आँखों देखी बेरोज़गारी व असंगठित क्षेत्र की परेशानियाँ
दिल्ली (या फिर बंगलौर, मुंबई आदि महानगरों) में बैठे हमें यह अंदाज़ नहीं हो पाता कि छोटे-छोटे कस्बों में आम लोगों के रोज़गार की क्या स्थिति है और उन्हें अपने दैनंदिन जीवन में क्या मुश्किलें झेलनी पड़तीं हैं और दूसरी तरफ ये भी कि उनकी क्या आकांक्षाएं हैं, उनके क्या सपने हैं। कल जब इंडियन एक्सप्रेस अखबार में बेरोज़गारी पर एक संपादकीय पढ़ रहा था तो मुझे याद आई अपनी हाल में सम्पन्न हुई एक यात्रा की जिसके दौरान हमें इस बात का अहसास हुआ कि चित्रकूट और खजुराहो जैसे पर्यटक स्थलों में भी लोग किस कदर बेरोज़गारी या प्रच्छन्न बेरोज़गारी का सामना कर रहे हैं।
सितंबर माह के दूसरे सप्ताह में जब हम खजुराहो में थे तो ‘टूरिस्ट सीज़न’ की शुरुआत नहीं हुई थी जबकि तब तक साधारणत: धीमी शुरुआत तो हो ही जानी चाहिए थी। कल (अर्थात सितंबर के अंत में) मैंने खजुराहो में एक मित्रवत ई-रिक्शा वाले को फोन किया तो पता चला कि अभी भी सूनापन पसरा हुआ है और अब वहाँ लोगों को इंतज़ार है नवरात्र शुरू होने का कि तब तो टूरिस्ट अच्छी संख्या में आ ही जाएंगे। खजुराहो से पहले हम चित्रकूट में थे तो वहाँ भी भीड़ तो नहीं थी लेकिन धार्मिक स्थल होने से इतना तो हो ही जाता है कि कुछ रौनक लगी रहती है। एक दूसरे से करीब पौने दो सौ किलोमीटर पर स्थित इन दोनों ही स्थानों में स्थानीय लोगों पर, चाहे वो छोटे दुकानदार हों (बड़ी दुकानें तो वहाँ खैर थी ही नहीं) या फिर ई-रिक्शा, ऑटो या टैक्सी वाले हों, सभी पर आर्थिक दबाव के चिन्ह दिखे।
खजुराहो, एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर का पर्यटन स्थल होने के बावजूद पर्यटन स्थलों जैसी लूट तो दूर, ऐसा लग रहा था कि स्थानीय परिवहन के साधन बहुतायत में होने के कारण सामान्य से भी कम किराये में हमें वाहन उपलब्ध थे। जब हम थोड़ा पैदल टहल रहे होते तो लगभग हर दस कदम पर कोई न कोई वाहन हमारे बगल में रुक कर हमें सस्ते में घुमाने का ऑफर देता। हम तो यह दुआ और उम्मीद कर रहे हैं कि आने वाले छः महीनों में ‘टूरिस्ट सीज़न’ अच्छा निकल जाएगा और अक्टूबर से मार्च तक ये लोग साल भर का अपना ठीक-ठाक औसत कमा लेंगे।
एक टैक्सी-चालक से जब अच्छी बातचीत होने लगी तो उसी क्रम में यह पता चला कि वह अभी अविवाहित है जबकि वह 35 से ऊपर का ही लग रहा होगा तो बात से बात निकलते इसके कारण । पता चला कि इसके दो कारण हैं। पहला तो यह कि घर का सबसे बड़ा बेटा होने के कारण और पिताजी के खराब स्वास्थ्य के चलते उसे दो बहनों के विवाह के लिए जल्दी कमाना शुरू करना पड़ा जिससे उसकी पढ़ाई दसवीं के बाद नहीं हो सकी। फिर उसने अपने छोटे भाई को पढ़ाने का भी प्रयास किया किन्तु वह स्कूली शिक्षा से आगे नहीं पढ़ सका। आजकल वह बंगलौर में टाइल लगाने का काम कर रहा है। शादी ना होने के दूसरा कारण यह भी रहा (और यह कारण अभी भी वैध है) कि वह जाति से ब्राहमण है और ब्राहमण परिवारों में आमतौर पर लड़कियां अच्छी पढ़ी-लिखीं हैं, इसलिए हमारे इस मित्र के लिए कोई उपयुक्त रिश्ता नहीं मिल रहा है। अगर काम मिलता रहे तो वह खूब टैक्सी चला लेगा क्योंकि अभी भी घर की जरूरतें तो कम नहीं हुई हैं। छोटे भाई को कमाने बंगलौर जाना पड़ा तो उसका सहयोग भी सीमित ही मिल पाता है और यों भी, अगर सिर्फ होली-दिवाली जैसे महत्वपूर्ण त्योहारों पर भी वो घर आए जाए तो खूब खर्च हो जाता है। हमारा यह मित्र स्वभाव से भी बहुत भला था और शायद हमें उसकी जितनी चिंता हो रही थी, वह स्वयं यह बातें कोई दुखी मन से नहीं बल्कि “जो है, वो बता रहे हैं, कोई शिकायत थोड़ी ना कर रहे हैं” के भाव से बता रहा था।
उधर रामघाट (चित्रकूट) में हमने एक नाव किराये पर ली जिसमें मल्लाह ने, एक बच्चे (जो अंदाज़न 14 बरस के आस-पास रहा होगा) को भी साथ आने दिया जो यूँ तो मंदाकिनी में आरती के लिए दीपक बेच रहा था किन्तु वह खूब बोलने वाला था। उससे पता चला कि वह भी निषादों (नाव खेने वाली जाति) का ही बच्चा है और अभी से नाव चलाना सीखने के लिए उतावला था। वह हमारी नाव पर भी हाथ आज़मा रहा था जबकि उसकी आयु और छोटे से शरीर को देखते हुए यह बिल्कुल अनुपयुक्त लग रहा था कि नाव खेने में तो काफी ताकत लगती है। हमने आपत्ति ज़ाहिर की तो उन दोनों ने कहा कि काम तो सीखना ही होगा नहीं तो कल (यानि भविष्य में) खाएगा क्या? ऐसे मासूम सवालों के जवाब में हम क्या कहते!
अब बताते हैं हम अपने और एक मित्र कल्लू पाल के बारे में जो खजुराहो में पिछले एक बरस से एक ई-रिक्शा चला रहे हैं। कल्लू का नया-नकोर रिक्शा है और साल भर से ऊपर हो गया लेकिन अभी तक कल्लू ने सीटों पर चढ़ा पॉलीथिन का कवर भी नहीं उतरने दिया। कल्लू का असली नाम तो कुछ और है लेकिन उन्होंने खूब ज़ोर देकर हमें कल्लू ही रटवाया क्योंकि उनका कहना था कि उन्हें पूरा खजुराहो कल्लू नाम से ही जानता है। जब हमने पूछा कि उन्हें इतने लोग क्यों जानते हैं तो कल्लू ने बताया कि वो ई-रिक्शा चलाने से पहले एक बड़े पेट्रोल पंप पर ऑफिस सहायक के रूप में काम करते थे और बैंक के लिए पर्ची बनाना या बैंक संबंधी सभी काम उनके ज़िम्मे थे। तो फिर वो नौकरी क्यों छोड़ दी, ये पूछने पर कल्लू ने बताया कि उनका वेतन वहाँ करीब छः हज़ार रुपये प्रति माह था और पेट्रोल पम्प के मालिक के बहुत अच्छा स्वभाव होने के बावजूद वहाँ पैसे बढ़ने संभव नहीं थे। “मेरे छोड़ने के साथ ही उन्हें वही काम करने के लिए पाँच हज़ार रुपये महीने पर एक नौजवान लड़का मिल गया, वो मेरे पैसे कैसे बढ़ाते लेकिन मेरे बच्चे अब बड़े हो गए हैं, उनकी पढ़ाई के खर्चों के साथ घर में और खर्चे भी बढ़ गए हैं, इसलिए मुझे नौकरी छोड़नी पड़ी”, कल्लू ने हमें पूरी स्थिति समझाई।
असंगठित क्षेत्र में बहुत से नौजवान पाँच हज़ार रुपये माहवार ही पाते हैं और वहाँ उनकी ‘ग्रोथ’ का कोई मौका नहीं होता, देश की ‘ग्रोथ’ कितनी भी होती रहती है, असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों का जीवन वहीं का वहीं ठहरा रहता है। बहरहाल, अभी हम अपने मित्र कल्लू की कहानी पर वापिस आयें तो हमने उनसे पूछा कि उनके पास ई-रिक्शा खरीदने के लिए पैसे का इंतज़ाम कैसे किया तो उन्होंने फिर एक बार अपने पेट्रोल पंप वाले सेठ की तारीफ करते हुए कहा कि चाहे मैं उनकी नौकरी छोड़ रहा था लेकिन उन्होंने मेरी बरसों की वफादारी की लाज रखते हुए बिना ब्याज रिक्शा खरीदने के पैसे उधार दिए और कहा कि मैं जब जमा कर लूँ, तब उन्हें लौटा दूँ। यह वाकई ही तारीफ की बात थी लेकिन असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों को आम तौर पर ऐसे उदार सेठ कहाँ मिलते हैं।
अभी हाल ही में सरकार की ओर से Periodic Labour Force Survey (PLFS) रिलीज़ किया गया है जिसके कुछ निष्कर्ष चिंताजनक हैं। एक निष्कर्ष जिससे हम सब वाकिफ़ हैं ही यह है कि हमारी श्रम-शक्ति का लगभग दो तिहाई (73.2%) असंगठित क्षेत्र में ही काम कर रहा है। और संगठित क्षेत्र में काम कर रहे मज़दूरों की हालत क्या है, इसका ‘आँखों देखा जायज़ा’ हमने आपको ऊपर दिया ही है। ‘मैन्यूफैकचरिंग सेक्टर’ में लगी श्रमशक्ति केवल साढ़े-ग्यारह प्रतिशत ही है और बरसों से यह इसी के आस-पास ही है। चीन से जैसे हमारा आयात लगातार बढ़ रहा है, उसे देखते हुए इसकी बहुत कम गुंजाइश है कि हमारे ‘मैन्यूफैकचरिंग सेक्टर’ में लगी श्रमशक्ति में कोई वृद्धि हो। एक और चिंताजनक निष्कर्ष ये है कि कृषि क्षेत्र में हमारी श्रमशक्ति फिर से बढ़ने लगी है और 2023-24 में ये बढ़कर 46.1% हो गई है। बेरोज़गारी की बढ़ती या घटती दरों की बहस में पड़े बिना हम यह निष्कर्ष तो निकाल सकते हैं कि अगर उच्च-शिक्षा प्राप्त और कुलीन संस्थानो से प्रशिक्षित थोड़े से युवाओं को छोड़ दिया जाए तो युवाओं के बीच बेरोज़गारी या प्रछन्न बेरोज़गारी बहुत बढ़ी हुई है। ऐसे में सरकार को कुछ गहन प्रयास करने होंगे जिनसे लघु एवं कुटीर उद्योगों को बढ़ावा मिले छोटे एवं मँझोले स्तर के उपक्रमों के लिए बिज़नेस करना आसान बनाया जाए – चाहे इसके लिए श्रम कानूनों में कुछ बदलाव करने पड़ें या जीएसटी (GST) की दरों में बदलाव करने पड़ें। राज्यों के साथ मिलकर ऐसे प्रयास करना बहुत ज़रूरी हो गया है कि बेरोज़गारी पर भी कुछ लगाम लगे और असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों के हालात भी कुछ तो बेहतर हों।
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