केजरीवाल की ज़मानत – चिंताएं बरकरार रहेंगी
अरविन्द केजरीवाल को सर्वोच्च न्यायालय ने ज़मानत दे दी तो किसी को आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि खबरों पर थोड़ी-बहुत निगाह रखने वाले साधारण नागरिक को भी अब इस ट्रेंड का ज्ञान है कि लोअर कोर्ट्स और अधिकांश मामलों में हाई कोर्ट्स भी ऐसे किसी मामले में ज़मानत नहीं दे रहीं जिसमें केंद्र सरकार की किसी एजेंसी ने (ज़्यादातर मामलों में ED और बचे हुए मामलों में CBI) किसी राजनीतिक व्यक्ति पर मुकदमा दायर किया हो। यह निष्कर्ष हमारा नहीं है बल्कि सुप्रीम कोर्ट ने पिछले कई मामलों में ज़मानत देते हुए इस बात को रेखांकित किया है कि चूंकि लोअर कोर्ट्स और हाई कोर्ट्स ज़मानत देने में कंजूसी कर रहे हैं, इसलिए सुप्रीम कोर्ट पर यह बोझ बढ़ रहा है और जिन मामलों को यहाँ तक आना ही नहीं चाहिए था, उनकी सुनवाई भी सुप्रीम कोर्ट को करनी पड़ रही है।
हम और आप इस बात पर खुश हो सकते हैं कि अरविंद केजरीवाल वाले मामले में तो सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को कड़ी फटकार भी लगाई और खुले तौर पर एजेंसी की इस बात के लिए आलोचना की भी कि उसने यह मामला इसलिए दायर किया लगता है कि केजरीवाल ED वाले मामले में मिली ज़मानत का लाभ ना ले सकें। लेकिन सच बात ये है कि इस तरह की फटकारें सरकारी वकील और सरकारी एजेंसियां पहले भी सुप्रीम कोर्ट से खा चुकीं हैं पर हर मामला अपने आप में अलग होता है और एजेंसियों का पुराना रवैय्या जारी रहता है। यदि ऐसा ना होता तो भला सुप्रीम कोर्ट के बार-बार ये याद दिलाने पर भी कि “bail is the rule and jail an exception”, ना तो निचले न्यायालय और ना ही एजेंसियां इस नियम का पालन करती दिख रही हैं।
कुल मिलाकर स्थिति ये है कि सही और गलत के बीच बार-बार अंतर बताए जाने के बावजूद लोअर कोर्ट्स और यहाँ तक कि हाई कोर्ट्स भी सही चुनने को तैयार नहीं है। और यही चिंता का विषय है। तो इसलिए बीच-बीच में किसी केजरीवाल, किसी कविता या किसी सिसोदिया को ज़मानत मिलने से लोकतन्त्र फौरी राहत तो महसूस कर सकता है लेकिन निश्चिंत नहीं हो सकता।
इसका एक निष्कर्ष ये भी है कि लोकतान्त्रिक मूल्यों को सहेज कर रखने का काम, उन्हें संरक्षित करने का काम राजनीतिज्ञों को तो छोड़िए, न्यायपालिका पर भी नहीं छोड़ा जा सकता क्योंकि अब देखने में आ रहा है कि न्यायपालिका में भी केवल सुप्रीम कोर्ट और उसमें भी केवल कुछ चुनिन्दा न्यायाधीश ही कार्यपालिका के विरुद्ध जाकर निर्णय ले पाते हैं। पहले कुछ हाई कोर्ट्स या उनके कुछ न्यायाधीश हिम्मत दिखाते थे किन्तु धीरे धीरे अब ऐसे जज कम होते जा रहे हैं। इसका सबसे बड़ा कारण ये है कि हाई कोर्ट का चीफ जस्टिस बनने में सुप्रीम कोर्ट के कोलीजियम द्वारा संस्तुति किए जाने के बावजूद कार्यपालिका की निर्णायक भूमिका रहती है। उदाहरण के लिए कल ही सुप्रीम कोर्ट को केंद्र सरकार के वकील ने एक सुनवाई के दौरान बताया कि सुप्रीम कोर्ट के कौलीजियम ने जिन नामों की हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस बनने की संस्तुति की है, सरकार उन्हें नियुक्त नहीं कर पा रही क्योंकि सरकार के पास उनके खिलाफ कुछ ऐसी जानकारी है जिसे वह ओपन कोर्ट में नहीं बता सकते और सरकारी वकील ने इस जानकारी को बंद लिफाफे में देने का वादा किया है। कुल मिलाकर यह कि न्यायपालिका का ऊपरी हिस्सा भी कार्यपालिका के भारी दबाव में है और वहाँ से सही समय पर उचित न्याय मिल ही जाएगा, इसका कोई विश्वास नहीं उपजता।
फिर लोकतान्त्रिक मूल्यों के संरक्षण का काम किसके ज़िम्मे है तो हमारा यह जवाब पिटा-पिटाया और दिखावटी जवाब (rhetoric) लग सकता है किन्तु हम इसके अलावा क्या कहें कि यह आम लोगों के ही ज़िम्मे है। अब आम लोग कैसे अपने मौलिक अधिकारों का संरक्षण करते हैं और कैसे अपनी अभिव्यक्ति की आज़ादी बनाए रखते हैं, यह तो कई संयोगों और कारकों पर निर्भर करेगा जिनकी चर्चा हम फिर कभी करेंगे।
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