“कुछ कहना कुछ करना है” - जॉन ऑस्टिन के कथन का परीक्षण
इस वेब पत्रिका में दर्शन शास्त्र की अनेक गुत्थियों को पहले कई लेखों के माध्यम से सुलझा चुकीं डॉ मधु कपूर आजकल भाषा-दर्शन के सिद्धांतों को पाठकों तक पहुँचाने के लिए प्रयासरत हैं। इस क्षेत्र (भाषा-दर्शन) का उनका पहला लेख था “आकाशगंगा में चमकता यह दूसरा सितारा” जिसे आप यहाँ देख सकते हैं। इसमें उन्होंने शब्द से होने वाले अर्थ-बोध की चर्चा की थी। इसी विषय को आगे बढ़ाता हुआ उनका दूसरा लेख था “दर्शनशास्त्र : जब बोलने की अपेक्षा ना बोलना महत्वपूर्ण हो जाता है” और फिर आया “इंतज़ार बकवास खत्म होने का.......” इन्हीं तीन लेखों की शृंखला में अब अगला लेख आज प्रस्तुत है जिसमें वह प्रसिद्ध दार्शनिक जॉन एल. ऑस्टिन (1911-1960) के भाषा-शास्त्र संबंधी सिद्धांतों का ‘परीक्षण’ कर रही हैं।
“कुछ कहना कुछ करना है” – जॉन ऑस्टिन के कथन का परीक्षण
डॉ मधु कपूर
एक समय था जब ‘कहना’ क्रिया का अर्थ वास्तव में कुछ करने से लिया जाता था, जैसे भीष्म ने प्रण किया कि वह आजीवन ब्रह्मचारी रहेंगे। उन्होंने अपने वचन का पालन भी किया। यद्यपि भीष्म-प्रतिज्ञा के कारण कुरुक्षेत्र का विनाशकारी युद्ध भी हुआ। किन्तु आजकल प्रतिज्ञा पूरी न करने के हजारों कारण आपके सामने पेश किये जाते हैं, और आप उन्हें मानने के लिए मजबूर हो जाते हैं। निस्संदेह ‘कहना’ और ‘निभाना’ दोनों ही क्रिया है, पर संभवत दोनों के बीच एक व्यवधान है, जिसे भाषाई दर्शन में प्रतिबद्धता से पाटा नहीं जा सकता है।
John Langshaw Austin, ब्रिटिश दार्शनिक, रोजमर्रा की भाषा के व्यवहार एवं प्रयोग को अपनी दार्शनिक आलोचना का केंद्रबिंदु बनाकर भाषा दर्शन में एक नई शैली को विकसित करने का प्रयास करते है, जो भाषा समझने में एक नई दिशा प्रदान करती है। अपनी पुस्तक, शब्दों के साथ काम कैसे करें (How to Do Things with Words) में वे वक्ता की वाचन क्रिया (speech act) पर जोर देते हुए रोजमर्रा की भाषा की अवधारणाओं और अभिव्यक्तियों का विश्लेषण करके उसमें निहित जटिलताओं की टोह लेते है। उदाहरण के लिए आदेश देना, प्रतिज्ञा करना, प्रार्थना करना, विस्मय व्यक्त करना इत्यादि वाक्य किसी विशेष परिस्थिति में एवं किसी विशेष उद्देश्य से उच्चारण किये जाते है। इन वाक्यों से श्रोता को तथ्यात्मक वाक्यों की तरह कोई सूचना नहीं दी जाती है, बल्कि इनके द्वारा ‘विशेष क्रिया’ संपन्न की जाती है, जिसका सत्य अथवा मिथ्या से कोई ज्यादा ताल्लुक नहीं होता है। ऑस्टिन का प्रसिद्ध नारा है, "कुछ कहना कुछ करना है"। उदाहरण के लिये–
- मैं इस जहाज का नाम 'क्वीन एलिजाबेथ' रखता हूँ।
- मैं आपसे १०० रुपयों की शर्त लगाता हूँ कि कल बारिश होगी।
- मैं तुम्हें दरवाज़ा बंद करने का आदेश देता हूँ।
- ओह! मैंने तो देखा ही नहीं।
उपर्युक्त वाचन अभिव्यक्तियों के द्वारा नामकरण, शर्त लगाना, आदेश देना और विस्मय आदि क्रियाओं को संपन्न करने की बात की गई है।
ऑस्टिन के पूर्ववर्ती दार्शनिकों ने दर्शन चर्चा के क्षेत्र से उन सभी वाक्यों को मानो निकाल फेंका था जो सत्य और मिथ्या की परिधि में आबद्ध नहीं होते हैं, जैसे, आदेश देना, प्रतिज्ञा करना तथा सचेत करना आदि। इसके विपरीत ऑस्टिन शब्दों को बहुआयामी रूप में देखते है। उनके अनुसार तथ्य ज्ञापन करना तथा अर्थ की सत्यता के पहलू पर विचार करने के अतिरिक्त भी वाक्य कुछ कहता है, उसे समझने के लिए वक्ता का सामाजिक परिप्रेक्ष्य, प्रयोजन, स्थान और काल का विचार करना आवश्यक हो जाता है। उदाहरण के लिए यदि किसी नौकरी के लिए किसी आवेदक की सिफ़ारिश करने वाले पत्र-लेखक ने स्पष्ट रूप से केवल यही लिखा है कि ‘मिस्टर चोपड़ा समय के बहुत पाबंद हैं और उनकी लेखनी उत्कृष्ट है’, तो वह आवेदक के सम्बन्ध में अधिक जानकारी नहीं देते है। उनका तात्पर्य यह हो सकता है कि आवेदक इस नौकरी के योग्य नहीं है, क्योंकि खाना बनाने की योग्यता उसमें नहीं है जो आप ढूंढ रहे है, विनम्रतावश पत्र-लेखक ने यह उल्लेख नहीं किया है।
ऑस्टिन तीन तरह से वाचन क्रिया को विभाजित करते है, हम क्या कहते हैं, कहना एक क्रिया है (locutionary), जब हम कुछ कहते हैं तो उसका क्या अभिप्राय होता है, जैसे प्रतिज्ञा करना, आदेश देना इत्यादि (illocutionary), और श्रोता पर उसका क्या प्रभाव पड़ता है –वह डर जाता है या वक्ता की बात से सहमति अथवा असहमति व्यक्त करता है (perlocutionary)। एक उदाहरण से इसे स्पष्ट किया जा सकता है। यदि वक्ता कहता है “आपकी अंगुलियां बहुत सुन्दर है”, तो इसे प्रशंसात्मक क्रिया के रूप में लिया जाता है, पर यदि कोई आतंकवादी ऐसा कहता है, “तुम्हारे नाख़ून सुन्दर हैं तुम शायद इसे उखाड़ना न चाहो” तो समझना चाहिए वह मुझे धमकी दे रहा है। ऑस्टिन स्वयं स्वीकार करते हैं कि कथन के ये तीनों घटक पूरी तरह से अलग नहीं हैं।
वस्तुतः किसी वाक्य को उच्चारण करना ही एक क्रिया (performative acts) है, जो वक्ता का विश्वास, इच्छा, आशा, आदेश इत्यादि प्रकट करता है। ऑस्टिन विश्लेषणात्मक दृष्टि से "Ifs and Cans" प्रबंध में दिखाते है, वक्ता जब कहता है “मैं कर सकता हूँ” तो उसका तात्पर्य होता है “यदि मैं कोशिश करूँ तो कर सकता हूँ”। वक्ता के तात्पर्य को यदि श्रोता पकड़ने में समर्थ होता है, तो बातचीत की सफलता निश्चित हो जाती है। वक्ता और श्रोता को एक संतुष्टि का बोध (felicity) होता है, जो दोनों की एक साझा प्रतिक्रिया होती है।
हम अक्सर देखते है कि दो देशों के मध्य किसी विशेष विवाद को लेकर जब कोई राजनैतिक बैठक होती है, तो बैठक के अंत में एक साझा रिपोर्ट प्रस्तुत की जाती, जिसमें दोनों पक्ष के प्रतिनिधि हस्ताक्षर करते हैं। इस समझौता प्रति के अनुसार जब कार्य संपन्न होता है, तो हम इसे सफल बैठक मानते है। ऑस्टिन के विख्यात वक्तव्य को इस प्रसंग में उल्लेख किया जा सकता है -"सत्य होने के लिए दो की आवश्यकता पड़ती है। " (It takes two to make a truth), जो इस बात को प्रमाणित करता है कि भाषा कोई एकतरफा खेल नहीं है, इसमें ‘दो’ का शामिल होना अनिवार्य होता है।
लेकिन कई बार ऐसा होता है कि वक्ता वाक्य उच्चारण करता है, “मैं तुम्हें अपनी गाड़ी देने का वादा करता हूँ” पर अंत में वह अपने वादे को निभाता नहीं है। इसके बावजूद उसके कथन को मिथ्या नहीं कहा जा सकता है। ज्यादा से ज्यादा इतना ही कह सकते हैं कि उसने वादाखिलाफी की (misfire) अथवा वक्ता के कथन से श्रोता को असंतुष्टि (infelicitous) हुई। वक्ता के आदेश देने के बावजूद श्रोता यदि उसका पालन नहीं करता है, या वक्ता ने ऐसा कुछ मजाक किया जो श्रोता को समझ में नहीं आता है, तो वार्ता औंधे मुंह गिर पड़ती है। ऑस्टिन के अनुसार शब्द वह अस्त्र है, जो जितना अधिक धारदार (स्पष्ट) होगा वार्तालाप उतना ही सफल होगा। उदाहरणस्वरूप, कोई साहित्यिक सेमिनार में जाकर ज्यामिति के किसी कठिन उपपाद्य पर वक्तृता देने लगे, तो अप्रासंगिक और सन्दर्भहीन होने के कारण उसे असफल वक्ता कहा जायेगा।
ऑस्टिन जानते है कि भाषाई-अर्थ परिस्थिति-सापेक्ष होने के कारण अत्यन्त जटिल और लचीले होते है, उनका अर्थ निकालना कभी कभी अजीबोगरीब पेशोपेश में डाल देता है। दृष्टान्त स्वरूप दरवाज़े पर कुण्डी खटखटा कर किसी ने पूछा, “अमुक व्यक्ति घर पर है ?” वक्ता क्या उत्तर दे असमंजस की स्थिति में आ जाता है। बिस्तर पर लेटे हुए एक मृत व्यक्ति के बारे में वह क्या कहेगा? “कि वह घर पर है? कि वह घर पर नहीं है?" ऐसे मामलों में हम क्या कह सकते हैं या क्या नहीं कह सकते हैं, इसके बारे में कोई निर्धारित नियम नहीं हैं।
इसी तरह “बिल्ली चटाई पर बैठी है” इस वाक्य की सत्यता निर्भर करती है, स्थिति की अनुरूपता पर। बिल्ली यदि चटाई पर बैठी है, तो वाक्य सत्य कहा जाता है, अन्यथा मिथ्या। लेकिन–
- यदि कोई दौड़ाक कहता है कि “मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि इस बर्ष मैं मैराथन जीतूँगा” और दुर्भाग्यवश वह हार जाता है तो इसे मिथ्या नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि उसकी क्षमता दौड़ने के वक्त कमजोर हो जाती है, और वह हार जाता है। ऐसी परिस्थिति में हम इतना ही कहते हैं, कि वह अपने कार्य में असफल रहा।
- इसी तरह वैज्ञानिकों ने घोषणा की “अमुक दिन अमुक समय उपग्रह का उत्क्षेपण किया जायेगा”, पर उत्क्षेपण के कुछ घंटे बाद तकनीकी त्रुटि के कारण वह असफल हो जाता है। तो इसका अर्थ यह नहीं है कि उनका उनका कथन मिथ्या था। हताश होकर हम सिर्फ कहते हैं, ‘ओह! उत्क्षेपण की क्रिया असफल हो गई’।
- हवाई जहाज में बैठने के बाद यह आदेश दिया जाता है, "यात्रियों से अनुरोध हैं कि इस समय धूम्रपान वर्जित है, अपनी ट्रे टेबल और सीटबैक को सीधा कर लें तथा सीधे बैठे” ᅳ यदि कोई यात्री इस आदेश का पालन नहीं करता है तो उसे फटकार मिल सकती है, अथवा अधिक उच्छ्रंखलता दिखाने पर उसे सजा भी दी जा सकती है।
- “क्या आप मेरे साथ आज दोपहर काफी हाउस में मिल सकते हैं?" और श्रोता उत्तर देता है, "मेरी क्लास है"। श्रोता प्रस्ताव को अस्वीकार करने के बजाय अप्रत्यक्ष कथन का इस्तेमाल करता है, "मेरी क्लास है"। इस वाक्य से वक्ता उसके अभिप्राय ‘अस्वीकृति’ को समझ लेता है। रोज़मर्रा की वाचन क्रियाओं में यह समझना आम बात हैं।
- जब कोई वक्ता कहता है, ‘सांड खतरनाक होते हैं’, यह वाक्य एक ओर जहाँ सूचना देता है, वहीँ दूसरी ओर श्रोता को सचेत भी करता है।
आजकल कृत्रिम मेधा के व्यापक प्रसार के कारण विश्लेषण की यह पद्धति संवाद के तरीके को अधिक से अधिक कामयाब बनाने का दावा करती है। इससे लोकभाषा के वास्तविक क्रियाकलापों का उचित संरक्षण और भाषाई सिद्धांत हमारी समझ को गहराई तक ले जाते है, जो प्रभावशाली वार्ता विनिमय में सहायक होता है। कहना न होगा कि हिंदी के विख्यात भाषाविद डॉ सुरेश पन्त का कार्य इस क्षेत्र में अत्यन्त सराहनीय है।
इस सन्दर्भ में मैं भारतीय दर्शन में आलोचित विधि वाक्यों का उल्लेख करना चाहूंगी, जहाँ क्रिया की सफलता साध्य, साधन तथा इतिकर्तव्यता (किसी काम को करने की विधि) की एक सामूहिक चेष्टा को कहा जाता है। उदाहरण के लिए प्रधानमंत्री बनने का इच्छुक व्यक्ति का साध्य (प्रधानमंत्री बनना) निश्चित है, प्रयोजन है, क्षमता हासिल करना और समाज सेवा करना, चुनाव लड़ने की सभी आवश्यक शर्ते पूरी करना (साधन) कहा जाता है। अपने लक्ष्य के प्रति प्रतिबद्धता एक अत्यंत आवश्यक शर्त है जो विधि वाक्यों के ही अन्तर्भुक्त छिपी रहती है। महाभारत और रामायण जैसे महाकाव्य ऐसे प्रसंगों से भरे पड़े है। प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए दशरथ को प्राण गंवाने पड़े, राम को चौदह वर्ष का वनवास देना पड़ा। प्राच्य और पाश्चात्य चिन्ताधारा की इन सूक्ष्म बारीकियों में जाने का यह उपयुक्त प्रसंग नहीं है, पर भाषा दर्शन के क्षेत्र में यह अवश्य ही प्रणिधान योग्य है।
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डॉ मधु कपूर कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं। दर्शनशास्त्र के अलावा साहित्य में उनकी विशेष रुचि रही है। उन्हीं के शब्दों में, "दार्शनिक उलझनों की गुत्थियों को साहित्य के रास्ते में तलाशती हूं।" डॉ कपूर ने हिंदी से बंगला में कुछ पुस्तकों का अनुवाद किया है और कुछ कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। दर्शन पर उनके निबंधों का एक संग्रह Dice Doodle Droll Dance हाल ही में दिल्ली में सम्पन्न हुए विश्व पुस्तक मेला में रिलीज़ हुआ है।
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