भाषा दर्शन - क्या अर्जुन ने पक्षी की सिर्फ आँख देखी?

डॉ मधु कपूर | अध्यात्म-एवं-दर्शन | Jan 07, 2025 | 362

दर्शन-शास्त्र में रुचि रखने वाले पाठकों ने ‘अध्यात्म एवं दर्शन’ कैटेगरी में डॉ मधु कपूर के इसके पहले के लेख देखे ही होंगे। कई सुधि पाठकों ने हमें बताया है कि उनके लेख पढ़कर दर्शन-शास्त्र कुछ समझ आने लगा है और उनकी इसमें रुचि जग गई है। नए पाठक भी उनके पुराने लेखों को इस कैटेगरी में ढूंढ कर पढ़ सकते हैं। इस बीच अब डॉ मधु कपूर आजकल भाषा-दर्शन पर लेख लिख रही हैं। इस कड़ी में आपने पिछले दिनों संवाद, भाषा और तत्त्वबोधअस्तित्व, चेतना और भाषा की अद्भुत लीला : कश्मीर शैवागमऔर शब्दहीनता और अर्थहीनता का समीकरण = शून्यता जैसे लेख पढ़े हैं। प्रस्तुत है इस कड़ी में उनका अगला लेख!

भाषा दर्शन - क्या अर्जुन ने पक्षी की सिर्फ आँख देखी?

डॉ मधु कपूर 

अर्जुन प्रतीक्षा कर रहा था गुरु द्रोणाचार्य के निर्देश की. गुरु के सामने आज वह प्रमाणित करना चाहता था कि वह सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर है. गुरु ने बारी बारी से सभी कौरवों और पाण्डवों से पूछा उन्हें पेड़ पर क्या दिखाई दे रहा है? एक एक कर सभी सामने आये, किसी ने पक्षी  के पंख देखे, किसी ने गर्दन और किसी ने पक्षी की पूंछ और किसी ने समूचा पक्षी ही देखा. यही प्रश्न जब अर्जुन के सामने दोहराया गया तो उसका जवाब था ᅳ “सिर्फ पक्षी की आँख.” फड़फड़ाती पेड़ की पत्तियां, हवा का झोंका, जंगल में बहती क्षीण आवाजें, यहाँ तक की पक्षी का शरीर भी उसे दिखाई नहीं दे रहा था. दिखाई दे रही थी केवल पक्षी की आँख और सिर्फ एक आँख. अर्जुन की सांसे थम गई, दिमाग शांत हो गया. उसे तीर छोड़ने का आदेश मिला. उसने प्रत्यंचा चढ़ाई और शर विद्ध (पक्षी का) हो गया. अर्जुन ने अपनी कला का प्रदर्शन सिद्ध कर दिया.  

प्रश्न यह नहीं है कि अर्जुन ने क्या देखा और बाकी पांडवों ने क्या देखा है? प्रश्न है अर्जुन ने सिर्फ आँख कैसे देखी? क्योंकि हम जानते है पक्षी का अपनी आँख के साथ अंगागिभाव है. अर्थात पक्षी स्वयं में सम्पूर्ण अवयवी है, आँखें तो सिर्फ एक अवयव है. बिना पक्षी को देखे आंखें कैसे देखी जा सकती है –यह एक गंभीर और गहरे विवाद का विषय है, जो शताब्दियों से चला आ रहा है. दार्शनिकों का यह प्रिय शगल भी है. क्या सचमुच कोई किसी वस्तु को बिना देखे उसके किसी एक अंग को देख सकता है? अंग (अवयव) और अंगी (अवयवी) का सम्बन्ध इतना सहज नहीं है जितना दिखाई देता है. पक्षी की समग्रता उसके सभी अंग अर्थात आँख, पंख, पूंछ इत्यादि पर निर्भर करती है, अथवा पक्षी-अवयवी में ही अवयव आश्रित होता है, जैसा कि हमारे प्रयोग से स्पष्ट है, ‘गाय की पूंछ’ या ‘वृक्ष की शाखा’ इत्यादि. अतः बिना गाय  को देखे उसकी पूंछ को देखना नामुमकिन है.

सवाल यह भी है ᅳ क्या समग्रता में किसी वस्तु को देखा जा सकता है? शायद नहीं. मानवीय सीमितताएँ समग्रता में किसी वस्तु को देखने में सर्वदा असमर्थ होती है. हम क्रमश वस्तु के एक एक हिस्से को देखते है और फिर धीरे धीरे समग्र वस्तु का भान हमें होता है, पर देखते नहीं है. हमें यह भी मालूम है कि समग्र यानि अवयवी अवयवों से बड़ा होता है. जब अर्जुन कहता है ,”उसे सिर्फ चिड़िया की आँख ही दिखाई दे रही है”, तो उसका यह कथन कुछ असम्पूर्ण नज़र आता है, क्योंकि बिना पक्षी को देखे वह उसकी आँख कैसे देख सकता है?   
साधारणतः किसी भी वस्तु को समझने का तरीका है उसका  विश्लेषण करना अर्थात उसे छोटे छोटे खण्डों में विभक्त करके देखना. जिस तरह डॉक्टर शरीर को समझने के लिए उसके बिभिन्न अंगों के कार्य कलापों को अलग अलग समझ कर कोई विशेष अंग का विशेषज्ञ कहलाने लगता है. लेकिन तकलीफ समझ में न आने पर वह दूसरे अंगों के साथ उसके सम्बन्ध की भी जाँच करता है. उसी तरह किसी वस्तु को समझने का एकमात्र उपाय  होता है उसे न्यूनतम परमाणु स्तर तक जाकर उसे समझने का प्रयास करना, पुनः समग्र पर लौटना. 

सीधे सीधे यदि कहूँ तो पक्षी भी अपने न्यूनतम अवयवों यानि परमाणुओं का संघात मात्र  ही होता है. चूँकि अणु अतीन्द्रिय होते है, जाहिर है उनका समूह भी अतीन्द्रिय ही होना चाहिए और ऐसी अवस्था में पक्षी क्या, पक्षी की आँख भी प्रत्यक्ष नहीं होगी. पक्षी के अदृश्य परमाणुओं से दृश्य परमाणुपुंज का उदय कैसे हो सकता है? उत्तर में यही कहा जा सकता है परमाणु भले ही आँखों से नहीं देखे जा सकते हो पर उनका समूह तो देखा जा सकता है. जैसे दूर स्थित एक केश भले ही प्रत्यक्ष न हो, परंतु जब केशों का समूह हमारे नेत्रों के सामने उपस्थित होता है, तब उसका प्रत्यक्ष अवश्य ही सिद्ध हो जाता है. व्यवहार में भी इसका प्रत्यक्ष उदाहरण मिल जाता है. दूर से सेना की टुकड़ी के सैनिकों का प्रत्यक्ष यद्यपि नहीं होता है, पर सेना समूह का तो प्रत्यक्ष हो जाता  है.  नजदीक आने पर केश भी  प्रत्यक्ष हो जाता है, सैनिक भी प्रत्यक्ष हो जाता है.

पुनः मान भी लिया जाय कि पक्षी परमाणुओं का समूह होने के कारण प्रत्यक्ष नहीं हो सकता था, तब भी लोकव्यवहार इसके विपरीत ‘पक्षी’ का प्रत्यक्ष अनुभव करता है ー ऐसा मानता है. अतएव अवयवों से भिन्न अवयवी की एक स्वतंत्र सत्ता मानना ही तर्क संगत होगा,  जो अवयवों में रहते हुए भी है, उससे पृथक होता है. 

लेकिन यह अवयवी रहता कहाँ है?  दृष्टांत स्वरूप पक्षी को आँख, पूंछ, पंख, गर्दन आदि को अणु खण्डों में बाँटने के पश्चात् वस्तुत, पक्षी-अवयवी की स्वतंत्र सत्ता तो बिसर जाती है, क्योंकि पक्षी का पंख पक्षी नहीं कहा जा सकता है, पक्षी की चोंच पक्षी नहीं कहा जा सकता है, इसी तरह अन्यान्य अंग में भी पक्षी नहीं रह सकता है तो पक्षी, जो एक स्वतंत्र वस्तु है,  कहाँ रहता है? अवयवों में जब वह अलग अलग नहीं रहता है, तो उनके समूह में उसका तालमेल कैसे बैठता है, उनका आपसी  सम्बन्ध क्या है ? इतनी आसानी से समस्या नहीं सुलझ सकती है. मतभेद जारी है. 

एक उदाहरण से बात को स्पष्ट किया जा सकता है. जैसे वस्त्र जिन धागों से निर्मित होता है उससे भिन्न नहीं होता है, लाल धागों से बना वस्त्र लाल ही होता है. पर वस्त्र की सत्ता धागों से पृथक होती है, क्योंकि वस्त्र जिस तरह शरीर ढकने के काम आता है, धागे उस कार्य को करने में समर्थ नहीं होते है. अतः धागों से पृथक एक नई सत्ता वस्त्र की स्वीकार करनी पड़ती हैं. वस्त्र धागों का रूपान्तर है और उसकी सत्ता भी स्वतंत्र है. वस्त्रों का कारण यद्यपि धागे ही है, किन्तु धागे वस्त्र नहीं कहे जा सकते है, क्योंकि उनकी बुनावट में ही वस्त्र की सत्ता निहित है. यदि शरीर के अवयव और अवयवी  अभिन्न होते तो शरीर के एक हाथ में  कंपन  होने पर पूरे शरीर में कंपन होना चाहिए, इसके विपरीत देखा जाता है, शरीर का दूसरा हाथ अकंपनशील ही बना रहता है, क्योंकि दोनों भिन्न है. अवयवों को अवयवी से अपृथक  माना जाता है, दूसरी तरफ दोनों को पृथक भी कहना पड़ता है. वास्तव में इसमें कोई विरोध नहीं दिखाई देता है, क्योंकि अंग और अंगी की गति भिन्न होने पर भी आश्रय एक ही है.  

लोकव्यवहार में जो ऐसा कहा जाता है कि वस्तु को समग्र रूप से हम प्रत्यक्ष करते है, जैसे ‘यह टेबल है’, ‘यह किताब है’, ‘यह पेड़ है’ इत्यादि. यहाँ तक की श्वान की अंग (पूंछ) हानि होने पर भी हम उसे श्वान ही कहते है, उसका सत स्वरूप नहीं बदलता है. इसके अतिरिक्त  अनुभव में अक्सर ऐसा देखा जाता है कि पानी में डूब जाने के बाद तैराक का सिर्फ सिर देख कर हम पहचान लेते है कि ‘यह अमुक व्यक्ति है. और तो और परमाणु की सत्ता भी तभी स्वीकार की जा सकती है, जब उसके पूर्व किसी वृहत परिमाण वाला अवयवी पदार्थ स्वीकार किया जाय, अन्यथा उसका विभाजन परमाणुओं में कैसे किया जायेगा? 

तो उसके लिए इतना ही कहना पर्याप्त है कि ये सभी शब्द काल्पनिक नाम मात्र है जिनके द्वारा निर्देशित वस्तु की कोई भौतिक सत्ता प्रत्यक्ष नहीं होती है. वास्तव में वृक्ष का सम्मुख भाग प्रत्यक्ष होने पर भी पिछला भाग अप्रत्यक्ष ही रह जाता है, ऊपरी भाग प्रत्यक्ष होने पर भी अधो भाग अप्रत्यक्ष ही रह जाता है. शाखा, काण्ड, पत्र, पुष्प जो वृक्ष के अवयव है, उनका समूह कभी भी प्रत्यक्ष नहीं हो सकता है, और जब प्रत्यक्ष ही नहीं हुआ तो कुछ प्रत्यक्ष अवयवों के आधार पर हम अवयवी का न तो अनुमान कर सकते है और न ही प्रत्यक्ष कर सकते है कि ‘यह वृक्ष है’.

इसे प्रत्यक्ष का विरोधाभास कहा जा सकता है. एक ओर बिना समग्र पक्षी को देखे सिर्फ उसकी आँख नहीं देखी जा सकती है, दूसरी ओर शर-संधान का लक्ष्य सिर्फ आँख थी, जो पक्षी से पृथक देखी जा रही थी.  इस विरोधाभास का समाधान यही हो सकता है कि पक्षी की आँख पक्षी का ही अंग विशेष है, जो सम्पूर्ण पक्षी को समझने में खिड़की का काम करता है. एकमात्र अर्जुन ही उस ध्यान की स्थिति में था जहाँ वह समग्र से पृथक कर सिर्फ पक्षी की आँख देख रहा था. फिलहाल  उसे ही तीर चलाने का अवसर दिया गया, बाकी सभी कौरव और पांडव चंचल मन होने के कारण प्रतियोगिता से ख़ारिज कर दिए गये.

कहना न होगा कि समग्र अपना घूंघट  धीरे धीरे उठाता है और अंत में अपने को सम्पूर्ण उजाड़ कर रख देता है. अविश्वसनीय है, पर सत्य है.  यह अनहोनी घटना हरदम, हर क्षण हमारे साथ घटती है और घटती रहेगी. हमें इस रस्साकसी के बीच मृदु संतुलन बनाने का प्रयास करना पड़ता है, उस नट की तरह जिसे अपनी कला में महारत हासिल है ताकि वह रस्सी से फिसल न पड़े. 

पाठकों, इतना दीर्घ प्रसंग हमें भाषा दर्शन का छोर पकड़ने में मदद करेगा, यह उसी सुखद संगीत का यह पूर्वाभास  है. 

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डॉ मधु कपूर कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं। दर्शनशास्त्र के अलावा साहित्य में उनकी विशेष रुचि रही है। उन्हीं के शब्दों में, "दार्शनिक उलझनों की गुत्थियों को साहित्य के रास्ते में तलाशती हूं।" डॉ कपूर ने हिंदी से बंगला में कुछ पुस्तकों का अनुवाद किया है और कुछ कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। दर्शन पर उनके निबंधों का एक संग्रह Dice Doodle Droll Dance  पिछले वर्ष विश्व पुस्तक मेला में  फरवरी में रिलीज़ हुआ है।



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