अर्श से फर्श पर यूं ही नहीं पहुंची बसपा

राजकेश्वर सिंह | समाज एवं राजनीति | Nov 06, 2024 | 78

अर्श से फर्श पर यूं ही नहीं पहुंची बसपा

राजकेश्वर सिंह

उत्तर प्रदेश में 20 नवंबर को हो रहे उपचुनावों में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने चाहे सभी नौ सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किए हैं किन्तु कोई भी अब इस पार्टी को गंभीरता से लेने को तैयार नहीं है। 2007 में देश के सबसे बड़े राज्य में अपने बलबूते पर सरकार बनाने वाली पार्टी को पंद्रह बरस में ऐसा क्या हो गया कि अब वह सिर्फ एक वोट-कटवा पार्टी बन कर रह गई है। राजकेश्वर सिंह अपने इस विश्लेषण में इस घटना की पृष्ठभूमि बता रहे हैं।  

कामकाज के तौर-तरीकों और राजनीतिक नफा-नुकसान के प्रयोगों के चलते हाशिए पर जा चुकी मायावती की बहुजन समाज पार्टी (बसपा) एक बार फिर से सक्रिय होने की कवायद करती दिख रही है। अब उत्तर प्रदेश में हो रहे नौ विधानसभा सीटों के उपचुनाव में अपने प्रत्याशियों को उतार कर वह दूसरे दलों की हार-जीत की संभावनाओं को बनाने-बिगाड़ने की स्थिति पैदा करने में जुटी है। बसपा कभी उत्तर प्रदेश की राजनीति में बड़ी ताकत हुआ करती थी। उत्तर प्रदेश जब 18 सालों तक गठबंधन सरकारों के ही भरोसे रहा और कांग्रेस, भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियां एवं समाजवादी पार्टी (सपा) जैसी क्षेत्रीय पार्टियां भी डेढ़ दशक से अधिक समय तक अपने बूते सत्ता पर काबिज होने की सिर्फ जद्दोजहद ही करती रहीं, उस दौर में बसपा ने ही प्रदेश में जमीनी स्तर तक जाकर संगठन खड़ा किया और 205 विधायकों की बड़ी जीत के साथ 2007 में अपने बूते प्रदेश की सत्ता हथिया ली। अब उसी पार्टी का 403 सदस्यों वाली प्रदेश विधानसभा में सिर्फ एक विधायक है, जबकि लोकसभा में उसका कोई सांसद नहीं है। कभी उत्तर प्रदेश की सियासत में बुलंदी पर रही एक काडर आधारित और जमीनी पकड़ रखने वाली पार्टी का यह हश्र कैसे हुआ, यह विमर्श का विषय जरूर है। नीचे बसपा के उत्तर प्रदेश में लगातार गिरते जनाधार की बानगी आंकड़ों में देखिये:

2007 विधानसभा चुनाव  वोट शेयर  30.43%

2012 विधानसभा चुनाव  वोट शेयर  25.91%

2014 लोकसभा चुनाव    वोट शेयर 19.60%

2017 विधानसभा चुनाव  वोट शेयर  22.23%

2019 लोकसभा चुनाव    वोट शेयर 19.43%

2022 विधानसभा चुनाव  वोट शेयर  12.80%

2024 लोकसभा चुनाव    वोट शेयर  09.39%

शुरुआती दिनों में जब बसपा कमजोर थी तो सपा के साथ मिलकर उसने पहली बार गठजोड़ की सरकार बनाई थी। तब मुलायम सिंह दूसरी बार मुख्यमंत्री बने थे। उसके बाद भाजपा और बसपा भी गठजोड़ करके सरकार चलाई, लेकिन अब उसकी स्थिति यह है कि वह मुख्य लड़ाई से ही बाहर हो गई है। 2014 के लोकसभा चुनाव में उसका कोई प्रत्याशी नहीं जीता था। बसपा उत्तर प्रदेश में 2007 में जब सरकार में थी, तब 2009 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में उसके 19 सांसद थे।

दरअसल बसपा अकस्मात बनी पार्टी नहीं थी। पंजाब के रहने वाले बसपा संस्थापक कांशीराम ने अपने जीते जी बहुजनों को एकजुट करने के लिए दशकों जमीनी स्तर पर जबर्दस्त काम किया और उन्हें लामबंद करने में इतना कामयाब हुए कि देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में पार्टी की पूर्ण बहुमत की सरकार बन गई। उन्होंने प्रदेश में सरकारें बनवाईं और अपना मकसद न पूरा होने पर उन सरकारों को गिरवाया भी। प्रदेश में वह दौर गठबंधन सरकारों का था। यह वह दौर था, जब यह सब करते हुए बसपा उत्तर प्रदेश में जमीनी स्तर पर मजबूत हो रही थी। दलितों के अलावा पिछड़ों को भी पार्टी में उम्मीद की किरण दिखाई पड़ रही थी। दलित और मुसलमान शुरू से कांग्रेस के वोट हुआ करते थे। फिर एक दौर ऐसा भी आया जब अल्पसंख्यकों का भी बसपा में भरोसा बढ़ने लगा और पार्टी और मजबूत होती चली गई। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री रहते अयोध्या में राम मंदिर का ताला खुलने और कांग्रेसी प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के रहते बाबरी मस्जिद का विवादित ढांचा गिराए जाने से मुसलमानों ने भी कांग्रेस का साथ छोड़ दिया। शुरू में तो वह पूरी तरह सपा के साथ गया, लेकिन बाद में उसमें से एक हिस्से ने बसपा का रुख कर लिया।

इन स्थितियों के चलते एक तरफ बसपा मजबूत हो रही थी तो दूसरी तरफ उस समय तक राजनीति में मजबूत दखल रहने वाले सवर्णों को यह नहीं सूझ रहा था कि वे किस पार्टी में अपना भविष्य तलाशें, लेकिन बसपा की लगातार होती मजबूत स्थिति को देखते हुए 2007 के विधानसभा चुनाव में सवर्णों में खासतौर से कई ब्राह्मण नेताओं ने उससे जुड़ने में ही राजनीतिक भलाई समझी। विधानसभा चुनाव में उसका असर दिखा और गठबंधन सरकारों का दौर खत्म करते हुए बसपा ने अपने बल पर ही बहुमत के साथ प्रदेश सरकार बना ली। प्रदेश में 2007 में सरकार बनने के बाद दलितों, पिछड़ों, किसी हद तक अल्पसंख्यकों के साथ ही प्रदेश के ब्राह्मण मतदाताओं के भी बसपा से जुड़ जाने पर पार्टी प्रमुख मायावती ने उसको एक नई सोशल इंजीनियरिंग का नाम दिया। उत्तर प्रदेश के बाहर भी पार्टी के विस्तार का कार्यक्रम चला।

बसपा उत्तर प्रदेश में तो एक बड़ी राजनीतिक ताकत थी ही, प्रदेश के बाहर पंजाब, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान और दक्षिण भारत के राज्यों में भी उसकी अपने मतदाताओं पर बड़ी पकड़ बनी। तब बसपा की सभाओं में नारे लगते थे, ‘ब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी (बसपा का चुनाव चिन्ह) दिल्ली जाएगा। इसके अलावा ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रम्हा, विष्णु, महेश है’ जैसे नारे लगते थे, लेकिन अब वही बसपा उत्तर प्रदेश में ही कहीं की नहीं रह गई है और यह सब तब हुआ, जब लगभग तीन दशक से पार्टी की सर्वेसर्वा मायावती ही हैं।

दरअसल 2019 लोकसभा का चुनाव बसपा ने सपा के साथ मिलकर लड़ा था। उस चुनाव में उसके दस सांसद लोकसभा पहुंचे, जबकि 2014 में वह एक भी प्रत्याशी नहीं जिता सकी थी। चुनाव खत्म होते ही मायावती ने सपा से गठबंधन तोड़ दिया। अपने आक्रामक स्वभाव के लिए जानी जाने वाली मायावती ने उसके बाद एक तरह से चुप्पी साथ ली। पार्टी के तमाम नेता कुछ समय तक तो उनकी चुप्पी को नहीं समझ पाये, लेकिन बाद में जब उन्हें लगा कि पार्टी सुप्रीमो ने विपक्ष की मजबूत भूमिका निभाने के बजाय मौजूदा सत्ता के खिलाफ खुद को निष्क्रिय कर लिया है, तब वे दूसरे दलों में चले गये। मायावती निष्क्रिय क्यों हुईं, इस पर कई कयास लगाए जाते हैं किन्तु हम उन पर फिलहाल नहीं जा रहे। मायावती के उस रुख के बाद से पार्टी का वोट आधार लगातार घटता गया और वह हाशिए पर चली गई।

बसपा के हाशिए पर चले जाने का एक अर्थ यह भी है कि दलित समाज को उसके राजनीतिक अधिकारों को दिलाने वाली पार्टी जिसे कांशी राम ने स्थापित किया था, और जिसने दलितों को राजनीति में गर्व से सिर उठाने का अवसर दिया था, अब ऐसी स्थिति में पहुँच गई है कि उसका पुनरुद्धार असंभव जैसा ही लग रहा है। चुनावी राजनीति में इस घटना के प्रभाव को पूरी तरह नज़र-अंदाज़ भी कर दें तो भारतीय लोकतन्त्र के लिए यह घाटे का ही सौदा है।

------------------

राजकेश्वर सिंह राजनीतिक विश्लेषक व वरिष्ठ पत्रकार हैं। वह नियमित रूप से रागदिल्ली.कॉम के लिए लिखते रहते हैं।

डिस्क्लेमर : इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं और इस वैबसाइट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। यह वैबसाइट लेख में व्यक्त विचारों/सूचनाओं की सच्चाई, तथ्यपरकता और व्यवहारिकता के लिए उत्तरदायी नहीं है।



We are trying to create a platform where our readers will find a place to have their say on the subjects ranging from socio-political to culture and society. We do have our own views on politics and society but we expect friends from all shades-from moderate left to moderate right-to join the conversation. However, our only expectation would be that our contributors should have an abiding faith in the Constitution and in its basic tenets like freedom of speech, secularism and equality. We hope that this platform will continue to evolve and will help us understand the challenges of our fast changing times better and our role in these times.

About us | Privacy Policy | Legal Disclaimer | Contact us | Advertise with us

Copyright © All Rights Reserved With

RaagDelhi: देश, समाज, संस्कृति और कला पर विचारों की संगत

Best viewed in 1366*768 screen resolution
Designed & Developed by Mediabharti Web Solutions