दर्शनशास्त्र : जब बोलने की अपेक्षा न बोलना महत्वपूर्ण हो जाता है
इस वेब पत्रिका में दर्शन शास्त्र की अनेक गुत्थियों को पहले कई लेखों के माध्यम से सुलझा चुकीं डॉ मधु कपूर ने अपना ध्यान अब भाषा-दर्शन की ओर किया है। इस क्षेत्र (भाषा-दर्शन) का उनका पहला लेख “आकाशगंगा में चमकता यह दूसरा सितारा” आप यहाँ पढ़ चुके हैं जिसमें उन्होने शब्द से होने वाले अर्थ-बोध की चर्चा की थी। इसी विषय को आगे बढ़ाता हुआ उनका यह दूसरा लेख पढ़िये।
सन्दर्भ, स्वरों का उतार-चढ़ाव, तात्पर्य, सामाजिक आचरण, शब्दकोश आदि से प्राथमिक शिक्षण के बाद हम भाषा का बहुआयामी प्रयोग और अर्थ निर्धारण करना सीख जाते हैं। यूँ तो प्रसिद्ध वैयाकरण नागेश के अनुसार ‘सर्वे सर्वार्थ वाचकाः’ सभी शब्द सभी अर्थ के वाचक हो सकते हैं, पर हम इच्छारूपी संकेत के द्वारा उनका अर्थ नियंत्रित कर देते हैं, जिसे बाद में समाज की स्वीकृति भी प्राप्त हो जाती है। लेकिन अर्थ नियंत्रित कहाँ रह पाते हैं, तेज रफ़्तार से दौड़ते हैं और समस्यायें खड़ी कर देते है, जैसे ᅳ कई बार बोलने की अपेक्षा न बोलना महत्वपूर्ण हो जाता है।
माँ ने कहा “देखो, फ्रिज में सब कुछ रखा है, जो मर्जी हो निकाल लो” यहाँ ‘सब’ शब्द अस्पष्ट है ? क्या दुनिया भर की सभी खाने योग्य वस्तुएं फ्रिज में रखी है? मैंने एक छात्र से कहा “मेरे दिमाग में तुम्हारा प्रश्न है, मैं सोच कर उत्तर दूँगी,” यहाँ ‘दिमाग में हैं’ इस कथन का क्या अर्थ है ? दिमाग क्या एक सन्दूक है, जहाँ मैंने उसके प्रश्न को हिफाज़त से रख दिया हैं? माँ ने कहा, “छाता लेकर जाना, बरसात हो रही है” मैंने बाहर झांक कर देखा और कहा, “नहीं, बरसात नहीं हो रही है।” किन्तु माँ का वाक्य‘ बरसात हो रही है’ सत्य है, क्योंकि दुनिया में कहीं न कहीं तो बरसात हो रही है। इस तरह अनगिनत वाक्य हैं जिनका अर्थ बोध कभी कभी हमें मुश्किल में डाल देता है। हम कई बार धोखा खा जाते हैं कि जो कहा गया है क्या वही समझा गया है? वक्ता और श्रोता का सम्बन्ध तो इसी अर्थबोध पर निर्भर करता है। लेकिन प्रश्न है कि वक्ता के विचार को पकड़ने में भाषा कहाँ तक सक्षम होती है ? भाषा का यह धुंध कैसे हटाया जाय?
कानूनी अदालतों और सभाओं में हम देखते हैं कि पक्ष और विपक्ष के वकील वर्षो एक घटना को लेकर तर्क वितर्क करते रहते हैं। किसी केस की गुत्थी सुलझाने के लिए वे भाषा के ऐसे ऐसे दांव पेंच लगाते हैं कि सत्य अक्सर तुड़-मुड़ जाता है। सच कभी सामने आता है और कभी नहीं भी। कहावत है विजित और विजेता का इतिहास अलग अलग लिखा जाता है, क्योंकि उनके सन्दर्भ और भाषाएँ अलग अलग होती है। इतिहास की व्याख्यायें भी पूर्वग्रह संस्कारों के कारण पृथक पृथक होने लगती है। कोई व्यक्ति ब्रिटिश की नज़रों में यदि देशद्रोही होता था तो देश की नज़रों में वह देशभक्त माना जाता था। इस तरह शब्दों का यदि कोई निश्चित अर्थ न हो तो सत्य विकृत हो जाता है, पाठक और श्रोता गुमराह होने लगते हैं।
कुछ आधुनिक भाषा-दार्शनिकों का मानना है कि शब्दों का कोई निश्चित अर्थ नहीं होता हैं, हम प्रकरणानुसार अर्थ बोध करने में सक्षम होते हैं। वक्ता जब चिल्ला कर कहता है ‘पानी !’ उसके इस शब्द उच्चारण का क्या उद्देश्य है —आदेश? किसी प्रश्न का उत्तर? या प्यास लगी है, पानी’ मांग रहा है या दरवाज़ा बंद करो पानी भीतर आ रहा है इत्यादि। प्रकरण तो अनंत है, अतः अर्थबोध की प्रामाणिकता संदिग्ध रह जाती है।
जैसे काँटा शब्द सुनने पर मस्तिष्क में सर्वप्रथम एक पतली नोंक वाली वस्तु का ही बिंब उभरता है, जो चुभता है, पीडादायक होता है, बालों में लगाने के काम आता है। इसके अलावा इसका तात्पर्य तराजू से भी होता है जो तौलने के काम आता है। यहाँ तक की अब एक शनि काँटा शब्द भी व्यवहार में रूढ़ हो चुका है। इस तरह शब्द अपने मुख्यार्थ को छोड़ कर अन्य अर्थ में प्रयुक्त होने का अधिकार अर्जन कर लेता है जो कल्पना-लेखन के क्षेत्र में बहुधा उपयोगी होता है। पर तथ्यात्मक विषयों में, जहाँ सत्य का बोलबाला अधिक होता है, इतनी अर्थ स्वाधीनता मान्य नहीं है।
हमें स्मरण रखना चाहिए कि भाषा-वैज्ञानिक कुछ हद तक अर्थबोध में सहायक हो सकते हैं, पर भाषा विज्ञान का सम्बन्ध अधिकतर भाषा की व्याकरणिक उत्पत्ति और उनके सामाजिक परिप्रेक्ष्य से जुड़ी रहती है, जबकि भाषा-दर्शन अर्थ की सत्यता की परख करता है। कहा जा सकता है कि भाषा-दर्शन अर्थ का मूल्यायन करता है, और भाषाविज्ञान अर्थ प्रयोग का वर्णनात्मक स्वरूप उपस्थित करता है। सामान्य रूप से भाषा-दार्शनिकों के लिए भाषाविज्ञान से प्राप्त भाषा कच्चा माल या उपादान है, जिसका विश्लेषण करना उनका काम है। जैसे बाज़ार से सब्जी खरीद के लाना कच्चा माल है, पकाना रसोइये का काम है। इसी तरह भाषा को साफ-सुथरा करके उसे आदर्श भाषा का रूप देना भाषा दार्शनिकों का उद्देश्य है, जिससे ऊपर लिखित समस्याओं का समाधान किया जा सके। उदाहरण के लिए निम्नलिखित वाक्यों पर गौर करेंᅳ
"उसने फूलदान तोड़ दिया"
"फूलदान अपने आप टूट गया"
दोनों वाक्यों का मूल कथन एक ही है कि फूलदान टूट गया। किन्तु वाक्य का विश्लेषण करने से पता चलता है कि व्याकरण की दृष्टि से पहले वाक्य में क्रिया सकर्मक और दूसरे वाक्य में क्रिया अकर्मक है। पर भाषा दर्शन विचार करता है कि पहले वाक्य में फूलदान टूटने का नैतिक दायित्व व्यक्ति पर जाता है, पर दूसरे वाक्य में नैतिक दायित्व का जिम्मेदार कोई नहीं है, यदि कोई जिम्मेदार है तो हवा का झोंका या समयावधि अथवा पालतू पशु की उछल-कूद इत्यादि जो नैतिकता के क्षेत्र से परे है।
भाषा दार्शनिकों की सबसे अधिक रुचि शब्दार्थों की अस्पष्टता और अनिश्चयता को लेकर है। उदाहरण के लिये मैंने अपने भांजे को बहुत सालों बाद देखा और मैंने कहा, ‘तुम इतने लम्बे हो गये’! मेरे इस वाक्य में ‘लम्बा’ शब्द एक सापेक्ष अर्थ का वाचक है अर्थात ‘किससे लम्बा? सिर्फ़ ‘लम्बा’ कहने का कोई औचित्य नहीं है। लिलिपुट जैसे देश में ५ फुट ‘लम्बा होना’ कोई अर्थ रखता है, पर जिस देश में सभी बच्चे ५ फुट के तो अमूमन होते ही है, वहां ‘लम्बा’ कहने का कोई औचित्य नहीं रह जाता है। इसी तरह सिर पर कितने बाल होने पर या न होने पर किसी व्यक्ति को गंजा कहा जा सकता है –यह एक कठिन समस्या है।
‘मनुष्य एक विवेकशील प्राणी हैं’ ᅳ इस वाक्य के अंतर्गत ‘मनुष्य’ पद का वाच्य क्या है? इस पद से किस ‘विशेष मनुष्य’ का बोध होता—‘लम्बा, नाटा, काला, गोरा, स्त्री, पुरुष, यूरोपीय, भारतीय आदि। दुर्भाग्य से ऐसे किसी व्यक्ति का चित्र हमारे सामने उपस्थित नहीं होता है, जिसमें उपर्युक्त सभी लक्षण एक साथ मौजूद हो। एक अमूर्त व्यक्ति का बोध तो होता है पर उसका कोई चित्र उपस्थित नहीं होता है। इस अमूर्तीकरण की प्रक्रिया क्या है और कैसे होती है, यह भी एक दार्शनिक प्रश्न है ? इन्हीं समस्यायों से जूझते हुए भाषा दार्शनिक शब्दों का विश्लेषण कर उनका अर्थ तथा प्रयोग की दिशा निर्धारित करने का प्रयास करता है।
बींसवी सदी के सबसे सफल दार्शनिकों में से एक Ludwig Wittgenstein गणित और तर्कशास्त्र को आदर्श मान कर एक ऐसी ही भाषा के निर्माण का सुझाव देते है, जिसे ‘चित्र-सिद्धांत’ (picture-theory) के नाम से जाना जाता है। उनके अनुसार भाषा ऐसी होनी चाहिए जो हूबहू दर्पण का काम करे। जैसे ‘एक बैल लाओ, ‘दही खाओ’ आदि। यहाँ ‘बैल’ एक पशु हैं जिसे लाने का आग्रह किया जाता है और ‘दही’ खाने की वस्तु है, जिसे बाह्य जगत में स्थित पदार्थ कहा जा सकता है। हमारे भाषाई अर्थ ऐसे ही स्पष्ट और असंदिग्ध होने चाहिए जैसे गणितीय वाक्य ‘दो और दो मिलकर चार होते हैं’ᅳ जिसमें संदेह की कोई गुंजाईश नहीं होती है। बिलकुल "खिड़की के शीशे की तरह साफ," जिनसे आर-पार देखा जा सके। परन्तु ऐसे शब्दों की संख्या सीमित होती है।
समस्या उन अनगिनत शब्दों को लेकर शुरू होती हैᅳ जैसे ‘और’, ‘में’, ‘अथवा’ ‘गणतंत्र’ ‘एवं’ 'यदि’ ‘प्रधानमंत्री के फ़ोन कॉल का क्या अर्थ है’ इत्यादि जिनका अर्थ किसी चित्र रूप में उपस्थित नहीं होता है। इस गणितीय भाषा की मुसीबत और भी बढ़ जाती है, जब हम सम्पूर्ण अर्थ को मुख्यार्थ में प्रयोग करने लगते है। जैसे निमंत्रण पत्रों में लिखा रहता है ‘अतिथियों से निवेदन है कि 7:15 पर समारोह में शामिल हो’ अब भाषा-शास्त्री होने के नाते न आप 7:14 पर पहुँच सकते है और न ही 7:16 पर। आप गेट पर घुसने के लिए जैसे ही पैर बढ़ाते है तो एक सेकंड गुजर जाता है और आपका घुसना नामुमकिन हो जाता है।
इस समस्या का समाधान करने के लिए हमारे पास एक ऐसी भाषा होनी चाहिए, जो वक्ता के अर्थ को ठीक ठीक यानि एक सौ प्रतिशत समझने में समर्थ हो। अक्सर ऐसा होता है कि आप कहते कुछ है, श्रोता कुछ दूसरा अर्थ निकाल लेता है, और विवाद शुरू हो जाता। हमारे राजनीतिविदों को तो इस कला में महारथ हासिल है। इस विवाद को मिटाने के लिए ही पारदर्शी भाषा की आवश्यकता पड़ती है।
नव्य नैयायिकों ने कुछ ऐसी ही कोशिश ९वी शताब्दी में की थी। पर उसकी सीमाएं निश्चित होने के कारण वह सिर्फ तात्त्विक भाषा बन के रह गई, उसका व्यावहारिक जीवन में कोई उपयोग न रहा। दृष्टान्तस्वरूप ‘भूतले घटः’ (भूतल में घट है) यह वाक्य लेते हैं। यहाँ ‘भूतल ’ आधार है ‘घट ‘ आधेय है, और उनके बीच एक सम्बन्ध है जिसे ‘संयोग’ (contact) सम्बन्ध कहा जाता है। हालाँकि, दार्शनिकों को लेकर एक किस्सा प्रसिद्ध है कि दार्शनिक हमेशा इस उलझन में फंसे रहते है कि पात्र में तेल है या तेल में पात्र है। इस उलझन को सुलझाने के लिए नव्य न्याय की स्पष्ट और स्वच्छ भाषा में उपर्युक्त वाक्य को इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता हैंᅳ “संयोगसम्बन्धावच्छिन्नभूतलत्वावच्छिन्नभूतलनिष्ठआधारतानिरुपितघटत्वावच्छिन्नघटनिष्ठआधेयता”, जो उपर्युक्त वाक्य के अर्थ को इस तरह से प्रकट करता है कि पाठक की नज़रों से अर्थ फिसल ही नहीं सकता, वाक्यनिष्ठ अर्थ ध्रुवतारे की तरह अटल हो जाता है। लेकिन ऐसा करना हमारी साधारण बोलचाल की भाषा में हद से ज्यादा क्लिष्टता उत्पन्न कर देता है। अतएव नव्य-नैयायिकों का यह प्रयास निष्फल साबित हुआ।
शायद इसी वजह से भाषा-दार्शनिक चुस्त और सटीक भाषा संधान करने के अपने आन्दोलन को स्थगित कर लोकव्यवहार की भाषा की तरफ मुड़ जाते हैं। हम इस चर्चा पर पुनः वापस आएंगे। फ़िलहाल Ludwig Wittgenstein के इस मशहूर कथन से इस लेख का समापन किया जा सकता हैं: "Whereof one cannot speak, thereof one must be silent।" अर्थात "जिसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता, उसके बारे में चुप रहना बेहतर है। यहाँ ‘न-कह सकना’ एक असमर्थता जाहिर करता है, तो ‘चुप रहना’ इस दावे का समर्थन भी करता है।
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डॉ मधु कपूर कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं। दर्शनशास्त्र के अलावा साहित्य में उनकी विशेष रुचि रही है। उन्हीं के शब्दों में, "दार्शनिक उलझनों की गुत्थियों को साहित्य के रास्ते में तलाशती हूं।" डॉ कपूर ने हिंदी से बंगला में कुछ पुस्तकों का अनुवाद किया है और कुछ कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। दर्शन पर उनके निबंधों का एक संग्रह Dice Doodle Droll Dance हाल ही में दिल्ली में सम्पन्न हुए विश्व पुस्तक मेला में रिलीज़ हुआ है।
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