उषा पारिख स्मृतिः जीवन का अर्थ और अर्थमय जीवन

Raag Delhi | विविध | Jan 02, 2019 | 34

The South Asian Dialogue for Eco organised the Usha Parikh Memorial lecture on January 4, 2018, at IIC, New Delhi. The Memorial Lecture was delivered by Aseem Shrivastava, an environmental economist and independent author. He co-authored a well-noticed book "Churning the Earth: The Making of Global India" with Ashish Kothari. We are giving here the excerpts of Aseem's speech delivered on this occasion. The speech was in Hindi.

उषा पारिख स्मृतिः जीवन का अर्थ और अर्थमय जीवन

-असीम श्रीवास्तव

मैं अपनी बात एक कहानी से शुरू करूं तो अच्छा होगा। मंत्री जी थे, विलायत गए, विलायत से जब लौटे तो वो कहीं पर अपनी तकरीर कर रहे थे और उन्होंने पब्लिक में बोला कि विलायत ने बहुत तरक्की कर ली, वहां बच्चा-बच्चा अंग्रेजी बोलता है। जब मैं सोलह साल का था और दिल्ली आने के लिए उत्सुक था तो मैं भी ऐसा ही सोचता था। हालांकि मेरे माता-पिता ने मुझे पटना में कान्वेंट स्कूल में भेजा और मुझे अंग्रेजी अच्छी-खासी आती थी पर बोलने में शर्म आती थी क्योंकि पटना में कौन अंग्रेजी बोलता है और जो बोलता था उसका मजाक उड़ाया जाता था। तो अंग्रेजी बोलने से हम बहुत कतराते थे। हिन्दी, भोजपुरी, पटनैया सबकुछ चलता था। लेकिन अंग्रेजी के लफ्ज ऐसे होते थे जैसे मेरी मां सामने बैठी है तो हमको ‘नरभसा‘ देंगी हमको। इस तरह से पटना में अंग्रेजी बोली जाती थी। मैं बात कर रहा हूं 1978 की।

बच्चे की कल्पना होती है और मैं 16 साल में बच्चा नहीं था लेकिन जब 6-8-10 साल का था तो एक कल्पना तो थी बाहरी दुनिया की। और वो क्या थी। पिताजी काम के सिलसिले में विदेश जाते थे तो स्विजरलैंड से कार्ड आते थे तो उसके ऊपर एक पूरी दुनिया बसी हुई थी। और बहुत साल बाद जब मैं अमेरिका में अपनी डाक्टरेट कर रहा था तब मुझे ख्याल आया कि अमेरिका का बच्चा जब बड़ा होता है तो उसे भारत, एशिया या अफ्रीका या अमेरिका के किसी क्षेत्र की कल्पना की जरूरत ही नहीं पड़ती। वो करता ही नहीं है ज्यादा कल्पना। इसलिए यदि आप उससे दुनिया का नक्शा बनाने को कहें तो वो उल्टा-पुल्टा नक्शा बनाता है और हमारे दिमाग में हमेशा ये यूरोप की कल्पना है, अमेरिका की कल्पना है और अपने तरीके से हम बाकी दुनिया की भी कल्पना करते थे। तो अंग्रेजी बोलने के लिए हम बहुत उत्सुक थे। तो हमारा यहां मार्डन स्कूल में दाखिला हुआ दिल्ली में।

पिताजी ने ठीक समझा कि मुझे वहां डाल दें और मैं भी बहुत जिद्दी था, मुझे भी यहां आना था। तो मैं आ तो गया लेकिन कुछ समय बाद पता चला कि अंग्रेजी बोलना और अंग्रेजी लिखने और समझने में बहुत बड़ा अंतर है। और यहां के लड़के-लड़कियों को अंग्रेजी बोलना तो आती है लेकिन अंग्रेजी लिखना और पढ़ना ज्यादा नहीं। हमने पटना में जो शेक्सपीयर सीखी थी वो यहां के अध्यापक हमें नहीं सिखा पाते। तो खैर! मैंने क्यों यहां से बात शुरू की क्योंकि एक तरह से ये आजकल जब हम महात्मा मैकाले के युग में रह रहे हैं। मैं ये शब्द यहां इसलिए इस्तेमाल कर रहा हूं क्योंकि लोगों को आजकल मिल रही है क्योंकि गांधी जी के बाद मैकाले का नाम होना चाहिए। तो मैकाले ने जो संस्कृति इस देश पर लागू की और उनके हाथ में वो सत्ता थी जिससे वो लागू हो सकती थी उसी संस्कृति में हम सब बड़े हुए हैं जो शहरों में बड़े हुए हैं इस देश में। और उसका जो शिक्षा का जो ढांचा रहा है उससे जो हमें प्रशिक्षण मिली है अब हमें कई सालों से लगता है कि उसी प्रशिक्षण से हमें मुक्ति चाहिए। तो मैं उस दिन माँ से पूछ रहा था कि ‘अनलर्निंग‘ का कोई हिन्दी लफ्ज़ बताइए। और शायद है नहीं। तो इसीलिए मैंने प्रशिक्षण मुक्ति कहा। कि हमें उस प्रशिक्षण से मुक्ति चाहिए। तो आज मैं जो ख्याली पुलाव आपके सामने परोस रहा हूं 'प्राकृतिक स्वराज' का। ये कोई 30-35 साल की यात्रा के बाद का एक विराम है अभी के लिए या कौमा है। और जहां तक मेरी सोच अभी तक पहुंची है वो मैं आपके सामने धीरे-धीरे पेश करूंगा। 1990 के दशक में जब वाजपेयी जी प्रधानमंत्री बने थे तब एक अवसर पर उन्होंने कहा ‘इंसान प्रकृति में पैदा होता है वहां से वो या तो संस्कृति की तरफ जा सकता है या उसकी विकृति होगी‘। तो अभी तो हम विकृति से हम बहुत आगे चले गए हैं या यूं कहें कि ‘बिक्रीति‘ की तरफ चले गए हैं‘। क्योंकि अब हम बिकाऊ समाज में रह रहे हैं। बिकाऊ समाज से ही हम टिकाऊ विकास ढूंढ़ते रहते हैं तो इसीलिए मैं प्राकृतिक स्वराज की बात करना चाहता हूं क्योंकि अब मुझे लगता है कि कोई भी सपना चाहे जितना वो आज के मानव समाज के यर्थाथ से दूर लगे, उसको देखने से हमें कतराना नहीं चाहिए। विकास जो कि पिछले 70 साल से चल रहा है या विकास के नाम पर जो कुछ भी इस देश में चल रहा है वो एक तरह से देखिए तो बिल्कुल असंभव है।

किसी ने भी यदि ठीक से इसके बारे में सोचा है और थोड़ा-बहुत शोध किया है तो उसे मालूम है कि ये विकास असंभव है। लेकिन साथ-साथ ये भी लगता है और अर्थशास्त्री को ये भी लगता है कि इसके सिवाय चारा क्या है। और ऐसा बहुत लोग सोचते हैं तो मैं पिछले कुछ सालों से जब से मैंने इकोनामिक्स छोड़ी है इससे थोड़ा भिन्न सोचने लगा हूं। आज के हालात क्या हैं, किसी ने इंटरनेट पर दो लाइन की एक कविता भेजी। वो इसको संक्षेप में बता देती हैं। “कुछ लोग बरगद काटने आए, हमारे गांव में। अभी धूप बहुत है, ये कहकर बैठ गई उसी की छांव में”। ये हालात हैं। सबकुछ असंतुलित चल रहा है। हम अपनी शारीरिक अवस्था देखते हैं, हम अपनी मनोदशा देखते हैं। हम अपने रिश्तों को देखते हैं। हम बाहरी समाज को देखते हैं, राजनीति को देखते हैं, संस्कृति को देखते हैं। प्रकृति को देखते हैं जहां देखें असंतुलन का एक बहुत बड़ा बोझ सबके ऊपर है। किसी के पास पैसे नहीं हैं, किसी के पास इतने ज्यादा पैसे हैं कि पूरे टाइम उसका सिरदर्द यही है कि किस तरह से इस पैसे मैनेज करें। तो इस शहर में ऐसे लोग हैं जो पांच रूपया खर्च करने के लिए उन्हें पांच-दस मिनट सोचना पड़ता है और कुछ लोग ऐसे हैं जो कि पांच सौ का नोट निकालते हैं बिना कुछ सोचे। तो ये है आज की परिस्थिति। और इस देश का जो संपन्न वर्ग है, वो सोचता है कि हम मानव समाज की जो इस समय सामूहिक स्थिति है, उससे मुक्त हैं और मुक्त होते जा रहे हैं।

हम कोई तरीके निकाल लेंगे और टेक्नोलॉजी आती रहेगी इत्यादि। लेकिन ऐसा सोचना गलत है और इसके बारे में थोड़ा आगे बोलूंगा। मैं थोड़ी अपनी निजी बात कर दूं। 1980 के दशक में मैंने हिन्दू कालेज से अर्थशास्त्र का अध्ययन शुरू किया और पांच साल वहीं पढ़ा। तीन साल हिन्दू कालेज, दो साल दिल्ली स्कूल आफ इकोनोमिक्स में। उस वक्त का जो माहौल था उसमें सभी को जो कोई इस तरह के विषय में आता था और अगर वो परिवर्तन के बारे में सोचता था तो वो कहीं न कहीं समाजवादी सोच के दायरे में ही सोचता था। अंग्रेजी में जो हम कहते हैं ‘ब्रेड और बटर इकोनोमिस्टस‘ वैसे भी बहुत लोग थे जो कि समाज परिवर्तन का नहीं सोचते थे तो उनको सिविल सर्विसेज में जाना हो या फिर किसी ऐकेडिमिक कैरियर के लिए तो वो समाजवादी सोच में ज्यादा विश्वास नहीं रखते थे। लेकिन समाजवादी सोच का प्रकोप बहुत था आज की तुलना में तो बहुत ज्यादा था तो हम भी उसे प्रभाव में थे।

दिल्ली स्कूल आफ इकोनॉमिक्स में हमारे जो प्रोफेसर थे जिनसे मैं सबसे ज्यादा प्रभावित था शुक्मा चकवर्ती उन्होंने हमको हिदायत दी कि यूनिवसिर्टी ऑफ मैसाचुसेट्स, अमेरिका (University of Massachusetts America) जाओ। वहां अच्छी फैकल्टिी है क्योंकि जेएनयू में उस वक्त गड़बड़ चल रही थी एक साल तो एडमीशन भी नहीं था लड़कों का जेएनयू में। 1983-84 की बात है। तो मैं गया और एमहर्स्ट से मैंने पीएचडी की और बहुत साल माक्र्स और मार्किसज़्म पढ़ी और तमाम सारी समाजवादी लिटरेचर को भी देखा तो कई सालों के अध्ययन के बाद जो सवाल मेरे दिमाग में आए वो मैं आपके सामने प्रस्तुत करना चाहता हूं। क्योंकि ये बहुत गहरे सवाल हैं और इनका जवाब मुझे मार्किसज्म के भीतर नहीं मिला।

पहला सवाल ये है कि पूरी उम्र हमने इंसान को मूलतः एक अध्यात्मिक प्राणी माना है। ऐसे स्थायी विचार, ऐसा स्थायी विचार र्निविश्वास भौतिकवाद से भला कैसे मेल खाए तो ये एक चीज थी। दूसरी मार्क्स और मार्क्सवाद के लंबे अध्ययन के बाद हमने साफ समझा कि ये यूरोप से निकली आधुनिक सभ्यता का ही एक प्रतिरोधक पक्ष है। ये कोई सार्वभौमिक दर्शन कैसे हो सकता है; खासकर जब युद्ध इस सभ्यता का अशेष असूल है और उसकी नींव दूर-दराज की जीवित संस्कृतियों के अवसान पर पड़ी है। तीसरा माक्र्स और माक्र्सवाद का आधुनिकता के साथ-साथ प्रगति की विचारधारा में अटूट विश्वास है क्या इस विचारधारा ने कभी भी कबूल किया है कि इस प्रगति की कीमत प्रगति और भिन्न संस्कृतियां चुकाती आई हैं और इसमें पश्चिम की देशज संस्कृति भी शामिल है।

चौथा यूरोप की शेष मानसिकता की माफिक मार्क्सवाद ने भी काल को समय को केवल एक दिशा ही समझा लेकिन साधारण भारतीय, पारंपरिक जनमानस कल, आज और कल के रिश्ते की गोलाई समझता है। यही कारण है कि हम में से कई लोग संसार की तमाम आदिवासी सभ्यताओं को पिछड़ा कभी नहीं मान सकते खासकर इस पर्यावरण संकट के युग में; क्या ऐसी समझ मार्क्सवाद को कबूल होगी। पांचवा प्रगति मार्क्सवाद का मूल विश्वास तकनीक और टेक्नोलॉजी में रहा है क्या ऐसी सोच कभी भी मानेगी कि आज के युग की अधिकतम समस्याएं जैसे कि दुनिया के हर कोने में रफ्तार से बढ़ती बेरोजगारी और तीव्र गति से जलवायु परिवर्तन, ऐसी ही विचारधारा का प्रसाद है। छठा, शायद सबसे बड़ा सवाल पश्चिम के महान विचारक फ्रांसिस बेकन ने 16वीं शताब्दी में प्रकृति पर विजय की बात की थी।

मैं कॉनक्वेस्ट का हिन्दी में ढूंढ रहा था लेकिन मुझे मिला नहीं। हमला एक चीज होती है कॉनक्वेस्ट दूसरी चीज होती है। तो प्रकृति पर विजय की बात की थी तो क्या इस सोच को माक्र्स ने कभी नकारा। माक्र्स ने तो बल्कि खिल्ली उड़ाई थी जब उनको पता चला कि यहां पेड़ के नीचे मूर्तियां रहती हैं जिनकी लोग पूजा करते हैं। तो क्या इसको कभी माक्र्स ने नकारा या उनको ब्लेक और गैथे की रोमांचवादी दर्शन जिसने ओद्यौगिक क्रांति का कड़ा विरोध किया था? वो स्वीकार था। और आखिरी और ये शायद आज हमारे सामने सबसे बड़ा सवाल है आज जो विकास का सवाल है। आप भारत का इतिहास देंखे स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास देखें 47 के पहले का तो पंडित नेहरू, डॉ. अंबेडकर, आप पूरा गांधी जी को पढ़ लीजिए, आप रवीन्द्र नाथ को पढ़ लीजिए आप विवेकानंद देख लीजिए-इनमें से किसी ने भी  विकास के दायरे में भारत की बात नहीं की। भारत की समस्याओं को वो किसी और दिशा से समझते थे।

लेकिन, आजादी के बाद इसकी दिशा बिल्कुल बदल गई। उसके कारण हैं और उसके कारण में यदि समय होगा तो मैं जाऊंगा जैसे कि 1945 में जो पंडित नेहरू और महात्मा गांधी के बीच जो चिट्ठीयों के जरिए जो चर्चा चली जो कि गांधी जी चाहते थे सार्वजनिक कर दी जाए लेकिन जो बहुत समय तक सार्वजनिक नहीं हुई थीं; उस तरह की चीजें। यदि समय होगा तो मैं उसमें जाऊंगा लेकिन मैं अभी जो कहना चाहता हूं वो ये कि सन् 1941 के बाद पश्चिम से ‘विकास‘ का जोर आना शुरू हुआ। आप अटलांटिक चार्टर देखिएगा उसके बाद 1944 में वल्र्ड बैंक का गठन हुआ है। और मैं तो कहूंगा कि विकास शब्द तो बहुत पुराना है लेकिन विकास की अवधारणा को पब्लिक में लाना और उसका चलन, इतना बड़ा प्रचलन उसके लिए जो मुख्य जिम्मेदारी है वो वल्र्ड बैंक की है 1944 के बाद से। फिर अमेरीकी राष्ट्रपति हैरी ट्ररूमैन के ‘सैंकेंड इनोगरल एड्रेस‘ में 1949 में जब वो दूसरी बार राष्ट्रपति बने तब उन्होंने कहा कि ये हमारा फर्ज बनता है कि हम ‘अंडर डेवलप्ड एरिया‘ को डेवलेप करें।

इस तरह पिछड़े इलाकों का अविष्कार 1949 में होता है। और उसके बाद से हम सब ‘अंडरडेवलेप‘ हो गए। गुस्ताऊ उस्तेवा ने इसके ऊपर बहुत बढ़िया लिखा है। तो एक नए साम्राज्यवाद की परिभाषा में हम पिछड़े माने जाने लगे; ऑफिसियल डिकोलोनाइजेशन के बाद। अनुपम जी ने इसी को बहुत खूबसूरती के साथ विचित्र आजादी बताया, वही विचित्र आजादी हमें 1947 में मिली। अब मुझे लगता है विचित्रता बची रह गई और आजादी खत्म। अब मैं तो मानता हूं कि ये जूकरबर्गिया है और इसमें मोदीशाही का जो राज है वो जूकरबर्गिया का राज है; मोदीशाही तो उसका बहाना है।

तो मैं थोड़ा सा अपने और निजी अनुभव की बात करूंगा। तकरीबन 15-20 साल आगे-पीछे लेकर मैं विदेश रहा, पश्चिम में रहा करीब 10 साल अमेरिका में और करीब 5 साल यूरोप में। और कई चीजें जो आदमी को नजर आती हैं लेकिन आदमी उसके बारे में बोलता नहीं है या पूरी तरह से समझता नहीं है। एक हमारी रूममेट होती थी जो बहुत पहले अमेरिका में जब पहले दो-तीन साल में। एक बार उसने दरवाजा खटखटाया और उसको प्याज चाहिए था। और वो प्याज उसे उधार में चाहिए था। तो हम उसकी बात समझ नहीं पाए और हमने दोबारा उससे वो बात पूछी तो उसने दोबारा वही बात कही। तो मुझे बहुत अटपटा लगा तो मैंने कहा कि आप मेरे किचन से ले लीजिए जो भी आपको चाहिए वो लीजिए। तो वो बहुत खुश हुई और उसने वो ले लिया तो अगले दिन मेरे डाइनिंग टेबल पर एक प्याज रखा था और उसके नीचे एक कागज रखा था जिसपर लिखा था थैंक्यू वेरी मच। तो मुझे लगा कि इस सभ्यता में एक न्यूकलियर एक्सप्लोज़न हो चुका है।

ये छोटी चीज नहीं है, भारत के किसी भी कोने में इस चीज की कल्पना नहीं की जा सकती और शायद आज भी नहीं की जा सकती। किसी का दिल इतना छोटा नहीं हो सकता। लेकिन ऐसा नहीं है कि वहां अमेरिका में लोगों का दिल छोटा है। वो बात नहीं है लेकिन ये समाज का आम कानून है कि ये आपकी चीज है, ये हमारी चीज है। तो ये एक बाउन्ड्री होती है और वो बहुत साफ है और जिसको अंग्रेजी में ‘कान्ट्रेक्ट थ्योरी‘ बोलते हैं। लॉ में, इकोनॉमिक्स में और पॉलिटिक्स-में वो आखिरकार है क्या चीज। आपने सबकुछ ठेके पर दिया है तो रिश्ते भी तो ठेके पर हैं। और इसके बारे में हमें सोचना पड़ेगा क्योंकि इस वक्त हम भारत में उसी युग में जी रहे हैं कि हम उसी तरफ बह रहे हैं और समाज का दायरा दिन-प्रतिदिन कम होता जा रहा है। और मार्केट का दायरा बढ़ता जा रहा है।

दूसरी कहानी मैं आपको बताऊंगा, अमेरिका में मेरा एक दोस्त है वो मेरी बहुत ही करीब का मित्र है। उसकी मां वहां की आदिवासी जाति से आती थी, नैटिव अमेरिकन थी। और पिताजी यहूदी थे। तो वो दोनों गुजर चुके थे और उसकी मां जब गुजरी तो वो जाते वक्त उन्होंने दो चीजें कहीं। ‘गोरे आदमी से कभी तोहफा मत लेना और तोहफा लिया तो ये मत समझना कि ये मुफ्त का है‘ और दूसरी चीज ‘गोरा आदमी जब कोई गुनाह करता है तो उसके पहले वो कानून बनाएगा और उसके बाद वो कानून उसको गुनाह की अनुमति देगा तब वो गुनाह होता है।' तो ये सब चीजें अमेरिका में पब्लिक में कभी भी नहीं रहती हैं।

आपने सुना? लेकिन वहां का जो समाज है, जहां तक वहां का समाज बचा है वो ऐसा सोचता है, ऐसा करता है यही सोचकर कभी-कभी हैरानी होती है। तीसरी चीज मैं आपको बताऊं जिस किताब ने अमेरिका में मुझे बहुत प्रभावित किया और वही किताब मैं बार-बार सालों तक पढ़ता रहा और अभी भी पढ़ता रहता हूं मोबी डिक (Moby Dick), हर्बन मिल की तो उसकी कहानी बहुत सरल सी है कि एक व्हेलिंग शिप है जो पेसेफिक में व्हेल हंटिंग में जाते हैं। उसका जो कैप्टन है उसको एक जुनून है एक व्हेल से बदला लेने का। एक खास व्हेलस। जिसने उसके जहाज को कई सालों पहले अपनी नाक से पलट दिया था। उसी व्हैल को इसे ढूँढना है और बदला लेना है और वो व्हेल उसकी एक टांग भी ले गयी थी। तो मान लीजिए कि उस टांग का नाम है वल्र्ड ट्रेड सेंटर और उस व्हैल का नाम है ओसामा बिन लादेन। बात तो वही हुई ना। तो अगर किसी को आज की सर्वसत्तावादी अमेरिकी सरकार को समझना है तो उससे महत्वपूर्ण किताब मैं नहीं जानता उसे आप कई स्तर पर पढ़ सकते हैं। उसको आप लड़कों के लिए एक एडवैंचर स्टोरी जैसा पढ़ सकते हैं या फिर आप ‘ऐलेगिरी‘ की तरह पढ़ सकते हैं कि उससे आपको एक समाज का और जो संस्कृति का जो परिवेश है वो क्या है और उसकी मानसिकता क्या है और वो किस दिशा में जा रही है ये मेलविल को 1851 में दिख रहा था। और मेलविल ने तमाम सी और चीजें लिखीं जिसमें उनकी एक से एक खूबसूरत उस समाज की सच्चाईयां यदि आपको जाननी हैं तो वो आपको वहां से मिलेंगी।

मेरा तो एक ख्वाब है कि हिन्दुस्तान में एक कोर्स को इजाद करना चाहिए ‘एन इंडियन कोर्स इन अमेरिकन स्टडीज़‘ जिसमें आदमी ज्यादा चीजें न पढ़ें केवल पांच या छह चीजें पढ़े। वो पढ़ाई एक महीने में हो सके और उससे ये पता चले कि हम जिस संस्कृति की बंदरों की तरह रोज़ सुबह से शाम नकल उतारते रहते हैं वो संस्कृति है क्या, वो लोग हैं कौन। आज तक मुझे एक अच्छी किताब नहीं मिली है जो किसी भारतीय ने लिखी है, अमेरिका के बारे में। उस समाज के बारे में। यहां से वहां लाखों लोग पढ़ने जाते रहते हैं। हम भी गए, काम करते हैं लेकिन कोई तो बता दे, ये लोग कौन हैं, ये संस्कृति क्या है। इसका इतिहास क्या है, अपनी नजर से। पंडिता रमा बाई ने एक किताब लिखी थी 1886 में जिसका अंग्रेजी में अनुवाद 2006 में हुआ। उसके अलावा मुझे कोई ढंग की किताब नहीं मिली। फिर मेरी जिज्ञासा जागी कि मैं इनके समाज को इन्हीं की नज़र से जो यहां पर लोगों ने गहरा अध्ययन किया है जिनका लंबा अनुभव है उन्होंने कैसे देखा और समझा है इस संस्कृति को। जब मैंने पढ़ना शुरू किया। काफी सारे दार्शनिकों और लेखकों को पढ़ा तो उससे मुझे पता चला कि पहले इन लोगों ने अपने साथ बहुत छल किया और वही वो फिर बाहर ले आए हैं चाहे आप फिलोसफर को पढ़िए, पोएटस को पढ़िए, राइटरस को पढ़िए-आपको वो बात दिखने लगती हैं कि जो पंजा ये बाकी दुनिया पर जमाते हैं, वो बाकी दुनिया से पहले इन्होंने अपने समाज पर जमाया है। और वही शक्ति जो बाहर काम करती है वही पहले भीतर काम कर चुकी है और अभी तक करती जा रही है।

इसमें एक नज़र से देखें तो ये ईस्ट-वेस्ट का मसला नहीं है और हमें वैसे नहीं देखना चाहिए और दूसरी नज़र से देखें तो ईस्ट-वेस्ट का ही मसला है क्योंकि वहां के लोगों की सोच अलग रही है और कई दशकों से, कई पीढ़ियों से; आज से नहीं। भारतवर्ष में कोई पंचायत का चुनाव भी जीतकर दिखा दे, ये कहकर कि समाज जैसी चीज नहीं होती है। पचास साल बाद भी मेरी नजर में ये बात सार्थक नहीं हो सकती है। ये चीज क्या बताती है तो जब पूूंजीवाद का प्रकोप इतना बढ़ा और इतना भयानक हो जाता है कि पूरी तरह से वो समाज को ध्वस्त कर चुका है और कई पीढ़ियों पहले, आज नहीं। तो फिर वो कलैक्टिव मैमोरी कुछ और हो जाती है। इसलिए पश्चिम से इतने सारे लोग आते हैं इस दिशा में कुछ ढूंढने और बहुतों को कुछ मिलता भी है तो इसपर हमें गौर करना चाहिए क्योंकि वो इस समय शायद हम ये नहीं देख पाए हैं कि वो कौन हैं और नतीजन हम ये भी नहीं देख पाए हैं कि हम कौन हैं। तो एक तरह से जो हमारी दूरियां बढ़ती गई हैं अपने लोगों से वो क्यों बढ़ती गई हैं क्योंकि हम पूरे समय किसी और के और ज्यादा नज़दीक आना चाहते हैं। और शायद यही कारण ये भी है कि उनके बारे में हमने एक अच्छी किताब नहीं लिखी। कोई मुलाज़िम अपने मालिक के ऊपर अच्छी किताब लिखेगा! तो सोचना चाहिए इसके बारे में।

एक और चीज में कहना चाहूंगा अपने अमेरिकी अनुभव के बारे में। व्यक्तिगत आजादी के बारे में बहुत सुनते थे हम वहां। अभी भी उसका इतना प्रचलन है। उसे ठीक से सोचें तो क्या हुआ है। आपने व्यक्ति की समग्रता को दो टुकड़ों में किया है। उसका जो सार्वजनिक जीवन था वो आपने स्टेट की तरफ सौंप दिया और उसका जो निजी जीवन था वो कार्पोरेशन को नीलाम हो गया उसमें व्यक्ति कहां बचा। मुझे तो नहीं दिखा। मुझे तो वेस्ट में एक ही चीज दिखती है ‘सिस्टम‘। हर चीज के लिए उनको सिस्टम चाहिए, हर चीज के लिए उन्हें  पॉलिसी चाहिए। हर चीज के लिए उन्हें स्ट्रक्चर चाहिए तो ये मैंने अमेरिका में भी देखा,  नार्वे में भी देखा। नार्वे में मैंने चार साल पढ़ाया, हर चीज के लिए उन्हें सिस्टम बनाना है और उसके बाद वो सिस्टम इतना उनकी मानसिकता पर हावी हो जाता है कि उसमें व्यक्ति की जो आत्म स्वतंत्रता है, उसमें स्वराज जैसी चीज कैसे बच सकती है। और यही मैं थोड़ा आगे जाकर बात करना चाहता हूं कि स्वराज और गणतंत्र में कितना बड़ा फासला है ये शायद गांधी जी को ही समझ में आया है आज तक। इसकी जब भी हम परिभाषा देते हैं या स्वराज का रूपांतर करते हैं तो हम जल्दी से डेमोक्रेसी बोल देते हैं ऐसी बात नहीं है। और ये सिस्टम का आज इसका मकसद क्या है? आज इसका लक्ष्य क्या है? आज इसका वही लक्ष्य है जो इसका 400-500 साल पहले था कि बाजार में बढ़ोतरी हो और उसी के लिए वो आईबीएम का स्लोगन निकला है ‘लेटस बिल्ड ए स्मार्टर प्लेनेट‘। तो उनकी जो तमाम सोच है हर चीज के बारे में फिर चाहे वो राजनीति हो, समाज हो या संस्कृति हो या प्रकृति हो वो हर चीज को अभी इसी दायरे में देखते रहेंगे। उसके अलावा उसके बाहर वो नहीं सोच सकते।

अब हम थोड़ा बात करना चाहते हैं अपने दार्शनिकों की। उसकी शुरूआत मैं विवेकानंद से करना चाहूंगा और उसका कारण है कि 1902 में अपनी मृत्यु शैया से विवेकानंद ने ये बात कही थी और मेरी नजर में बहुत बहुमूल्य बात है। आज के तथाकथित हिन्दू शासकों को ये बात गौर से सुननी चाहिए। उन्होंने कहा कि भारत अगर भगवान की तलाश में रहा तो वो अमर हो जाएगा। अगर वो राजनीति और सामाजिक मतभेद में पड़ा तो उसकी मृत्यु निश्चित है। आप सोचिए इस बारे में 1902 में इस देश में कितनी पोलिटिक्ल पार्टीज थीं? -सिर्फ एक और उसका नाम था इंडियन नैशनल कांग्रेस। इंसान की जिन्दगी में दो वक्त होते हैं जब उससे झूठ खुद भी नहीं सहा जाता है। एक जब वो जेल में होता है और दूसरा जब वो दुनिया छोड़ने वाला होता है। तो जाते वक्त विवेकानन्द ने ये श्रद्धाभरी चेतावनी दी। यदि आप उस वक्त के विवेकानंद के वक्तव्य देखिए, और रवीन्द्रनाथ के देखिए। तो एक चीज वो दोनों ही कहते हैं, बाकी चीज में उनका भिन्न मत है कि This is a spritual civiliztion ये अध्यात्मिक सभ्यता है। this is not a political civilization. बार-बार रवीन्द्रनाथ कहते हैं This is not a political civilization.  तो मेरी जो अभी तक समझ बनी है उनमें से एक ये है कि 1857 में इतिहास की दिशा इस देश में बहुत गहरे स्तर पर बदली।

जिस हिन्दुस्तान में हम आज 160 साल बाद रह रहे हैं ये वही भारत है जिसका गठन 1857 के बाद होता है पूरी तरह से। जिसकी एक पूर्व दृष्टि आपको 1757 के बाद बंगाल से मिलती है। और यूरोप में 19वीं शताब्दी में राजनीति ही राजनीति है। उनके जितने युद्ध होते हैं राष्ट्रवाद आदि पर वो सारे राजनीति से ही उत्पन्न होते हैं। ये सब देखकर ही ये लोग (विवेकानन्द और टैगोर) कह रहे हैं कि राजनीति से सावधान। इस देश में कुछ और भी है उससे सावधान। लेकिन ध्यान कहीं ओर जाता है। 1904 में मुस्लिम लीग का गठन होता है। 1906 में हिन्दू महासभा उसका जवाब देती है। 1924 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी बनती है। 1925 में आरएसएस उसका जवाब देती है और उसके बाद का इतिहास आपको मालूम है। तो 1947 में जब देश टुकड़ों-टुकड़ों में होता है तो ये बात मैंने आरएसएस से बोली थी। उन्होंने मुझे चित्रकूट बुलाया था तो ये बात मैंने उन्होंने से बोली थी कि स्वामी विवेकानंद की बात क्या गलत थी? आपने उनकी बात पर कभी गौर किया तो राजनीति से जो भी चीज पश्चिम में हुई वो चीज हम जब नकल उतारते हैं तो उसको कहीं और ही ले जाते हैं फिर चाहे वो पॉलिटिक्स हो, या क्रिकेट हो या फिल्म हो। उस दिन जब फोटो निकली अनुष्का, विराट कोहली और मोदी जी की तो मुझे लगा कि ये तीन लोग ही तो देश चला रहे हैं। जुकरबर्ग के मुलाजिम हिन्दुस्तान में कौन हैं-यही तो हैं। और हम ये कभी भी न सोचें कि ये जो साम्रज्यवाद आज का जो नियंत्रित करते हैं उनको ये सब चीजें समझ में नहीं आतीं। बल्कि यही सब चीजें तो वो समझते हैं।

ढ़ाई-तीन सौ साल से हमारी हालत इसीलिए तो ऐसी हुई है क्योंकि हमने उनको कभी समझने की कोशिश नहीं की, उनके अपने परिवेश में। जबकि वो हर हफ्ते बीस किताबें छापते हैं, तमाम रिपोर्टर आते हैं हमारा इंटरव्यू करने, हमारे ऊपर कैमरे रहते है, सैटेलाइट होते हैं। पूरे टाइम सर्विलेंस होती है। अब तो सबको पता है कि हमारी आदतें क्या हैं तो ये जब इस तरह की जासूसी चल रही है इंटरनेट के जरिए और इंटरनेट एसपिओनेज का तरीका है और कुछ नहीं है मूलतः यही है। तो जो 500 साल से जो हमला चला आ रहा है उसी को आगे ले जाने के लिए पहले उन्होंने हमारे ऊपर विकास की अवधारणा छोड़ी और हमने उसे स्वीकार किया और उसके बाद अब तमाम टेक्नोलॉजी उसके भी ऊपर आती है। ये बात आपको मिलेगी प्रेमचंद के एक लेख में और ये लेख मेरी मां ने मुझे चार साल पहले दिखाया। वो उस समय उनकी जन्मतिथि पर जनसत्ता में छपा था और उसका शीर्षक है ‘राज्यवाद और साम्राज्यवाद‘। सिर्फ एक पन्ने का लेख है यदि किसी को दुनिया का पिछले 200 साल का इतिहास समझना है एक पन्ने से तो उससे बेहतर पन्ना मैं नहीं जानता। उसमें वो बहुत सरल सी चीज कहते हैं कि राज्यवाद के जमाने में जब हमला होता था तो एक बार के लिए होता था उससे राजा को या तो अपनी बहादुरी सिद्ध करनी होती थी या फिर उनको आपके हीरे-जवाहरात बहुत पसंद होते थे या फिर आपको अपने धर्म के प्रति उनको परिवर्तित करना होता था और उनका मकसद जब पूरा हो जाता था तो ये हमला समाप्त हो जाता था। साम्राज्यवाद का जमाना ऐसा नहीं है।

साम्राज्यवाद के जमाने में हमला निरन्तर होगा, हमेशा के लिए होगा। कभी रुकेगा नहीं। प्रेमचंद की बात का ये मतलब था कि जब इम्पायरस बनते हैं ट्रैडिंग के लिए। तो उनका मुख्य मकसद व्यापार है तो उसकी तो कोई सीमा नहीं है तो जितना ज्यादा हो उतना अच्छा है। जितना बीमार समाज उतना दवाई बिकेगी। तो आपने एक पूरी आसर्नल ऑफ़ इंडस्ट्रीज कर दीं बीमारी फैलाने के लिए और एक दूसरी कर दी बीमारियों का हल निकालने के लिए। तो पूंजीवाद को जिसने भी पढ़ा है तो वो जानता है कि आप किसी देश पर जाकर बम गिराएंगे तो जीडीपी बढ़ेगी उसके बाद आप उस देश को ‘री-कन्स्ट्रकट‘ करेंगे तो जीडीपी और बढ़ेगी। ये बहुत सरल सी बात है और ये सिलसिला 500 साल से चलता आ रहा है तो ये प्रेमचंद ने बहुत सरलता के साथ उसमें समझा दिया कि ये हमला हमेशा के लिए होगा। और एक चीज और उन्होंने कही उनके लिए कही जो अभी भी कम्यूनिज्म में गहरा विश्वास रखते हैं वो कहते हैं कि अगर शादी में सबकी वैसी खातिर करनी हो जैसे दूल्हे की जाती है तो यदि नाई, धोबी सबकी वैसे ही खातिर अगर होगी तो क्या होगा शरातियों का। तो लैनिन ने लेबरएइरिस्ट्रोक्रेसी की बात की थी।

लेकिन, आप सोचिए प्रेमचंद ने तो वो सब नहीं पढ़ा था लेकिन उनको ये बात सरलता से समझ में आ गई थी कि जो पश्चिम की वर्किंग क्लास पाॅलिटिक्स है जो वहां की लेबरएरिस्ट्रोक्रेसी है जो वहां पर जिन दावों पर राजनेता लोग चुनाव जीतते हैं वो किसकी कीमत पर जीतते हैं? वो कहां से चीजें आ रही हैं? वो कहां से सौदा करते हैं? हमारे यहां से। तो ये बात प्रेमचंद में आपको मिलेगी। यही बात रवीन्द्र नाथ ने लिखी है ‘राबरी ऑफ़ द सोयल‘ (Robbery of the soil) पढ़िए। कई बंगालियों से मैं मिला हूं जिनको उस लेख के बारे में नहीं पता। ये सारी चीजें स्कूल के सिलेबस में होनी चाहिए लेकिन पता नहीं कौन ये सब ये चीजें बनाता है, शायद कोई मैकाले का ही पोता होगा। तो प्रेमचंद की बात गाँधी जी की बात से मेल खाती है। आप हिन्द स्वराज जब देखिए और मैं धारा जो ढूंढ रहा है वो ये कि विवेकानंद ने जो अध्यात्म की बात की, प्रेमचंद ने जो भौतिक दुनिया की बात की, गांधी जी ने हिन्द स्वराज में दोनों को जोड़ दिया है और दोनों को पिरोकर वो कह रहे हैं कि जो इसका मुझे मूल तत्व दिखता है वो ये है कि पश्चिम की संस्कृति, अर्थव्यवस्था बनी है, हर चीज को जटिल से जटिल बनाने के लिए क्योंकि जब तक चीजों का अविष्कार नहीं होगा और वो बिकती नहीं जाएंगी तब तक बाज़ार नहीं बढ़ सकता है। दूसरी तरफ हमारी संस्कृति का आधार कहीं और है। यहां हम हर चीज को सरल से सरल रखना चाहते हैं।

भौतिक जीवन, दुनियावी जीवन सरल से सरल रहे क्यों? बहुत से लोग पूछेंगे कि क्यों सरल रहे और उसका गांधीजी के पास जवाब है। उसका ये मतलब नहीं कि समाज में चिकित्सा और मतभेद सुलझाने के लिए कोई तरीके न हों क्योंकि उन्होंने हिन्द स्वराज में लिखा है कि हमें डाक्टर और वकील नहीं चाहिए तो लोग उससे उल्टा-पुल्टा अनुमान लगाते हैं लेकिन गांधीजी ने तो ये कभी नहीं कहा कि चिकित्सा के लिए कोई तरीके न हों या झगड़े सुलझाने के लिए कोई तरीके न हों। उन्होंने सिर्फ ये कहा कि डाक्टर नहीं होने चाहिए, वकील नहीं होने चाहिए यानि के अंग्रेजी में बोलेंगे तो ‘वैस्टेड इंटरेस्ट‘ (vested interest) न हो कि लोगों की परेशानियों से डाक्टर-वकील पैसा बनाएं। ये सोच बिल्कुल फर्क है और ये चीज गांधीजी को दिखती थी तो मैं आपका ध्यानाकर्षण इसपर कर रहा हूं कि जिन लोगों ने अंग्रेजों से लोहा लिया था जिन्होंने साम्राज्यवाद का अपने जीवन से पूरे जीवन से सामना किया था उनको पता था कि वो किनसे बात कर रहे हैं।

आज हमको नहीं पता कि हम किससे बात कर रहे हैं। इसलिए हम और ज्यादा बड़े जंजाल में फंसे हैं। अब तो साम्राज्य का ही नहीं ये तो आधुनिकता का जंजाल है। और आधुनिकता का जंजाल ऐसा है कि ये चंद लोगों को सोने की जंजीर पहनाता है और बाकी लोगों को लोहे की जंजीर पहनाता है। इससे कोई मुक्त नहीं हो सकता और ये सारी चीजें गांधीजी को दिखती थीं इसलिए उन्होंने कहा कि India has nothing to learn from modern civilization.  ये कोई उन्होंने अपने अहंकार से नहीं कहा, मेरे ख्याल से उनकी समझ थी। एक और चीज हिन्द स्वराज में जो उन्होंने वासनाओं और भावनाओं पर काबू या संयम पाने पर जोर दिया है कि ये स्वराज के लिए जरूरी है, इसके बिना मुश्किल है तो ये समझना जरूरी है क्योंकि आधुनिक दुनिया समझती है कि ये ऊपर से होना है यानि कि दिमाग से और ये गलत है। वो वहां से नहीं हो सकता है क्योंकि हमारी भावनाएं वैसी नहीं होती हैं वो आत्मा से ही हो सकता है, वो नीचे से ही हो सकता है और जब तक हम वहां नहीं जाएंगे तब तक वो भावनाएं और वासना हमें अपनी दिशा में ले जाएगी।

आज का मीडियाग्रस्त युग कभी इससे नहीं निकलेगा जब तक ये नहीं समझेगा तो ये बात गांधी जी को समझ में आ गई थी उनके पास समय नहीं था शायद इसे समझाने का लेकिन हमारा मेरे ख्याल से फर्ज बनता है कि हम इसपर गौर करें क्योंकि एक शब्द है जो कि आज के युग के पूरी तरह से संचालित कर रहा है तो वो है ‘चाहत‘ और मीडिया की मदद से पूरे समय आग में तेल झोंका जा रहा है। तो चाहत अच्छी चीज है लेकिन एक हद तक। लेकिन उसे समझना किसका काम है? उसको समझने के लिए जो आपको विवेक-बुद्धि चाहिए वो कहां से आय...



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