फुदक कर गैस की तरफ़ चल देता। एक टांग पर खड़े-खड़े चाय बनाता। उसके संतुलन पर सब दंग रह जाते जब वह ट्रे पकड़े एक टांग पर मूनवॉक सा फिसलता हुआ टेबल तक आ जाता। लोगों की हैरत से उसके दिल में अपार खुशी भर जाती। अब वह एक नाकारा लौंडा न था। वह कलाकार बन चुका था।
धीरे धीरे उसकी ख्याति शहर भर में फैलने लगी। उसे लोग कार्यक्रमों में बुलाने लगे। लोग उसके करतब देखने के लिए उमड़ पड़ते। वह मूंछों में मुस्कुराता। उसका एक करतब तो बेहद लोकप्रिय हो चला था, जिसमें वह दोनों टांगों से घिसटता हुआ मंच के बीच आता और अचानक जादुई ढंग से उसकी एक टांग उसकी जांघों से सट जाती और वह एक टांग पर फिरकी लेने लगता। दर्शक पागल हो जाते । सीटियों और तालियों के बीच वह मूनवॉक करता हुआ मंच के बीच आता और अपने अंगोछे को लहराता और फिर वैसे ही फिसलता हुआ गायब हो जाता।
कई संस्थाओं को उसकी यह लोकप्रियता रास आने लगी थी।वे उसे प्रेरक व्यक्ति के तौर पर भाषण देने के लिए बुलाने पर गंभीरता से सोचने लगे थे। एक संस्था ने बाज़ी मार ली और एक बड़ी रकम के बदले उसका भाषण रखने में कामयाब हो गई।
वह एक अपूर्व शाम थी जब वह अपने सर्वश्रेष्ठ लिबास में दर्शकों के सामने आया। उसने माइक पकड़ा और एक टांग पर खड़े होकर एक टांग से संतुलन साधने के फायदे गिनाने लगा। उसने अपनी बुलंद आवाज़ में कहा
“संगियों!
सभा स्तब्ध होकर देखने लगी। उसने आगे कहा:
“एक टांग के फायदे अपार हैं। पतलून पर कम कपड़ा, एक जूता, कम साबुन, और संतुलन पर अधिकार। दूसरी टांग आखिर है ही क्यों? यह व्यर्थ का बोझ असहनीय है। हम कहीं भी जाते हैं तो दूसरी टांग भी घिसटती हुई चली आती है। हम शताब्दियों से यह बोझ ढो रहे हैं जबकि हमारा काम और आसान हो जाता अगर दूसरी टांग होती ही नहीं। खैर, अब समय आ गया है कि हम प्रकृति की इस भूल को सुधार लें। हमें जितनी जल्दी संभव हो दूसरी टांग से निजात पा लेना होगा । उसने आगे कहना जारी रखा। लगभग दो घंटे के भाषण में उसने एक टांग की ज़रूरत और दो टांगों की व्यर्थता पर अकाट्य तर्कों की झड़ी लगा दी। लोग अपनी दो टांगों की तरफ़ देख कर निराशा से भर गए। कार्यक्रम के अंत में जब वह मूनवॉक करता हुआ परदे के पीछे गायब हुआ तो लोगों ने तालियां नहीं बजाई। वे सब उसके सम्मान में एक टांग पर गिरते पड़ते खड़े हो गए। आयोजक दंग रह गए । लोग हॉल से फुदक-फुदक कर निकलने लगे। वे फुदक कर गाड़ियों में बैठे । स्त्रियां साड़ियों में अजीब ढंग से फुदकने की कोशिश करने लगीं, पश्चिमी पोशाक पहने स्त्रियों का एक दल सबसे उत्तम ढंग से फुदकते हुए निकल गया। कुछ लोग यह सब देख कर हंसने लगे ही थे कि एक झुंड फुदकता हुआ उनके सामने आ खड़ा हुआ और तमतमा कर कहने लगा कि फुदकेश जी के सम्मान की इस तरह से धज्जियां नहीं उड़ाने देंगे।
फुदकेश नाम लोगों ने उसे दिया था और उसने इस नाम को सम्मान के साथ स्वीकार कर लिया था।
शहर में चिकित्सकों ने स्वेच्छा से अपनी सेवाएं पेश कर दी और “निशुल्क टांग कटाई शिविर” लगा कर लोगों का इंतज़ार करने लगे।
फुदकई नगर मानव चेष्टा का अद्भुत उदाहरण बन चुका था।
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