जानलेवा सफ़ेद क्राईसोटाइल एसबेस्टस से भोजपुर में
डॉ गोपाल कृष्ण
इन दिनों स्विट्ज़रलैंड की राजधानी जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र की परिसंकटमय जहरीले रसायनों के विषय पर एक सम्मलेन चल रहा है। यह सम्मलेन 29 अप्रैल को शुरू हुआ और 10 मई को समाप्त होगा। रॉटरडैम संधि के इस नवें सम्मलेन में सफ़ेद क्राईसोटाइल एसबेस्टस को परिसंकटमय रसायनों की सूची में शामिल करने की बात पर भी चर्चा होगी। संयुक्त राष्ट्र की रसायन समिति ने इसे सूची में जोड़ने की अनुशंसा की है। मगर रूस और कज़ाकस्तान जैसे एसबेस्टस खनिज उत्पादक देश इसका कई वर्षों से विरोध कर रहे है। इन देशों की कंपनियों और सरकारों के दबाब में भारत सरकार भी इसका विरोध कर रही है।
भारत सरकार का विरोध अवैज्ञानिक और हास्यास्पद है क्योंकि भारतवासी मज़दूरों और नागरिकों के स्वास्थ्य के मद्दे नज़र भारत सरकार ने सफेद क्राईसोटाइल एसबेस्टस के सहित सभी प्रकार के परिसंकटमय कैंसरकारक एस्बेस्टस पर 1986 में ही पाबंदी लगा दी थी। यह अत्यंत हैरतअंगेज बात है कि देशी व विदेशी कंपनियों के दबाब में रसायन मंत्रालय विदेशी क्राईसोटाइल को परिसंकटमय नहीं मानती है। यहाँ ये स्मरणीय है कि भारत सरकार द्वारा 1986 की एस्बेस्टस पर पाबंदी केवल उसके खनन पर थी, उसके व्यापार, उत्पादन और इस्तेमाल पर नहीं।
भारत सरकार द्वारा एस्बेस्टस कचरे के तिजारत पर भी पाबंदी लगा हुई है। मगर कंपनियों के प्रभाव में रसायन मंत्रालय यह नहीं समझ पा रहा कि सभी एस्बेस्टस आधारित वस्तुओं की एक जीवन-सीमा होती है उसके बाद वे एस्बेस्टस कचरा में परिवर्तित हो जाएंगे। भारत के राष्ट्रपति भवन सहित सभी निजी और सरकारी मकान और दफ्तर, अस्पताल, रेलवे प्लेटफार्म और विद्यालय एस्बेस्टस छतों और पदार्थो से लैस है। इससे स्पष्ट है कि रसायन मंत्रालय का रवैया आत्मघाती है और वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों के लिए जानलेवा है।
भारत के फैक्टरी कानून और पर्यावरण कानून ने भी सफ़ेद क्राईसोटाइल एस्बेस्टस को परिसंकटमय चिन्हित किया है।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने 27 जनवरी, 1995 के एक फैसले में सभी प्रकार के एस्बेस्टस को परिसंकटमय और कैंसरकारक बताया है और भारत सरकार व राज्य सरकारों को निर्देश दिया है कि वे अपने एस्बेस्टस से जुड़े नियमों को अन्तर्राष्ट्रीय मज़दूर संगठन के एस्बेस्टस सम्बंधित प्रस्तावों के अनुकूल करे। इस संयुक्त राष्ट्र से जुडी संगठन ने जून 2006 में प्रस्ताव पारित करके साफ़ कर दिया कि एस्बेस्टस के प्रकोप से बचने के लिए इस पर पाबंदी लगाना ही एक मात्र कारगर रास्ता है। मगर भारत सरकार और राज्य सरकारों ने इस दिशा निर्देश को नजरअंदाज कर दिया है। इसका परिणाम है कि भारत में तक़रीबन 50,000 लोग सालाना एस्बेस्टस जनित रोगों के शिकार हो रहे है।
बिहार के भोजपुर के बिहिया में मजदूरों और ग्रामीणों को सफ़ेद क्राईसोटाइल एसबेस्टस के दुष्प्रभाव से जुझना पड़ रहा है. बिहिया में तमिलनाडु की एक कंपनी के दो कारखानो का ताण्डव जारी है. इस स्थान के ग्रामीणों और आस-पास के खेती की भूमि, विद्यालयों व मंदिरों को दुष्प्रभाव झेलना पड़ रहा है।
भोजपुर जिले मे एस्बेस्टस कारखानो के कारण मजदूरो की मौत का सिलसिला शुरू हो चुका है.
मजदूरों के विरोध को कंपनी ने प्रशासन की मदद से कुचल दिया है। ठेके पर काम कर रहे मजदूरों की विरोध करने की क्षमता सीमित है। इन कारखानों का स्थानीय लोग विरोध रहे हैं। बिहार राज्य मानव अधिकार आयोग इस मामले की पड़ताल कर रही है।
" मृतक की मौत"
भोजपुर प्रशासन और सिविल सर्जन की एस्बेस्टस कम्पनी के कारखाने पर अपने संयुक्त जाँच रिपोर्ट में मज़दूर की मौत को "मृतक की मौत" बताया गया है। मज़दूर के परिवार को तमिलनाडु की इस कंपनी द्वारा 5,000 रुपया दिया गया जबकि सुप्रीम कोर्ट के 27 जनवरी 1995 के फैसले के अनुसार एस्बेस्टस से ग्रसित व्यक्ति को एक लाख का मुआवजा देना होता है।
मज़दूर की बेटी ने आयोग में शिकायत दर्ज करवाई है। सिविल सर्जन ने अपनी रिपोर्ट में आज भी लिखा की मृतक कारखाने में रसोइया का काम करता था। उन्होंने ऐसा कंपनी के दबाब में किया क्योंकि यदि मृत मज़दूर को सरकारी दस्तावेज में एसस्बेट्स "मज़दूर" मान लिया जाता तो कंपनी को उसे कानूनसम्मत और सुप्रीम कोर्ट के जनवरी 27, 1995 के फैसले के आलोक में मुआवजा देना पड़ता। इस फैसले के अनुसार एस्बेस्टस कंपनियों को अपने कारखाने में काम कर रहे मज़दूरों का मेडिकल रिकॉर्ड 40 साल तक रखना होता है। उन्हें यह रिकॉर्ड उनके रिटायर होने के बाद भी 15 साल तक रखना होता है।
इस कारखाने के आस-पास के ग्रामीण लोग भी इससे होने वाले प्रदूषण और जहरीले कचरे से परेशान है. बिहार राज्य प्रदूषण बोर्ड ने वैशाली और भोजपुर के मामले मे दोहरा मापदंड अख्तियार कर लिया है। नियम के अनुसार 500 मीटर के रिहायशी इलाक़े मे ऐसे कारखाने को स्थापित नही किया जा सकता है। वैशाली के लोगो को इस नियम को लागू करके बचा लिया गया लेकिन भोजपुर में इस नियम को लागू नही किया जा रहा है. इस बात का संज्ञान पटना उच्च न्यायालय ने भी संज्ञान लिया था मगर कोई राहत नहीं दी गई।
बिहार के वैशाली और मुज़फ्फरपुर जिले में ग्रामीणो ने संगठित विरोध कर एस्बेस्टस कारखाने के निर्माण को रोक दिया। इसके विरोध में सैकड़ों लोग सड़कों पर उतरे।
एसबेस्टस कैंसर कारक है। वैज्ञानिक शोधों ने इसे कैंसर की बड़ी वजह बताया है। यह जानते हुए भी कि यह इतना हानिकारक है, भारत सरकार इसके आयात को रोक नहीं रही है। दुनिया के 66 देशों ने इसे प्रतिबंधित कर दिया है। यूरोपियन यूनियन और पश्चिमी देशों में इसका प्रयोग प्रतिबंधित है क्योंकि आँकड़ों के मुताबिक़ इसके दुष्प्रभावों से लाखों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी है।
सस्ता होने की वजह से घर बनाने के लिए एसबेस्टस की खूब मांग है. एसबेस्टस का सबसे ज्यादा इस्तेमाल छत और पानी की पाइप बनाने में होता है. एसबेस्टस के बारीक रेशे सांस के साथ फेफड़ों तक जाते हैं और कई बीमारियां पनपाते हैं। मेडिकल रिसर्च में साफ हुआ है कि इसके शिकार लोगों में सांस तेज चलने, फेफड़ों में कैंसर या छाती में दर्द की बीमारियां देखी जाती है। माइक्रोस्कोप में दिखने वाला एसबेस्टस का रेशा एक बार शरीर में घुसने केे बाद लंबे समय तक वहां बना रहता है।
एसबेस्टस का कभी पश्चिमी देशों में खूब इस्तेमाल हुआ। लेकिन जब 10-40 साल बाद फेफड़ों के कैंसर, मिसोथेलिओमा और एसबेस्टोसिस जैसी बीमारियां सामने आने लगीं, तो जोखिम का पता चला।
भारत के केंद्रीय श्रम मंत्रालय ने सितम्बर 2011 में एक अंतरराष्ट्रीय सम्मलेन में यह खुलासा किया कि भारत सरकार सफ़ेद क्राईसोटाइल पर पाबंदी लगाने पर विचार कर रही है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लागू करने के लिए एक समिति भी बनायीं। मगर एस्बेस्टस कंपनियों के प्रभाव में चुप्पी साध ली।
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन, विश्व स्वास्थ्य संगठन और 66 से ज्यादा देशों के स्वास्थ्य विशेषज्ञ एसबेस्ट्स के पर पूरी तरह पाबंदी लगाने की वकालत करते हैं। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के मुताबिक एसबेस्टस उद्योग में नौकरी करने वाले एक लाख लोग हर साल मारे जाते हैं। सफ़ेद एसबेस्टस सबसे आम प्रकार हैं. चीन के बाद भारत एसबेस्टस का दूसरा सबसे बड़ा बाजार है।
वैज्ञानिक सत्य और मुनाफाखोरों के बीच के द्वन्द के कारण जिनेवा में हो रहे सम्मलेन में परिसंकटमय कैंसरकारक सफ़ेद क्राईसोटाइल को परिसंकटमय रसायनों की सूची में डालने का प्रयास कई सालों से असफल रहा है। 1898 में ही ब्रिटेन सरकार ने अपने वार्षिक रिपोर्ट में या स्पष्ट कर दिया था कि एस्बेस्टस एक धीमा जहर जैसा है। इसका खुलासा जॉर्ज वाशिंगटन विश्वविद्यालय के स्वास्थ्य शास्त्री डेविड माइकल्स ने अपनी किताब "Doubt is their industry: How Industry's Assault on Science Threatens Your Health" में किया है। मगर मुनाफाखोरों के प्रभावी वर्चस्व ने विज्ञानसम्मत निर्णय लेने से अभी तक भारत सरकार को रोक रखा है।
भारत सरकार के नेशनल हेल्थ पोर्टल में यह साफ़ लिखा है कि सफ़ेद क्राईसोटाइल एस्बेस्टस सहित सभी एस्बेस्टस कैंसरकारक है। ऐसे में जिनेवा में भाग ले रहे भारतीय प्रतिनिधिमंडल की तार्किक बाध्यता है कि वे इसके परिसंकटमय रसायनों की सूची में शामिल किये जाने के संयुक्त राष्ट्र रसायन समिति की अनुशंसा का समर्थन करे। अन्यथा उन्हें भी "मृतक" की मौत जैसी हास्यस्पद बयान का सहारा लेना पड़ेगा।
मई 10 तक एक बार फिर यह तय होगा कि सरकार मुनाफाखोरों के लिए चलेगी या विज्ञान और जन स्वास्थ्य के लिए।
*The author is a noted environmentalist and a law and public policy analyst. He is also the editor of www.toxicswatch.org