भाजपा से कैसे लड़े अपनों से ही हलकान कांग्रेस...!

राजकेश्वर सिंह | समाज-एवं-राजनीति | Oct 24, 2024 | 210

देश की सत्ता पर काबिज भाजपा की अगुवाई वाले राजग गठबंधन के मुकाबिले में खड़े विपक्षी इंडिया गठबंधन में वैसे तो कई दल हैं, लेकिन यह अपने आप में बड़ा प्रश्न है कि उसमें भी सबसे ज्यादा सवाल कांग्रेस से ही क्यों होते हैं? 

देश में चाहे केंद्र की राजनीति हो या फिर राज्यों की- उसमें भी राजग के घटक दल ही नहीं, बल्कि कई मर्तबा इंडिया गठबंधन के दल ही कांग्रेस के किरदार सवाल उठाने लगते हैं। लोकसभा चुनाव के पहले हुए पांच राज्यों के चुनावों में कांग्रेस से अपने गठबंधन के दलों को नजरंदाज कर जिस तरह से अकेले चुनाव लड़ा, तब भी वह अपने ही साथियों के निशाने पर थी। तब अपनी कार्यशैली के चलते ही उसने दो राज्यों में अपनी सरकार गवां दी थी। हरियाणा के हालिया चुनाव में भी उसके अकेले चलने को लेकर सवाल उठे। माना जा रहा है कि वहां भी अपनी ही कारगुजारियों की वजह से वह तीसरी बार भी सत्ता से बाहर रह गई। जाहिर है कि देश की राजनीति में सबसे पुरानी पार्टी पर यदि विपक्षी और कई बार उसके सहयोगी भी उस पर प्रश्न खड़ा करते हैं तो उसके पीछे कुछ मजबूत वजहें तो होंगी ही। लिहाजा उस पर विमर्श तो होना ही चाहिए। 

इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि देश की बेहतरी में विपक्ष की भी सकारात्मक जिम्मेदारी की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। ऐसे में एक स्वस्थ लोकतंत्र में मजबूत और जनता के प्रति जवाबदेह विपक्ष का होना भी बहुत जरूरी है, लेकिन कांग्रेस जैसी देश की मुख्य विपक्षी पार्टी इस मोर्चे पर  लगातार कमजोर साबित हो रही है। 

हालिया दो राज्यों हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनावों के नतीजों ने भी कुछ ऐसे सवालों को जन्म दिये हैं, जिससे कांग्रेस और उसकी राजनीति फिर सवालों के घेरे में है। केंद्र की सत्ता में भाजपा की अगुवाई वाली नरेंद्र मोदी की सरकार को दस बरस बीत गये और वह तीसरी बार फिर से सत्ता में है। लोकसभा चुनाव के पहले भी पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए थे, तब भी उसमें से चार राज्यों में भाजपा जीती थी, जबकि भाजपा से सीधे मुकाबले में होने के बावजूद कांग्रेस मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में उससे हार गई। 

हाल में वह हरियाणा में भी भाजपा से सीधे मुक़ाबले में थी। सारे राजनीतिक पंडित और मुख्यधारा की मीडिया के अलावा एक्जिट पोल भी वहां कांग्रेस की जबर्दस्त वापसी की भविष्यवाणी कर रहे थे, लेकिन कांग्रेस वहां भी हार गई। अलबत्ता जम्मू-कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस के साथ उसका गठबंधन जीता है, लेकिन 90 में से महज छह सीटों पर सिमटी कांग्रेस वहां भी कुछ खास नहीं कर पाई है। तब से ही यह सवाल उठने लगा है कि आखिर कांग्रेस भाजपा से सीधी लड़ाई में लगातार क्यों और कैसे हारती जा रही है ? क्या उसके पीछे कांग्रेस की बुनियादी सोच की गड़बड़ी है या फिर भाजपा से लड़ते-लड़ते बीते दस वर्षों में वह अब थक चुकी है या फिर उसके मूल ढांचे में ही कुछ ऐसी खराबी आ गई है, जिसे वह चाहकर भी ठीक नहीं कर पा रही है। हालांकि, यह बात अलग है कि देशभर में फैली और पुरानी पार्टी होने के नाते विपक्षी इंडिया गठबंधन ब्लॉक में उसकी हैसियत ठीक है, लेकिन इसके बावजूद जमीनी और चुनावी लड़ाई में उसका प्रदर्शन बार-बार खराब हो रहा है। 

कांग्रेस की इस असहाय स्थिति का सही जवाब तो उसके पास ही होना चाहिए।  या फिर वह खुद ही अपनी कमजोरियों से अंजान है, जिससे वह उसका इलाज नहीं कर पा रही है। हकीकत जो भी हो, लेकिन दीवार पर लिखी एक इबारत तो हर कोई पढ़ सकता है कि कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व राज्यों में पैर जमाकर बैठे अपने ही क्षत्रपों के आगे लाचार हो गया है। वे क्षत्रप अपनी ही पार्टी के आलाकमान की नहीं सुनते, जबकि संबंधित राज्य में बचा-खुचा भी गवां देने के डर एसआर केंद्रीय नेतृत्व उन्हें मनमानी करने से रोक नहीं पाता। ऐसी भी नजीरें हैं की जहां कहीं उसने कुछ कड़ा कदम उठाने की कोशिश भी की, वहां उसके ही क्षत्रपों ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा। पंजाब इसका एक सटीक उदाहरण है, जहां उसके कई बार के मुख्यमंत्री रहे कैप्टन अमरिंदर सिंह से टकराने में वह राज्य ही उसके हाथ से फिसल गया और आम आदमी पार्टी जैसा नया राजनीतिक दल वहां की सत्ता पर काबिज हो गया।  

मध्य प्रदेश में इस बार से पहले के विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस सत्ता में आ गई थी। कमलनाथ मुख्यमंत्री थे। ज्योतिरादित्य सिंधिया से उनके मतभेद इस हद तक बढ़े कि उन्होंने कांग्रेस को तोड़कर वहां भाजपा की सरकार बनवा दी और केंद्रीय नेतृत्व कुछ नहीं कर सका। तब भी वह कमलनाथ के सामने कमजोर साबित हुई। कह सकते हैं कि वह सिंधिया को भी अपने पास रोक सकती थी, लेकिन वह उसमें भी असफल ही रही। उसके बाद हुए विधानसभा चुनाव में सीट से लेकर टिकट बंटवारे तक में कमलनाथ ने फिर मनमानी की। चुनाव जीतने के लिए केंद्रीय नेतृत्व के फार्मूले को दरकिनार किया और वहां फिर से पार्टी सत्ता से बाहर हो गई। 

राजस्थान में कांग्रेस की सरकार थी। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पूर्व में उप मुख्यमंत्री रहे सचिन पायलट के बीच पांच साल खुलकर झगड़ा चला। कांग्रेस आलाकमान उन दोनों का झगड़ा निपटाने में भी फेल साबित हुआ और आलाकमान के स्तर से बहुत देर में हुई दाखल के बाद जब वे दोनों एकजुट दिखे भी तो वह मतदाताओं के गले नहीं उतरा। विधानसभा चुनाव बाद वहां भी कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई। 

इसी तरह छतीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और टीएस सिंह देव के बीच खींचतान सबके सामने थी। कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व उन दोनों को यह एहसास नहीं करा सका कि पार्टी हित सबसे ऊपर है, नतीजा यह हुआ कि राजनीतिक विश्लेषकों की नजर में वहां का जीता हुआ चुनाव भी पार्टी हार गई। जाहिर है ये परिस्थितियां कांग्रेस के लिए चिंता का सबब तो हैं ही, लेकिन उससे सरकार के सामने एक मजबूत विपक्ष होने का विकल्प भी कमजोर पड़ रहा है। 

दूसरी तरफ, चाहे-अनचाहे कांग्रेस की इस कमजोरी का फायदा इंडिया गठबंधन में उसके सहयोगी दल भी उठाने में नहीं चूकते। इन परिस्थितियों में कांग्रेस को अपनी राजनीति के तौर-तरीकों पर फिर से गंभीर चिंतन की दरकार से इनकार नहीं किया जा सकता। हालांकि वह इस दिशा में कब और क्या करेगी? इसका जवाब भविष्य के गर्भ में है। 

राजकेश्वर सिंह राजनीतिक विश्लेषक व वरिष्ठ पत्रकार हैं। वह नियमित रूप से रागदिल्ली.कॉम के लिए लिखते रहते हैं।

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