समाज निर्माण के लिए परस्पर वार्तालाप अनिवार्य
हमें क्यों लगने लगा है कि हमें सब जानकारी है? क्यों हमारा ज्ञान इतना सीमित हो गया है कि हमें किसी की सुनने की आवश्यकता ही नहीं रही?
आज हम जीवन के किसी भी क्षेत्र में देखें, सामाजिक, राजनीतिक या दैनंदिन आचार-व्यवहार – हर जगह एक सहज विनम्रता और सहिष्णुता की कमी है। हम एक दूसरे की बात जैसे सुनना ही नहीं चाहते और अगर सुनते हैं तो उस पर हमारी प्रतिक्रिया कड़वाहट भरी होती है जैसे हम आगे कोई संवाद करना ही नहीं चाहते।
राजनेताओं पर आदर्श रूप से ये ज़िम्मेवारी होती है कि वो समाज का मार्गदर्शन करेंगे, समाज किस दिशा में जाये, ये तय करेंगे, लेकिन दुर्भाग्य से आजकल हमारे राजनेता ही सबसे कम सुनने वाले साबित हो रहे हैं। ऐसा लगता है जैसे उनका दो-तरफा संवाद से विश्वास जैसा उठ गया है और वह सिर्फ अपनी बात कहना चाहते हैं।
क्या यह स्थिति चिंताजनक नहीं है? क्यों हों गए हम लोग ऐसे? क्या अहंकार है इसके पीछे? लगता तो ऐसा ही है! और अहंकार या अहम या ‘मैं ही’ का भाव किसी के भी पतन का सबसे बड़ा कारण होता है। रावण हो या कंस, हिरण्यकश्यप हो या दुर्योधन –हमारे मिथकों में आने वाले सभी नकारात्मक चरित्र अहंकारी ही होते हैं।
इसलिए समाज के तौर पर हमें सदैव ये स्मरण रखना होगा कि हमें सीखना और जानना नहीं छोडना है। ज्ञान की धारा अनवरत तभी चलेगी जब हम सीखने की और जानने की अपनी इच्छा को बनाएँ रखेंगे। नहीं तो ज्ञान जस का तस ठहर जाएगा और कोई भी ठहरी हुई चीज़ प्रदूषित होने लगती है। इसलिए हमें सीखने के लिए जो विनम्रता होनी चाहिए, वो बनाए रखने होगी।
और ज्ञान तो असीम है! सूक्ष्मतम अणु से लेकर बृहद ब्रहामण्ड की जानकारी हमें सीखने की अदम्य इच्छा से और फिर किसी जानकार विद्वान अनुभवी द्वारा ही मिल सकती है। सदैव से मानव मस्तिष्क में अनेकानेक प्रश्न व ग्रन्थियां रही हैं जिनके उत्तर व समाधान हमारे ऋषि-मुनियों ने, विद्वानों ने, गुरूओं ने और हमारे आस-पास के अनुभवी लोगों ने, जिनमें हमारे परिवार के सदस्य और माता-पिता शामिल हैं, हमें प्रदान किए हैं। इसी तरह के अर्जित ज्ञान से निरंतर हमारे मस्तिष्क पोषण होता रहा है।
यह ज्ञान-परम्परा सदैव से हमारे समाज का, हमारे धर्म का हिस्सा रही है। हमारे उपनिषद और हमारे वेदों सहित हमारे सभी ग्रंथों में हम पाते हैं कि इनमें सदैव से वार्तालाप का प्रावधान रहा है। चाहे महाभारत देखें या रामायण में जहां शिव-सती के प्रश्न उत्तर में ही हर जिज्ञासा पर विचार होता है और उसका समाधान दिखता है।
हमारे शास्त्र श्रुति पर आधारित हैं। परस्पर वार्तालाप पर महत्व सदैव से ही दिया जाता रहा है। उसी में से समस्याओं का समाधान और जिज्ञासाओं का उत्तर हमें प्राप्त होता है। जैसे धृतराष्ट्र के प्रश्न और संजय के उत्तर!
श्री कृष्ण-अर्जुन संवाद जगत-प्रसिद्ध भगवत गीता में जीवन-रचित हर समस्या का समाधान वार्तालाप पर आधारित है। मानव जीवन के प्रतीक पहलू - चाहे वह सामाजिक हो या आर्थिक हो, राजनैतिक हो या आध्यात्मिक – गीता हमारा मार्गदर्शन करती है।
भक्तिकाल के सभी महापुरुषों ने चाहे वो गुरुनानक हों या कबीर, संत रविदास हों या मीराबाई – सभी ने विनम्रता और परस्पर वार्तालाप पर बहुत ज़ोर दिया है। कबीर तो माटी से वार्तालाप करने में भी नहीं झिझकते! वह कहते हैं “माटी कहें कुम्हार से........”!
मनुष्य और जानवर में यही तो भेद है कि जानवर वार्तालाप नहीं कर सकते जबकि हमारे पास बुद्धि है जो निरंतर विकसित होती है। एक स्वस्थ वातावरण में जहां हमें व्यवहार सीखना पड़ता है, केवल सुनी सुनाई बातों पर विश्वास न कर कुछ तो विचार करना सोच करना चाहिए कि एक सभ्य समाज का निर्माण ऐसे वातावरण में कैसे संभव है, जहां सब के साथ सब के कल्याण की बात ना सोच कर लोग केवल अपना अहम और अपना स्वार्थ सर्वोपरि रखें?
समाज में इतनी नकारात्मकता कैसे विकसित हो गई? यह तो मानवता नहीं कि जहां केवल कुछ का ही हित हो और उससे चाहे समाज का अहित ही क्यों न हो रहा हो। कोई संदेह नहीं कि समाज में अनेक समस्याएं हैं। लेकिन उनका समाधान भी संभव है यदि हम व्यक्तिगत अहम छोड़ कर सर्वत्र मानव के लिए श्रद्धापूर्ण ढंग से प्रयास करें। मुझे ये कहने में संकोच नहीं कि हमारे उपनिषद और वेद – जिनसे हमें संवाद और वार्तालाप का पाठ भी मिलता है, इस काम में हमारे सच्चे मार्गदर्शक हो सकते हैं।
मैंने अन्य धर्मों का बहुत अध्ययन नहीं किया लेकिन जानकारों से हुई चर्चा के आधार पर कह सकती हूँ कि हर मत और हर धर्म में अहंकार को तो बुरा ही माना गया है और दूसरी तरफ परस्पर प्रेम और वार्तालाप को कहाँ बुरा माना जा सकता है। ज्ञान की धारा अनवरत चलती रहे, इसके लिए आवश्यक है कि हमें श्रद्धापूर्वक सीखते रहना होगा. जैसा कि शास्त्रों में कहा गया है – श्रद्धावान लभते ज्ञानम!
--इन्दु मेहरा
(लेखिका आध्यात्मिक और समाज-शास्त्रीय विषयों की जानकार हैं)