आंतरिक सुरक्षा की चुनौती और मोदी की बिना ब्रेक की बस
अखबारों से - 4
आज के स्तंभ में हम ज़्यादा लेख चुन सकते थे लेकिन जैसा कि पहले एक बार संकेत किया था, ये सब काम अकेले ही करना होता है तो जितना होना चाहिए, उतना नहीं हो पाता। चलिये, जो पढ़ा है, उसका एक हिस्सा आपसे शेयर करने का प्रयास करते हैं।
देश की सुरक्षा संबंधी चुनौती बाहरी से ज़्यादा आंतरिक है
देश की जलसेना के प्रमुख रह चुके एड्मिरल अरुण कुमार का एक लेख आज इंडियन एक्सप्रेस में आया है जिसमें उन्होंने वर्तमान सरकार की इस बात के लिए तो प्रशंसा की कि उसने सीमा-पार आतंकवाद का जवाब देने के लिए सर्जिकल स्ट्राइकस और फिर हाल ही में बालकोट पर आतंकवादियों के ठिकानों पर बम्बबारी करके अपने ठोस इरादे ज़ाहिर किए, वहीं इस बात के लिए चिंता व्यक्त की है कि इन कार्यवाहियों का राजनीतिकरण कर दिया गया और चुनावों में इसका जिस तरह दुरुपयोग हो रहा है, उससे सेना की कार्यवाही हल्की बात लाग्ने लगती है और सेना को इस तरह की हरकतों से एक तरह की झेंप महसूस होती है।
इस लेख में एड्मिरल अरुण कुमार ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात ये कही है कि भारत की सबसे गंभीर सुरक्षा संबंधी चुनौती बाहर से नहीं है बल्कि वह घरेलू (या आंतरिक) सौहार्द और एकता बनाए रखने की है। एक बार जब चुनाव सम्पन्न हो जाएँ तो देश के राजनीतिज्ञों को एक बार गंभीरता से सोचना होगा कि क्या देश के लिए धार्मिक बहुसंख्यकवाद की राजनीति पर जकड़ अच्छी बात होगी?
वह आगे लिखते हैं कि भारतीय राज्य कभी भी पूरी तरह सुरक्षित अनुभव नहीं कर सकता जब तक कि वह सभी नागरिकों के लिए समानता के आधार पर सुरक्षा और किसी भी प्रकार के भय से मुक्ति मुहैया नहीं कराता। देश की सशस्त्र सेनाएँ ‘सर्व-धर्म-सदभाव’ के आधार पर गठित हैं और राजनीतिज्ञों को ये समझना होगा कि यदि सेना धार्मिक सहिशुनता और शांतिपूर्ण सह-अस्तिव के सिद्धांतों को छोड़ेंगी तो उससे उनकी लड़ने की क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
एड्मिरल अरुण प्रकाश ये भी कहते हैं कि देश के DRDO जैसे रक्षा संस्थानों ने और हमारी सुस्त से रक्षा मंत्रालय ने देश के आयुद्ध भंडारों को आधा कर दिया है और देश की सेनाओं के आधुनिकीकरण का काम बिलकुल रुका हुआ है।
हमारा मत : भारतीय जनता पार्टी अपने को देशभक्त सबसे पहले कहलाना पसंद करती है। क्या वह सेना की इतनी सी बात नहीं मानेगी कि अब से वह सेना का राजनीतिकरण करना बंद कर दे? एड्मिरल अरुण प्रकाश अकेले ऐसे भूतपूर्व पदाधिकारी नहीं हैं जो भाजपा द्वारा सेना के राजनीतिकरण के खिलाफ हैं बल्कि अभी कुछ ही दिन पहले सेना के करीब डेढ़ सौ भूतपूर्व अफसरों ने भी सेना के राजनीतिकरण के खिलाफ एक सामूहिक पत्र राष्ट्रपति को लिखा था। चुनाव के बाद भाजपा जिस रूप में भी सत्ता में आती है, चाहे पूर्ण बहुमत से या फिर वह किसी मिलीजुली सरकार का हिस्सा होती है और यहाँ तक कि वह यदि विरोधी दल भी बन जाती है तो उसे अपने गिरेबान में झांकना होगा कि क्या सेना के राजनीतिक इस्तेमाल से वह सेना और देश की सुरक्षा से खिलवाड़ नहीं कर रही जैसा कि सेना से सेवा-निवृत्त बड़े अफसर कह रहे हैं? हमें तो लगता है कि अन्य दलों को भी भाजपा से (बिना मीडिया को बताए और बिना प्रचार की इच्छा के) इस विषय में संवाद स्थापित करना चाहिए और उनसे हाथ जोड़ कर कहना चाहिए कि कृपया देश-हित ये सब बंद कीजिये।
ये मोदी लहर है या फिर चुप्पी का तूफान
बरखा दत्त ने हिंदुस्तान टाइम्स में अपने साप्ताहिक स्तम्भ ‘थर्ड आइ’ में एक उलझन भरी स्थिति ब्यान की है। उनका कहना है कि जहां इस बार कोई बहुत प्रत्यक्ष मोदी – लहर नहीं दिख रही लेकिन फिर भी जिससे बात करो (सिवाय उत्तर प्रदेश के सपा-बसपा गठबंधन के वाचाल समर्थकों के) वह मोदी को ही वोट देने की बात करता है। यानि वोटर या तो मोदी को वोट देने की बात करता है और या दूसरी तरफ ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो चुप है। शायद बरखा दत्त ये अनुमान नहीं लगाना चाहतीं कि इन दोनों परिस्थितियों में से वह किसको ज़्यादा संभव मानती है लेकिन इतना इशारा ज़रूर करती हैं कि क्या पता ये जो चुप्पी का सागर है, उसके वोट भाजपा को भी हैरान कर दें और विरोधी दलों को भी।
मोदी की बिना ब्रेक की बस
सदानंद धूमे ने टाइम्स ऑफ इंडिया के अपने लेख में कहा है कि मोदी और अमित शाह अब देश को अब बिना ब्रेक की बस के समान चला रहे हैं। धूमे को वो अनुमान सही लग रहे हैं जिनके अनुसार मोदी फिर से सत्ता में आएंगे तो लेकिन थोड़ी कम सीटों के साथ और फिर गठबंधन की सरकार मोदी और अमित शाह पर थोड़ा नियंत्रण रख सकेंगी। धूमे अपने बिना ब्रेक की बस के तर्क को आगे बढ़ते हुए ये भी कहते हैं कि उम्मीद करनी चाहिए कि ये बिना ब्रेक की बस कहीं किसी गहरी खाई के आगे ना पहुँच जाये!
धूमे मोदी और अमित शाह की जोड़ी को जिस सबसे बड़ी गलती का ज़िम्मेवार मानते हैं, वो है पार्टी के ‘फ्रिंज – एलिमेंट्स’ को मेन-स्ट्रीम में लाना। लेखक को सबसे ज़्यादा नाराजगी है प्रज्ञा ठाकुर को चुनाव लड़वाने से। फिर योगी आदित्यनाथ जैसे सांप्रदायिक व्यक्ति को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने से जिसके बाद पार्टी कभी भी वाजपेयी के समय जैसा उदारवादी चेहरा नहीं बना सकती। इसी तरह धूमे नोटबंदी को भी मोदी सरकार का बिना सोचे-समझे लिया गया फैसला मानते हैं।
हमारा मत : सदानंद धूमे उन बुद्धिजीवियों में से लग रहे हैं जिन्होंने 2014 में यूपीए सरकार की घोर नाकामियों को देखते हुए मोदी में उम्मीद देखी होगी और उस उम्मीद के साये में वो भूल गए थे कि नरेंद्र मोदी वही राजनीतिज्ञ हैं जिन्होंने 2002 के दौरान गुजरात में हुए नर-संहार का लाभ भी उसके बाद हुए हर चुनाव में लिया था। उनसे ये उम्मीद करना कि वो हिन्दू-मुस्लिम की राजनीति नहीं करेंगे, एक तरह का भोलापन ही था। इसलिए अगर उन लोगों को आज की सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिशों पर अगर निराशा और हैरानी है तो हमें उनके भोलेपन पर हैरानी है।
चीन के बढ़ते प्रभाव पर चिंता
दुनिया के सबसे बड़े आर्थिक गलियारे 'वन बेल्ट, वन रोड' परियोजना को लेकर आए चीन की बढ़ती ताकत पर भारत को ख़ासी चिंता है और चीन के खासे दबाव के बावजूद अभी तक भारत ने इस परियोजना से अपनी दूरी बना रखी है। हाल ही में सम्पन्न दूसरे बेल्ट एंड रोड फोरम की शिखर मीटिंग हाल ही में सम्पन्न हुई है जिसमें अन्य विषयों के अलावा ‘डिजिटल सिल्क रोड’ प्रोजेक्ट पर भी चर्चा हुई और यही वह विषय है जिस पर अंतर्राष्ट्रीय विषयों के विशेषज्ञ नयन चंदा ने अपने एक लेख में गहरी चिंता ज़ाहिर की है।
नयन चंदा का कहना है कि डिजिटल दुनिया में 5G के आने से और इस क्षेत्र में चीन की बढ़ती ताकत से धीरे धीरे ऐसी स्थिति आ जाएगी कि चीन पूरी दुनिया के लिए ‘बिग ब्रदर’ बन जाएगा। अमेरिका जहां लगातार ये चेतावनी दे रहा है कि चीन की कंपनियाँ जो 5G का साजो-सामान देती हैं, जासूसी के काम में भी इस्तेमाल हो जाती हैं लेकिन वह भी इन्हें रोक पाने में सफल नहीं हो पा रहा। यहाँ तक कि अमेरिका के साथ खुफिया जानकारियां शेयर करने वाले देश जैसे ब्रिटेन, कनाडा, औस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड भी अब इन चीनी कंपनियों को अपने यहाँ 5जी ईक्विपमेंट लगाने का काम देने पर विचार कर रही हैं। नयन चंदा का कहना है कि 5G टेक्नोलोजी आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस, बिग डाटा, इंटरनेट ऑफ थिंग्स आदि सब ऐसी चीजों को नियत्रित करेगी और स्वाभाविक है कि चीन का प्रभाव-क्षेत्र बहुत बढ़ जाएगा। सबसे महतावपूर्ण बात नयन चंदा ये कहते हैं कि निगरानी रखने वाली टेक्नोलोजी जब चीन देगा तो फिर समाज पर नियंत्रण रखने वाला उसका राजनीतिक मॉडल भी चल निकलेगा।
यह लेख अपने निष्कर्ष में कहता है कि हो सकता है कि चीन का साइबर दुनिया में बढ़ता प्रभाव धीरे धीरे हमें एक ऐसी स्थिति में पहुंचा दे कि दुनिया भर को चीन के एक पार्टी के शासन वाले नियम मानने को मजबूर होना पड़े।
विद्या भूषण अरोरा